Sunday, February 24, 2008

तेरह दिवसों का पक्ष (विश्वघस्रपक्ष)

Synopsis

The occurrence of a lunar fortnight of thirteen days and its ill effects have come up in the भीष्म पर्व of the Mahabharata. The मुहूर्तगणपति also deals with this topic. The पीयूषधारा commentary on मुहूर्तचिन्तामणि gives also its frequency (i.e. period of repetition) viz. a thousand years. According to Dr. J. F. Fleet, it occurs at least once in twenty-five years. Pt. S. B. Dixit gives an example of lower frequency of seven years.

'The present author feels that the occurrence of thirteen days' lunar fortnight is so frequent (the frequency may be as low as three years) that there is nothing to worry about this phenomenon.
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महाभारत में तेरह दिवसों के पक्ष की चर्चा आयी है । महाभारत युद्ध से कुछ पहले व्यास जी धृतराष्ट्र से कहते हैं -

चतुर्दशीं पञ्चदशीं भूतपूर्वां च षोडशीम् ।
इमां तु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम् ।
चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥
अपर्वणि ग्रहेणेतौ प्रजाः संक्षपयिष्यतः । - भीष्मपर्व (३।३२-३३), गीता प्रेस

अर्थात् एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथि क्षय न होने पर पन्द्रहवें दिन और एक तिथि की वृद्धि होने पर सोलहवें दिन अमावस्या का होना तो पहले देखा गया हे, परन्तु इस पक्ष में जो तेरहवें दिन यह अमावस्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है । इस एक ही महीने में तेरह दिनों के भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों लग गये । इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्व में ग्रहण लगने के कारण ये सूर्य और चन्द्रमा प्रजा का विनाश करने वाले होंगे ।

महाभारत युद्ध में हुए विनाश का परिमाण भी महाभारत में मिलता है । धृतराष्ट्र के द्वारा मृतों की संख्या बतलाने के लिए कहने पर युधिष्ठिर कहते हैं -
दशायुतानामयुतं सहस्राणि च विंशतिः ।
कोट्यः षष्टिश्च षट् चव ह्यस्मिन् राजन् मृधे हताः ॥
अलक्शितानां वीराणां सहस्राणि चतुर्दश ।
दश चान्यानि राजेन्द्र शतं षष्टिश्च पञ्च च ॥ स्त्रीपर्व (२६।९-१०)

हे राजन् ! इस युद्ध में एक अरब, छियासठ करोड़, बीस हजार (१,६६,००,२०,०००) योद्धा मारे गये हैं । राजेन्द्र ! इनके अतिरिक्त चौबीस हजार एक सौ पैंसठ (२४,१६५) सैनिक लापता हैं ।

मुहूर्त्तगणपति नामक ज्योतिष ग्रन्थ के मिश्रप्रकरण, श्लोक १३३ में भी तेरह दिवसों के पक्श को उत्पात सूचक बताया गया है [1] -

त्रयोदशदिनः पक्षो यस्मिन् वर्षे भवेत्तदा ।
प्रजानाशोऽथ दर्भिक्षं तथा भूमिभुजां क्षयः ॥

अर्थात् जिस वर्ष में तेरह दिन का पक्ष होता है उस वर्ष में प्रजा का नाश, अकाल एवं राजाओं का क्षय होता है ।

मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण, श्लोक ४८ में कहा गया है [2] -

अस्ते वर्ज्य सिंहनक्रस्थजीवे वर्ज्य केचिद् वक्रगे चातिचारे ।
गुर्वादित्ये विश्वघस्रेऽपि पक्षे प्रोचुस्तद्वद् दन्तरत्नादिभुषाम् ॥

अर्थात् जिस किसी शुभ कार्य को गुरु ग्रह के अस्त रहने पर निषिद्ध कहा गया है, उसे गुरु ग्रह के सिंह या मकर राशि में रहने पर भी निषिद्ध समझे । कुछ आचार्यों के मत में उसकी वक्रगति होने पर और उसके अतिचार होने पर भी निषिद्ध है । कुछ के मत में, गुरु और सूर्य की युति (एक राशि में दोनों की स्थिति) में भी और विश्वघस्रपक्ष में भी निषिद्ध है । इसी प्रकार हस्तिदन्त, रत्न आदि भूषणों के प्रयोग के लिए भी उपर्युक्त कालों को निषिद्ध कहा गया है ।

'विश्वघस्रपक्ष' पर पीयूष टीका इस प्रकार है - 'विश्वघस्रेऽपि पक्षे त्रयोदशदिने पक्षे यस्मिन् पक्षे तिथिद्वयह्रासः, स त्रयोदशदिनात्मकः पक्षोऽतिनिन्द्यः । तदुक्तं ज्योतिर्निबन्धे –

पक्षस्य मध्ये द्वितिथी पतेतां तदा भवेद् रौरवकालयोगः ।
पक्षे विनष्टे सकलं विनष्टमित्याहुराचार्यवराः समस्ताः ॥ इति ।

तथा - "त्रयोदशदिने पक्षे तदा संहरते जगत् ।
अपि वर्षसहस्रेण कालयोगः प्रकीर्तितः ॥" इति ।

तदुक्तं व्यवहारचण्डेश्वरे -
"त्रयोदशदिने पक्षे विवाहादि न कारयेद् ।
गर्गादिभुनयः प्राहुः कृते मृत्युस्तदा भवेत् ॥" इति ।

ज्योतिर्निबन्धेऽपि -
"उपनयनं परिणयनं वेश्मारम्भादिकर्मणि ।
यात्रां द्विक्षयपक्षे कुर्यान्न जिजीविषुः पुरुषः ॥"

उपर्युक्त श्लोक में 'वर्षसहस्रेण कालयोगः' अर्थात् तेरह दिनों का पक्ष एक हजार वर्षों की अवधि पर होता है, ऐसा कहा गया है । इस पर डॉ० फ्लीट ने टिप्पणी की है -

"This of course is an extensive exaggeration. A lunar fortnight of thirteen solar days appears to occur at least once in twenty-five years." [3]

पं० शंकर बाळकृष्ण दीक्षित के अनुसार शक संवत् १७९३ का फाल्गुन कृष्ण पक्ष और शक संवत् १८०० ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष तेरह दिनों का था [4] अर्थात् सात वर्षों के अन्तराल में ही विश्वघस्रपक्ष का पुनरावर्तन हुआ ।

ई० सन् १९८२ से १९९७ तक के पञ्चाङ्ग के अवलोकन के बाद हमने पाया कि सन् १९८२ (शन १९०४ वि० सं० २०३९) का संसर्प आश्विन कृष्ण पक्ष तेरह दिनों का था (चिन्ताहरण जंत्री, वाराणसी के अनुसार); सन् १९९० (शक १९१२, वि०सं० २०४६) का भाद्रपद कृष्ण पक्ष और सन् १९९३ (शक १९१५, वि० सं० २०४९) का आसाढ़ शुक्ल पक्ष भी तेरह दिनों का था (दाते पञ्चाङ्ग, सोलापुर के अनुसार) पुणे शहर के लिए भी उपर्युक्त तीनों वर्षों में विश्वघस्रपक्ष था । इस प्रकार क्रमशः आठ एवं तीन वर्षों में विश्वघस्रपक्ष का पुनरावर्त्तन हुआ । परन्तु, उपर्युक्त तेरह दिवस वाले पक्ष के वर्षों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि तेरह दिवस वाले पक्ष का वर्ष जगत का संहार करने वाला होता है ।

कोई पक्ष तेरह दिन का होता है तो इसका अर्थ १३x२४ घंटे नहीं है । ई० सन् १९०० के लिए चान्द्रमास का मान २९.५३०५८८६७ दिन था । [5] एक शताब्दी में इस मान में दशमलव के चौथे अङ्क से ही परिवर्तन होता है अर्थात् कुछ सेकेण्डों का । अतः एक पक्ष या अर्धचान्द्रमास का औसत मान लगभग १४.७६५३ दिन अर्थात् १४ दिन १८ घंटे २२ मिनट प्राप्त होता है । पक्ष का स्पष्ट मान कभी भी १३ दिन २० घंटे से कम नहीं होता । [6] परम्परा के अनुसार सूर्योदय के समय जो चान्द्र तिथि होती है, वहीं तिथि अगले अहोरात्र के लिए मानी जाती है । इसलिए किसी तिथि का क्षय भी प्राप्त होता है और तेरह दिन का पक्ष भी । अर्धचान्द्रमास के औसत मान के आधार पर किसी भी तिथि का क्षय नहीं हो सकता और न कोई पक्ष तेरह दिन का । उदाहरण के लिए शक संवत् १९१५ के आषाढ़ शुक्ल पक्ष (२१ जून-३जुलाई १९९३) पर विचार करें । २१ जून को पुणे में सूर्योदय काल ६ बजे और प्रतिपदा तिथि का समाप्ति काल ६ बजकर १२ मिनट है । अतः सूर्योदय के समय पहली तिथि अर्थात् प्रतिपदा हुई और परम्परानुसार यही तिथि अगले सूर्योदय तक अर्थात् २२ जून के सूर्योदय तक मानी जायगी जबकि २१ जून को सुबह ६ बजकर १२ मिनट के बाद से वस्तुतः द्वितीया तिथि चल रही होती है । द्वितीया तिथि का समाप्ति काल २२ जून की सुबह ४ बजकर ३५ मिनट है अर्थात् सूर्योदय होने के पूर्व ही द्वितीया तिथि समाप्त हो जाती है । अतः सूर्योदय के समय तृतीया तिथि प्राप्त होती है । इस प्रकार द्वितीया तिथि का क्षय प्राप्त होता है । इसी तर्क से चतुर्दशी के क्षय के बारे में समझा जा सकता है ।

तालिका संख्या १ में तेरह दिन के पक्ष वाले कुछ वर्ष दिये गये हैं । तालिका २ में किन-किन तिथियों के क्षय से तेरह दिन का पक्ष प्राप्त होता है, इसका विवरण दिया गया है –

तालिका १: तेरह दिवसों के पक्ष वाले कुछ वर्ष

ई० सन् शक संवत् तेरह दिवसों के पक्ष वाला मास अंग्रेजी तारीख
उत्तरी भारत में दक्षिणी भारत में
१२६३ ११८५ श्रावण कृष्णपक्ष आषाढ़ कृष्णपक्ष २४ जून - ६ जुलाई

१५९८ १५२० कार्त्तिक शुक्लपक्ष कार्त्तिक शुक्लपक्ष

१८७२ १७९३ चैत्र कृष्णपक्ष फाल्गुन कृष्णपक्ष

१८७८ १८०० ज्येष्ठ शुक्लपक्ष ज्येष्ठ शुक्लपक्ष

१९०५ १८१८ वैशाख शुक्लपक्ष वैशाख शुक्लपक्ष

१९८२ १९०४ संसर्प आश्विन कृष्णपक्ष संसर्प भाद्रपद कृष्णपक्ष ४-१६ अक्तूबर

१९९० १९१२ आश्विन कृष्णपक्ष भाद्रपद कृष्णपक्ष ६-१८ सितम्बर

१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्लपक्ष आषाढ़ शुक्लपक्ष २१ जून-३ जुलाई


तालिका २: एक ही पक्ष में दो तिथियों का क्षय

ई० सन् शक संवत् मास/पक्ष क्षय तिथि अंग्रेजी तारीख तिथि समाप्ति काल सूर्योदय काल (पुणे)

१९८२ १९०४ भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा ४ अक्तूबर ५-२८ ६-२७
१९८२ १९०४ भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी १६ अक्तूबर ६-१२ ६-३०
१९९० १९१२ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा ६ सितम्बर ५-३६ ६-२३
१९९० १९१२ आश्विन कृष्ण चतुर्दशी १८ सितम्बर ६-१४ ६-२४
१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया २२ जून ४-३५ ६-००
१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी ३ जुलाई ५-४० ६-०३



नोट-

1. तिथि समाप्ति काल एवं सूर्योदय काल (पुणे) भारतीय मानक समय (IST) में दिये गये हैं ।

2. उपर्युक्त क्षय तिथियों का प्रारम्भ काल निर्दिष्ट अंग्रेजी तारीख से एक दिन पूर्व क्रमशः ६-३८, ७-१५, ७-१६, ६-३७, ६-१२ एवं ६-३० बजे प्रातः है जो संगत सूर्योदय काल के बाद आता है ।

3. शक संवत् १९०४ में वाराणसी में चतुर्दशी के बदले अमावस्या का क्षय हुआ था ।

टिप्पणी

1. मुहूर्तगणपति, पृष्ठ ३९८.
2. मुहूर्तचिन्तामणि, पृष्ठ ४३.
3. a lunar fortnight of thirteen solar days, p. 83, fotnote 7.

4. भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास, पृष्ठ ११४.
5. पञ्चाङ्ग दर्पण, पृष्ठ ७३.
6. भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास, पृष्ठ ११५.


सन्दर्भ

1. "मुहूर्त्तगणपतिः" (दैवज्ञवर्य गणपति विरचितः) - सम्पादक एवं हिन्दी टीकाकार-पं० रामदयालु शर्मा, प्रकाशक-क्षेमराज श्रीकृष्णदास, श्री वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई, संवत् १९३७.

2. "मुहूर्तचिन्तामणिः" (श्रीमद राम दैवज्ञ विरचितः), पीयूषधारा टीका सहित-सम्पादक-नारायण राम आचार्य 'काव्यतीर्थ', प्रकाशक-सत्य भामाबाई पांडुरंग, निर्णयसागर प्रेस, मुंबई, १९४५ ई०.

3. J. F. Fleet: "A lunar fortnight of thirteen solar days", Indian Antiquary, March 1887, pp. 81-84.

4. पं० शंकर बाळकृष्ण दीक्षितः "भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास", तृतीय संस्करण, प्रकाशक-ह. अ. भावे, वरदा बुक्स 'वरदा', ३९७-१ सेनापति बापट रोड, पुणे, १९८९ ई०, पृष्ठ ४८+५६६.

5. श्री निर्मलचन्द्र लाहिड़ीः "पंचांग दर्पण", Astro-Research Bureau, 17 Brindaban Mullick 1st Lane, Calcatta, 1993. (बंगला में, परिशिष्ट अंग्रेजी में) ।

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