Synopsis
In this article, further four sutras dealing with accent rules of SKA are discussed which are incorrect in both the editions (see Table 1 at the end)
स्वर प्रकरण के और चार सूत्रों की शुद्धि पर इस लेख में विचार किया जायेगा । इन सभी सूत्रों के शुद्ध पाठ तालिका १ में दिये गये हैं ।
सर्वानुदात्त निषेध प्रकरण में मद्रास संस्करण के ऐसे चार सूत्रों (स॰कं॰ ८।३।२१२-२१५) की शुद्धि पर विचार किया जा रहा है जिनका पाठ पाण्डुलिपि में सही है मगर स॰कं॰ के दोनों सम्पादकों ने बिना सोचे-समझे इन्हें पाणिनि सूत्रों के ढाँचे में ढालकर अशुद्ध कर दिया है । इन सूत्रों की शुद्धि के लिए अष्टाध्यायी के सङ्गत सूत्रों की जानकारी अत्यावश्यक है । इसलिए ये सभी सूत्र नीचे उद्धृत किये जाते हैं ।
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पाणिनिसूत्र स॰कं॰ सूत्र (म॰ सं॰)
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यावद्यथाभ्याम् ॥८।१।३६॥ पुरा च परीप्सायां वा ॥८।३।२०९॥
पूजायां नानन्तरम् ॥८।१।३७॥ अहो च ॥८।३।२१०॥
उपसर्गव्यपेतं च ॥८।१।३८॥ पूजायां नित्यम् ॥८।३।२११॥
तुपश्यपश्यता हैः पूजायाम् ॥८।१।३९॥ तुपश्यपश्यता हैः पूजायाम् ॥८।३।२१२॥
अहो च ॥८।१।४०॥ यावद्यथाभ्याम् ॥८।३।२१३॥
शेषे विभाषा ॥८।१।४१॥ उपसर्गव्यपेतम् ॥८।३।२१४॥
पुरा च परीप्सायाम् ॥८।१।४२॥ शेषे वा ॥८।३।२१५॥
(गु॰सं॰ में ८।३।२१२ से ८।३।२१८)
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स॰कं॰ की पाण्डुलिपि में सूत्र ८।३।२१२-२१५ इस प्रकार हैं -
तुपश्यपश्यताहैः ।
यावद्यथाभ्यामनुपसर्गव्यपेतम् ।
शेषे च ।
सूत्रार्थ निर्धारण में अनुवृत्तियाँ बहुत ही सहायक होंगी और इसी से उपर्युक्त सूत्रपाठों की शुद्धि की जाँच की जा सकेगी, इसलिए अनुवृत्तियाँ भी दर्शाई जा रही हैं । पाणिनिसूत्र ८।१।३६ में डॉ॰ प्रज्ञादेवी ने 'अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति' में निम्नलिखित अनुवृत्तियाँ दी हैं (सन्दर्भ १, पृ॰ ४८६) - "तिङ्, (युक्तम्,) न, अनुदातं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ।" उन्होंने 'उक्तम्' को अनुवृत्ति में नहीं दर्शाया है, किन्तु वृत्ति में 'तिङ्युक्तम्' शब्द का प्रयोग किया है । अतः 'युक्तम्' की भी अनुवृत्ति पाणिनिसूत्र 'निपातैर्यद्ययदि........................ यत्र-युक्तम्' (८।१।३०) से आती है, यह स्पष्ट है । स॰कं॰ में ये अनुवृत्तियाँ कैसे आती हैं, यह अब दर्शाया जाता है ।
तिङ्ङतिङः (८।३।२०१) से 'तिङ्'
निपातैर्यदि......... यत्र-युक्तम् (८।३।२०३) से 'युक्तम्'
न लुट् (८।३।२०२) से 'न'
शेषं सर्वमनुदात्तम् (८।३।१९६) से 'सर्वमनुदात्तम्'
वस्नसादयः (८।३।१९७) से 'वस्नसादि' को सर्वानुदात्त कहा है । परन्तु 'वस्नसादि' आदेश, सूत्र 'युष्मदस्मदोर्यु ग्विभक्त्यन्तयोर्वस्नसौ वा' (७।३।२७) से होते हैं और इस सूत्र में 'पदादपादादौ समानवाक्ये' (७।३।३६) से 'पदादपादादौ' और 'पदस्य' की अनुवृत्तियाँ 'वस्नसादयः' (८।३।१९७) में भी लागू होंगी और ये ही अनुवृत्तियाँ सूत्र ८।३।२०९-२१५ में भी आयेंगी । अतः पाणिनिसूत्र ८।१।३६ की उपर्युक्त सभी अनुवृत्तियाँ स॰कं॰ सूत्र ८।३।२०९ में भी हैं । सूत्र ८।३।२०९-२१५ तक आई अनुवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –
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स॰कं॰ सूत्र अनुवृत्तियाँ
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८।३।२०९ तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य
८।३।२१० वा, तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य
८।३।२११ अहो, तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य
८।३।२१२ पूजायाम्,तिङ्,युक्तम्,न,सर्वमनुदात्तम्,पदादपादादौ, पदस्य
८।३।२१३-२१४ पूजायाम्,तिङ्,युक्तम्,न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य
८।३।२१५ यावद्यथाभ्याम्,तिङ्,युक्तम्,न,सर्वमनुदात्तम्,पदादपादादौ,पदस्य
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सूत्र ८।३।२१५ में 'शेष' से पूजा-विषय को छोड़कर शेष विषय विवक्षित हैं ।
अब हम एक-एक करके पाण्डुलिपि के सूत्रपाठों के औचित्य पर चर्चा करते हैं । उपर्युक्त पाणिनि सूत्रों एवं स॰कं॰ सूत्रों की तुलना करने से यह स्पष्ट है कि भोजदेव ने पाणिनि सूत्रों के क्रम को उलट-पलट दिया है और ऐसा निष्कारण नहीं किया है । पाणिनिसूत्र ८।१।३७ में दो बार 'न' के प्रयोग से सकारात्मक अर्थ होने के कारण सर्वानुदात्त (निघात) ही होता है । पाणिनिसूत्र ८।१।३९ में सूत्र ८।१।३७ से ही 'पूजायाम्' की अनुवृत्ति आने पर भी फिर 'पूजायाम्' का ग्रहण क्यों किया गया - इसकी चर्चा महाभाष्य वगैरह में की गई है । अगर यहाँ 'पूजायाम्' का ग्रहण न कर सिर्फ 'तु पश्यपश्यताहैः' इतना ही कहा जाता तो यहाँ दो-दो 'न' की अनुवृत्ति आने में तिङ्युक्त का निघात प्राप्त होता जबकि निघात-प्रतिषेध इष्ट है । अतः 'पूजायाम्' का ग्रहण किया गया है । स॰कं॰ में दो बार 'न' की अनुवृत्ति आती ही नहीं । उपर्युक्त सभी सूत्रों में निघात-प्रतिषेध का ही प्रकरण है - नित्य विधि या वैकल्पिक । अतः स॰कं॰ सूत्र 'तुपश्यपश्यताहैः पूजायाम्' (८।१।२१२, गु॰सं॰ में २१५) में जो 'पूजायाम्' रखा गया हैं, वह व्यर्थ है । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।
'यावद्यथाभ्यामनुपसर्गव्यपेतम्' - इस सूत्र का अर्थ है कि 'यावत्' एवं 'यथा' के बाद व्यवधान सहित तिङ्न्त का पूजा विषय में सर्वानुदात्त (निघात) नहीं होता है, उपसर्गव्यपेत को छोड़कर अर्थात् व्यवधान रहित 'यावत्' और 'यथा' शब्द से युक्त तिङन्त आये या इनके बीच उपसर्गमात्र का व्यवधान हुआ हो तो उस तिङन्त का पूजा विषय में निघात ही होगा । पाणिनिसूत्र ८।१।३७-३८ का भी यही अर्थ है । उदाहरणस्वरूप, उपसर्गव्यपेत तिङन्त - यावत् प्रप॒च॒ति॒ शोभनम् । यावत् प्रक॒रो॒ति॒ चारु । यथा प्रप॒च॒ति॒ शोभनम् । यथा प्रक॒रो॒ति॒ चारु । इन उदाहरणों में यावत्, यथा एवं तिङ् के मध्य में 'प्र' उपसग का व्यवधान है । शोभनम्, चारु कहने से यहाँ स्पष्ट पूजा अर्थ है ही । अतः तिङन्त को निघात हो जायगा । अनुपसर्गव्यपेत तिङन्त - यावत् देवदत्तः पच॑ति शोभनम् । यहाँ 'पचति' का निघात प्रतिषेध होने से धातोरन्तः (स॰कं॰ ८।३।१४) से 'पच्' धातु का अन्त उदात्त अर्थात् 'पच्' का 'अ' उदात्त हुआ है । अ देखिये सूत्र 'उपसर्गव्यपेतम्' (गु॰सं॰ ८।३।२१७), जिसे पाणिनिसूत्र 'उपसर्गव्यपेतं च' (८।१।३८) के समान कर दिया गया है, की गुजराती व्याख्या –
सूत्रार्थ - (स्वरविषये) यावद्यथाभ्यामनन्तरमुपसर्ग व्यवहितं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ।
उदा॰ - यच्चि॒द्धि ते॒ विशो॑ यथा॒ प्र दे॑व वरुण व्र॒तम् । मि॒नी॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥ (ऋ॰ सं॰ १।२५।१) । अहीं यथा शब्द साथे संकळायेलुं अने प्र उपसर्गव्यवहित मि॒नी॒मसि क्रियापद मध्योदात्त छे; नहीं के सर्वानुदात्त ।
इस सूत्रार्थ से स्पष्ट है कि यह अष्टाध्यायी के ठीक विपरीत विधि है । उदाहरण भी बिलकुल अप्रासङ्गिक है, क्योंकि 'मिनीमसि' पादादि है जबकि 'अपादादौ' की अनुवृत्ति हे । इतना ही नहीं, यहाँ 'यथा' और तिङन्त 'मिनीमसि' के बीच सिर्फ उपसर्ग 'प्र' का ही व्यवधान नहीं, बल्कि 'देव', 'वरुण' और 'व्रतम्' का भी व्यवधान है । यह सब गड़बड़ी पाण्डुलिपि के एक ही सूत्र को दो सूत्रों में तोड़ने और इन दोनों को पाणिनि सूत्र के ढाँचे में ढालने से हुई है । आश्चर्य की बात तो यह है कि मद्रास संस्करण में फुटनोट के रूप में भी पाण्डुलिपि के असली पाठ का कोई उल्लेख नहीं है ।
अगले सूत्र 'शेषे च' को स॰कं॰ के दोनों सम्पादकों ने पाणिनिसूत्र 'शेषे विभाषा' (८।१।४१) का समतुल्य (equivalent) समझकर इसे अशुद्ध माना है और इसे सुधारकर 'शेषे वा' कर दिया है । मद्रास संस्करण में 'वा' की जगह फुटनोट प्राप्त होता है - "२. The original reads च" । गु॰सं॰ के सम्पादक ने 'शेषे वा' (८।३।२१८) पर अपनी वृत्ति में 'अहो' से युक्त तिङन्त का उदाहरण दिया है -
"सूत्रार्थ - (स्वरविषये) पूजाव्यतिरिक्ते शेषेऽर्थे पूर्वोक्तशब्दैर्युक्तं तिङन्तं विकल्पेन नानुदात्तं भवति ।
उदा॰ - ग्राममहो गमिष्यसि । आ लौकिक वाक्य असूयावचक छे, नहीं के आश्चर्यवाचक तेथी ग॒मिष्यसि॑ (sic) अे मध्योदात्त छे, नहीं के सर्वानुदात्त ।"
डॉ॰ कंसारा 'पूर्वोक्तशब्दैर्युक्तं तिङन्तम्' से यह कहना चाहते हैं कि पूजा-विषय को छोड़कर अन्य विषयों में यावत्, यथा, तु, पश्य, पश्यत, अह, अहो- इन सभी शब्दों से युक्त तिङन्त का विकल्प से निघात प्रतिषेध होता है जबकि अष्टाध्यायी की टीकाओं में सिर्फ 'अहो' से युक्त तिङन्त के बारे में ही ऐसी विधि कही गयी है । जहाँ तक 'अहो' से युक्त तिङन्त का पूजा व्यतिरिक्त विषय में निघात प्रतिषेध के विकल्प का प्रश्न है, वह सूत्र 'अहो च' (स॰कं॰ ८।३।२१०, गु॰सं॰ में २१३) में पहले ही कहा जा चुका है । इसी सूत्र पर उन्होंने स्वयं वृत्ति दी है -
"सूत्रार्थ - (स्वरविषये) अहो इत्यनेन युक्तं च तिङन्तं विभाषाऽनुदात्तं न भवति ।"
'पूजायां नित्यम्' पर उनकी वृत्ति है -
"(स्वरविषये) पूजायां गम्यमानायां अहो इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ।"
अतः 'शेषे वा' सूत्र अगर अष्टाध्यायी की दृष्टि से देखा जाय तो व्यर्थ साबित होता है ।
अब हम पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ 'शेषे च' पर विचार करते हैं । इस सूत्र का अर्थ है - 'यावत्' और 'यथा' शब्दों से युक्त तिङन्त का पूजा-विषय से शेष विषयों में भी सर्वानुदात्त (निघात) नहीं होता । उदाहरण-या॒वद॒धी॒ते । यथाधी॒ते । याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वित॒स्थुः (तै॰सं॰ ३।२।६।१) । यथा॒ त्वं दे॒वाना॒मसि (तै॰ब्रा॰ ३।१।६।२०) । यावत् देवदत्तः पच॑ति । 'युक्तम्' की अनुवृत्ति आने से 'यावद्यथाभ्याम्' में तृतीया विभक्ति है । तृतीयान्त होने से यावत् और यथा शब्द तिङन्त के बाद हों तो भी उस तिङन्त का निघात प्रतिषेध होता है । देवदत्तः पच॑ति यावत् । यही मुख्य उदाहरण है । 'याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वित॒स्थुः' इत्यादि में 'यद्वृत्ताद्व्यवायेऽपि' (स॰कं॰ ८।३।२२२) से भी निघात प्रतिषेध की सिद्धि हो जाती है । पाणिनिसूत्र ८।१।३६ का भी उपर्युक्त अर्थ ही है ।
२. अब हम स॰कं॰ सूत्र ८।४।१०५ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।
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म॰ सं॰/पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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दिवोदास वाध्यश्वादीनां छन्दसि॥८।४।१०५॥ दिवोदासादीनां छन्दसि ॥८।४।१०८॥
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डॉ॰ कंसारा परिशिष्ट - ३, पृष्ठ ४०७-४०८ पर इस सूत्र के बारे में अपना तर्क देते हैं -
"डॉ॰ चिन्तामणिना पाठमां दिवोदासवाध्र्यश्वादीनां छन्दसि (८।४।१०५) अेवुं सूत्र छे. पाणिनिअे 'न भूताधिकसंजीवमद्राश्मकज्जलम्' (६।२।९१) अे सूत्र रच्युं छे. 'तेनी उपर कात्यायने आद्युदात्तप्रकरणे दिवोदासादीनां छन्दस्युपसंख्यानम् अे वार्तिक आप्यो छे. पाणिनीय सूत्रने भोजदेवे पोताना सूत्र रूपे ८।४।१०७ तरीके अपनावी लीधुं छे, अने आ सूत्रमां वार्तिके वचनने समाव्युं जणाय छे, वार्त्तिकमां स्पष्टपणे दिवोदास आदि शब्दो अद्युदात्त होवानुं विधान छे, पण भोजदेवे महाभाष्यकारना वध्र्यश्व ना उदाहरणने पण सूत्रमां समावी लीधुं छे, तेथी तेनो उल्लेख आध्र्यश्व अेम कर्यो छे. पण वेदमां वाध्र्यश्व शब्द सम्बोधन तरीके प्रयोजायो होई सर्वानुदात्त छे. ज्यारे वध्र्यश्व शब्द अन्तोदात्त ज मळे छे. अने केवळ दिवोदास शब्द ज आद्युदात्त मळे छे पतंजलिना समये कोई वैदिक ग्रंथमां कदाच वध्र्यश्व शब्द पण आद्युदात्त मळतो हशे, पण आजे अेवो कोई वैदिक ग्रन्थ मळतो नथी. तेथी सूत्रमांथी वाध्र्यश्व शब्द रद करवो आवश्यक छे."
उन्होंने मद्रास संस्करण में प्राप्त 'वाध्यश्व' पाठ को सुधारकर वाध्र्यश्व लिखा है । उनके मतानुसार कात्यायन के उपर्युक्त वार्त्तिक में भाष्यकार द्वारा दिये गये उदाहरण 'वध्र्यश्व' को भोजदेव के सूत्रपाठ में शामिल कर लिया है, जहाँ उसे बदलकर 'वाध्र्यश्व' कर दिया है । मगर उन्हें 'वाध्र्यश्व' शब्द वेद में केवल सम्बोधन रूप में प्रयुक्त सर्वानुदात्त ही मिला जबकि भोजदेव के सूत्र के अनुसार इसे आद्युदात्त होना चाहिए । और चूँकि 'वध्र्यश्व' शब्द अन्तोदात्त ही प्राप्त होता है, इस लिए उन्होंने भोजसूत्र से वाध्र्यश्व को हटाकर 'दिवोदासादीनां छन्दसि' यह सूत्रपाठ दिया है । हम उनके उपर्युक्त तर्क से सहमत नहीं । ऋग्वेद में से ही एक उदाहरण हम नीचे उद्धृत करते हैं जहाँ वाध्र्यश्व आद्युदात्त है -
प्र नु वो॑च॒ वाध्र्य॑श्वस्य॒ नाम॑ (ऋ॰सं॰ १०।६९।५)
अतः उपर्युक्त सूत्र का शुद्ध पाठ होगा -
दिवोदास-वाध्र्यश्वादीनां छन्दसि ॥८।४।१०५॥
डॉ॰ कंसारा ‘वाध्र्यश्व’ शब्द को महाभाष्यकार द्वारा दिया हुआ आद्युदात्त का उदाहरण समझते हैं मगर डॉ॰ वी॰पी॰ लिमये इसे उदाहरण नहीं मानते (सन्दर्भ २, पृ॰ ५३५-५३६) - "१३२.९-१० आद्युदात्त प्रकरणे दिवो॑दासादीनां छन्दस्युपसंख्यानं कर्तव्यम् । दिवोदासाय गायत । वध्र्यश्वाय दाशुषे ।
As usual M ought to have given two examples; but here he gives only one and that, too, in a confused manner; Kas. gives the correct one: दिवो॑दासं वध्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे॑ (RV ६.६१.१); SK gives another: दिवो॑दासाय दा॒शुषे॑ (RV ४.३०.२०)."
(संक्षिप्त शब्द - M = महाभाष्यकार, Kas = काशिका, SK = सिद्धान्तकौमुदी, RV = ऋग्वेद संहिता)
आभार
हमारे मित्र श्री पी॰ संतामरै कण्णन्, एम्॰एस्॰सी॰ (गणित) ने अपने मद्रास निवासी मित्र श्री संपत्, बी॰एस्॰सी॰ द्वारा स्पीड पोस्ट से स॰कं॰ पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि (मद्रास संस्करण में A से निर्दिष्ट) के आठवें अध्याय की फोटोकॉपी उपलब्ध करवायी, इसके लिए इन दोनों के प्रति हम आभार प्रकट करते हैं । कुछ अशुद्ध सूत्रपाठों की शुद्धि में यह प्रतिलिपि बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है ।
सन्दर्भ
१. डॉ॰ प्रज्ञादेवी: "अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति", तीसरा भाग, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ १९८४ ई॰ ।
२. Dr. V. P. Limaye: "Critical studies on the Mahabhasya", V.V.R.I. Hoshiyarpur, 1974, pp.xlii+2+972.
तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. तु पश्यपश्यताहैः तुपश्यपश्यताहैः तुपश्यपश्यताहैः ।
पूजायाम् ॥८।३।२१२॥ पूजायाम् ॥८।३।२१५॥
२. यावद्यथाभ्याम् यावद्यथाभ्याम् यावद्यथाभ्यामनुप-
॥८।३।२१३॥ ॥८।३।२१६॥ सर्गव्यपेतम् ।
३. उपसर्गव्यपेतम् उपसर्गव्यपेतम्
॥८।३।२१४॥ ॥८।३।२१७॥
४. शेषे वा ॥८।३।२१५॥ शेषे वा ॥८।३।२१८॥ शेषे च ।
( पाण्डुलिपि का पाठ सही है । )
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(वेदवाणी, जनवरी १९९७, पृ॰ ८-१३, में प्रकाशित)
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