Friday, April 18, 2008

9. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (७)

Synopsis

In this concluding article on the correction of सूत्रपाठ of ch. VIII of SKA, thirty-three further such sutras are presented, whose readings are incorrect in both the editions. These published sutras are divided into the following five groups (see Tables 1-5):
1. Sutras which are incompatible with the style of Bhoja.
2. Sutras related to गणपाठ.
3. Sutras containing the नदीसंज्ञा. Bhoja has rejected this संज्ञा (technical term).
4. Sutras which are perfectly correct in the manuscript, but both the editors have unnecessarily modified them to Panini sutras.
5. Sutras with errors of mixed type.

सरस्वतीकण्ठाभरण के दोनों संस्करणों में आठवें अध्याय के अशुद्ध सूत्रपाठ की शुद्धि सम्बन्धी इस अन्तिम लेख में कुल ३३ सूत्र प्रस्तुत किये गये हैं । इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है (देखें तालिका १-५) । अधिकतर स्थलों में स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं पड़ेगी, ऐसी हम आशा करते हैं । अतः कुछ चुने हुए सूत्रों के बारे में ही चर्चा की जा रही है ।
शैली सम्बन्धी अशुद्धिवाले सूत्रपाठ
भोजदेव की यह शैली है कि वे अपने सूत्रों में एकत्वबोधक के लिए एकवचन, द्वित्व बोधक के लिए द्विवचन एवं बहुत्व के लिए बहुवचन का ही प्रयोग करते हैं ।
सूत्र 'अश्वाघस्यात्' में 'अश्व' और 'अघ' का जहाँ समाहार द्वन्द्व और इसलिए एकवचन पाणिनिसूत्र ७।४।३७ में प्राप्त होता है, वहाँ भोजसूत्र शैली के अनुसार द्वित्वबोधक होने से द्विवचन का ही प्रयोग होना चाहिये । सूत्र 'कृत्योकेष्णुचः' (८।४।१७२) में प्रथमा बहुवचन का प्रयोग उचित है । बहुत्व बोधक होते हुए भी दोनों संस्करणों में एकवचन का रूप रखा गया हे जो भोज की शैली के विरुद्ध है । पाण्डुलिपि में इस सूत्र का पाठ 'कृत्योकेष्णु च' है, न कि 'कृत्योतेष्णु च' जैसा कि म॰सं॰ में छपा है । सूत्र 'तृन्नन्नतीक्ष्णुशुचिनि वा' में बहुत्व बोधक के लिए भी (सप्तमी) एकवचन का प्रयोग अटपटा लगता है । भोजसूत्र की शैली के अनुसार यहाँ सप्तमी विभक्ति नहीं, बल्कि प्रथमा का प्रयोग अभीष्ट है । अतः मूल सूत्रपाठ में 'तृन्न.... शुचीनि वा' ऐसा पाठ रहा होगा । भोजसूत्र ८।४।१८० में 'प्रथमपूरणे' को गुजराती संस्करण में पाणिनिसूत्र थोपकर 'प्रथमपूरणयोः' कर दिया गया हे, जबकि पाण्डुलिपि में सही पाठ 'प्रथमपूरणे' (प्रथमा विभक्ति द्विवचन) है । भोजसूत्र ८।४।१९० का पाण्डुलिपि में पाठ 'वा जातः' है, जिसकी जगह दोनों संस्करणों में पाणिनिसूत्र थोपकर 'वा जाते' कर दिया गया है । यहाँ प्रथमा विभक्ति में प्रयुक्त 'जातः' भोज शैली के अनुसार सही है । सूत्र ८।४।२०५ में पाण्डुलिपि में प्रथमा द्विवचन का प्रयोग सही है जबकि इसकी जगह गु॰सं॰ में पाणिनिसूत्र थोपा गया है । पाण्डुलिपि में प्राप्त सूत्रपाठ 'अहन् राजानोछन्दसि॰' को बिना सोचे-समझे बदलकर गु॰सं॰ में काशिका का गणसूत्र 'राजाह्नोश्छन्दसि' रख दिया गया है जहाँ प्रथमा के बदले षष्ठी का प्रयोग है । मद्रास संस्करण में 'राजानोऽच्छन्दसि' में अवग्रह चिह्न सम्पादक महोदय की मेहरबानी है । यहाँ भोज की सूत्र शैली के अनुसार 'अहन्-राजानौ छन्दसि' पाठ अभीष्ट है ।

गणपाठ से सम्बन्धित अशुद्ध सूत्रपाठ
सूत्र ८।४।६६ दोनों संस्करणों में एक सूत्र के रूप में पठित है । थोड़ा ध्यान से देखा जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि वस्तुतः यहाँ एक नहीं बल्कि दो सूत्र हैं । पाण्डुलिपि में 'कपिवैलौश्यापर्णेये' पाठ प्राप्त होता है जिसे म॰सं॰ में 'कपिपैलश्यापर्णेये' कर दिया गया है । इसका सही पाठ 'कपिपैलौ श्यापर्णये' होना चाहिये ।
सूत्र ८।४।९२ के लिए दोनों संस्करणों में 'युक्तारोही' ऐसा पाठ पाया जाता है । परन्तु पाण्डुलिपि में 'युक्त आरोहणी' पाठ मिलता है । अतः इसका शुद्ध पाठ 'युक्त आरोहिणि' ही होना चाहिये ।

पाण्डुलिपि में शुद्ध परन्तु दोनों संस्करणों में परिवर्तित सूत्र
भोजसूत्र ८।१।११७ पाणिनिसूत्र 'अग्राद् यत् । घच्छौ च ।' (पा॰ ४।४।११६-११७) पर आधारित है । अष्टाध्यायी में 'प्राग्घिताद् यत्' (पा॰ ४।४।७५) में 'यत्' का अधिकार 'तस्मै हितम्' (पा॰ ५।१।५) से पहले-पहले तक जाता है । अतः सूत्र 'अग्राद् यत्' (पा॰ ४।४।११६) की वृत्ति में काशिकाकार टिप्पणी करते हैं - "किमर्थमिदं यावता सामान्येन यद् विहित एव ? 'घच्छौ च' (४।४।११७) इति वक्ष्यति, ताभ्यां बाधा मा भूदिति पुनर्विधीयते ।" भोज ने अन्य समाधान ही निकाला है । 'प्राक् परिमाणाद् यत्' (स॰कं॰ ८।१।११२) से 'यत्' का अधिकार आता है । पाणिनि सूत्र ४।४।११६-११७ का सङ्गत भोजसूत्र 'अग्राद् घच्छौ वा' है, जिसका अर्थ है - "अग्र शब्द से 'घच्' और 'छ' प्रत्यय विकल्प से होते हैं, 'तत्र भवः' इस अर्थ में ।" जब ये प्रत्यय नहीं होंगे तो यथाप्राप्त 'यत्' प्रत्यय होगा ।
पाणिनिसूत्र 'नदी बन्धुनि' (६।२।१०९) का सङ्गत भोजसूत्र 'ङी बन्धुनि' है । भोज ने नदी संज्ञा का परित्याग किया है, इसका ध्यान दोनों में से किसी सम्पादक महोदय को नहीं रहा । अतः दोनों ने पाणिनिसूत्र ही थोपा है । यह सत्य है कि ङी-प्रत्ययान्त शब्द की अपेक्षा नदीसंज्ञक शब्द में ज्यादा व्यापकता है । परन्तु काशिका, महाभाष्य, स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका इत्यादि में ङी-प्रत्ययान्त को छोड़कर कोई अन्य उदाहरण उपर्युक्त सूत्र के सन्दर्भ में मिलता ही नहीं है ।
भोजसूत्र ८।४।१६९ पाणिनिसूत्र 'ऊनार्थकलहं तृतीयायाः' (६।२।१५३) पर आधारित है जिसका अर्थ है - तृतीयान्त से परे ऊनार्थवाची एवं कलह शब्द उत्तरपद को अन्दोदात्त होता है । इस सूत्र पर काशिकाकार टिप्पणी करते हैं - "अत्र केचिदर्थ इति स्वरूपग्रहणमिच्छन्ति । धान्येनार्थो धा॒न्या॒र्थः ।" काशिकाकार के इस वचन को भोज ने शामिल करके 'अर्थोनार्थकलहास्तृतीयायाः' सूत्र का निर्माण किया है ।

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सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ प्रस्तावित शुद्धपाठ
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तालिका १ : शैली सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. अश्वाघस्यात् अश्वाघस्यात् अश्वाघयोरात् ।
॥८।२।९५॥ ॥८।२।९८॥

२. कृत्योकेष्णुच् कृत्योकेष्णुच् कृत्योकेष्णुचः ।
॥८।४।१७२॥ ॥८।४।१७८॥

३. अहन् ॥८।४।१७६॥ राजाह्नोश्छन्दसि अहन्‌राजानौ छन्दसि ।
॥८।४।१८२॥
४. राजानोऽच्छन्दसि
॥८।४।१७७॥

५. तृन्नन्नतीक्ष्णशुचिनि तृन्नन्नतीक्ष्णशुचिनि तृन्नन्नतीक्ष्णशुचीनि वा ।
वा॥८।४।१७९॥ वा ॥८।४।१८४॥

६. बहुव्रीहविदमेतत्तद्भ्यः बहुव्रीहाविदमेतत्तद्भ्यः बहुव्रीहाविदमेतत्तद्भ्यः
प्रथमपूरणे क्रियागणने प्रथमपूरणयोः प्रथमपूरणे क्रियागणने ।
॥८।४।१८०॥ क्रियागणने
॥८।४।१८५॥

७. वा जाते ॥८।४।१९०॥ वा जाते ॥८।४।१९५॥ वा जातः ।

८. परिरभितो भाविमण्डले परेरभितोभावि परेरभितोभावि मण्डले ।
॥८।४।२०५॥ मण्डलम् ॥८।४।२०५॥
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तालिका २ : गणपाठ सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. कार्तकौजप... कार्तकौजप... कार्तकौजप...
स्त्रीकुमारेषु कपि स्त्रीकुमारकपिपैल- स्त्रीकुमारेषु ।
पैलश्यापर्णेये श्यापर्णेयेषु कपिपैलौ श्यापर्णेये ।
॥८।४।६६॥ ॥८।४।६८॥

२. युक्तारोही योधि युक्तारोही ॥८।४।९१॥ युक्त आरोहिणि ।
प्रहारिषु चागतः रोहियोधिप्रहारिषु योधि-वञ्चि-नर्दि-
॥८।४।९२॥ चागतः ॥८।४।९२॥ प्रहारिषु चागतः ।

३. चारुसाधु... चारुसाधु... चारुसाधु...
पदान्यकस्मात् वदान्याकस्मात् वदान्याकस्माद्
॥८।४।१७३॥ ॥८।४।१७९॥ गृहपतिगृहपतिकाः ।

४. गृहपति गृहपतिकाः गृहपतिगृहपतिकौ
॥८।४।१७४॥ ॥८।४।१८०॥
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तालिका ३ : नदी संज्ञा (भोज द्वारा बहिष्कृत) सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. सम्बुद्धौ द्यूदम्बार्थानाम् सम्बुद्धौ नद्यम्बार्थानाम् सम्बुद्धौ ङ्यम्बार्थानाम् ।
॥८।२।९०॥ ॥८।२।९२॥

२. शतुरौ मेङ्यजादि शतुरनुमो नद्यजादी शतुरनमो ङ्यजादी ।
॥८।३।४५॥ ॥८।४।४७॥
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तालिका ४ : पाण्डुलिपि में शुद्ध परन्तु प्रकाशन में परिवर्तित सूत्रपाठ
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१. अग्राद्यद्घच्छौ वा अग्राद् यत् अग्राद् घच्छौ वा ।
॥८।१।११७॥ ॥८।१।११५॥
घच्छौ च ॥८।३।११६॥

२. हेति क्षियायाम् हेति क्षियायाम् हेन क्षियायाम् ।
॥८।३।२३४॥ ॥८।३।२३७॥

३. अहेति विनियोगे अहेति विनियोगे च अहेन विनियोगे च ।
च ॥८।३।२३५॥ ॥८।३।२३८॥

४. नदी बन्धुनि नदी बन्धुनि ङी बन्धुनि ।
॥८।४।१२१॥ ॥८।४।१२५॥

५. ऊनार्थकलहास्तृ- ऊनार्थकलहाः ऊर्थोनार्थकलहास्तृतीयायाः ।
तीयाः तृतीयायाः
॥८।४।१६९॥ ॥८।४।१७५॥
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तालिका ५ : अन्य अशुद्ध सूत्रपाठ
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१. नः संख्याया नः संख्याया नः संख्याया असंख्यादेः
असंख्यादेः असंख्यादेर्डटो मट् पूरणे थड् वा ।
॥८।१।१४८॥ ॥८।४।१४८॥
पूरणे थड् वा
॥८।१।१४९॥
२. पूरणे थड् वा परिपन्थिपरिपरिणौ परिपन्थिपरिपरिणौ
परिपन्थपरिपणौ पर्यवस्थातरि पर्यवस्थातरि ।
पर्यवस्थातरि ॥८।१।१५०॥
॥८।१।१४९॥


३. इवार्थे प्रत्नपूर्व- इवार्थे प्रत्नपूर्व- इवार्थे प्रत्न-
विश्वेभ्यस्थाल् विश्वेमाभ्यस्थाल् पूर्वविश्वेमेभ्यस्थाल् ।
॥८।१।१५९॥ ॥८।१।१६०॥

४. सहे क्त्वासाढ्वै सहेः क्त्वात् साढ्वै सहेः क्त्वास्साढ्यै
साद्वातृस्साढा साढ्वा तृचि साढा साढ्वा तृचस्साढा ।
॥८।२।३६॥ निगमे ॥८।२।३६॥

५. श्रु-शृणु-पॄ-कृ- श्रु-शृणु-पृ-कृ- श्रु-शृणु-पॄ-कृ-
वृभ्यो हेद्धिः वृभ्यो हेर्धिः वृभ्यो हेर्धिः ।
॥८।२।५८॥ ॥८।२।५९॥

६. ऋभ्यां मतोर्वः इऋभ्यां मतोर्वः इर्भ्यां मतोर्वः ।
॥८।२।१०७॥ ॥८।२।१११॥

७. उदस्कन्देर्लोपः उदस्कन्देर्लोपः उदस्स्कन्देर्लोपः ।
॥८।२।१४७॥ ॥८।२।१५४॥

८. धातुस्थोरुभ्यो हनः धातुस्थोरुषुभ्यो नः धातुस्थोरुषुभ्यो नसः ।
॥८।२।१४९॥ ॥८।२।१५६॥

९. उत्तरोत्तरशश्वत्तमाः उत्तमशश्वत्तमौ उत्तरोत्तमशश्वत्तमाः ।
॥८।३।२३॥ ॥८।३।२६॥

१०. लोट् यत् लोटा च लोट् च ।
॥८।३।२२६॥ ॥८।३।२२९॥

११. शीलिकामिभक्ष्या- शीलिकामिभिक्ष्या- शीलिकामिभक्ष्या-
चरिभ्यो णो चरिभ्यो णः चरीक्षिक्षमिभ्यो णः ।
वर्णोनेते ॥८।४।५॥ ॥८।४।५॥
वर्णो वर्णेष्वनेते वर्णो वर्णेष्वनेते ।
॥८।४।६॥

१२. कूलतीर.... कूलतीर.... कूलतीर....
सामान्याव्ययीभावे समाव्ययीभावे समान्यव्ययीभावे ।
॥८।४।१३४॥ ॥८।४।१३८॥

१३. थाथघञ्क्ताजबि- अतः ॥८।४।१६१॥ थाथघञ्क्ताजबित्रकाणामन्तः ।
त्राकाणाम् थाथघञ्क्ताजबित्र-
॥८।४।१५७॥ काणाम् ॥८।४।१६२॥

१४. प्रश्नान्ताभिपूज- प्रश्नान्ताभिपूजि- प्रश्नान्ताभिपूजि-
विदास्वनुदात्तः तोपरिस्वदासीत्स्वनुदात्तः तचिदुपरिस्विदासीत्स्वनुदात्तः ।
॥८।४।२२६॥ ॥८।४।२२९॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८, फरवरी १९९९ एवम् अगस्त १९९९.

(वेदवाणी, जनवरी २०००, पृ॰ १७-२१, में प्रकाशित)

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