Tuesday, March 18, 2008

1. अनिट् प्रकरण

भोजदेवकृत व्याकरणशास्त्र सरस्वतीकण्ठाभरणम् पाणिनि की अष्टाध्यायी का एक विस्तृत संशोधित संस्करण है । इसमें भोजदेव (सं॰ १०७५-१११०) ने कात्यायन, पतञ्जलि, वामन और जयादित्य एवं अन्य लेखकों द्वारा प्रस्तावित सभी सुधारों और संशोधनों को समावेश करने का प्रयत्न किया है । सरस्वतीकण्ठाभरणम् का प्रकाशित एकमात्र सम्पूर्ण संस्करण ति॰रा॰चिन्तामणि द्वारा सम्पादित मद्रास संस्करण १९३७ ई॰ का है । पाण्डुलिपियों के अतिभ्रष्ट होने के कारण इसके सम्पादन में अष्टाध्यायी, वार्तिक, महाभाष्य और काशिकावृत्ति की भी सहायता ली गयी है (पृ॰ ix, प्रस्तावना, मद्रास संस्करण) । तथापि इसमें हजारों अशुद्धियाँ रह गयी हैं । इनमें अधिकतर तो छपाई की अशुद्धियाँ हैं । परन्तु बहुत से ऐसे अशुद्ध सूत्रपाठ हैं, जिनकी शुद्धि के लिए बहुत कुछ शोध की आवश्यकता है । इसके लिए अष्टाध्यायी, महाभाष्य और काशिकावृत्ति के अतिरिक्त व्याकरणशास्त्र पर लिखित अन्य ग्रन्थों जैसे शाकटायन (जैन) व्याकरण, चान्द्रव्याकरण आदि का आश्रय लेना बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है ।

भोजदेव ने सरस्वतीकण्ठाभरणम् की रचना में पाल्यकीर्ति (सं॰ 871-924) कृत शाकटायन व्याकरण का भी बहुत कुछ आश्रय लिया है । सरस्वतीकण्ठाभरणम् के कुछ सूत्रपाठों की शुद्धि में जैन व्याकरण के महत्त्व की विवेचना एक अन्य लेख में की जायेगी । भोजकृत व्याकरण की एक सबसे बड़ी विशेषता है - गणपाठ का सूत्रपाठ में ही समावेश । यही कारण है कि जहाँ अनिट् प्रकरण में अष्टाध्यायी में सूत्र 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्' (७।२।१०) से कई अनिट् धातुओं का समावेश कर लिया गया है, वहाँ सरस्वतीकणठाभरणम् में इन धातुओं का साक्षात् पाठ सूत्रों में ही किया गया है । इसी प्रकार का पाठ शाकटायन व्याकरण में भी है । इन दोनों में अष्टाध्यायी के सूत्र (७।२।१०) से सम्बन्धित सूत्रों का तुलनात्मक अध्ययन ही इस लेख का मुख्य विषय है । प्रकाशित सूत्रपाठों में कहीं-कहीं छपाई की अशुद्धियाँ हैं, जिन्हें इस लेख में ठीक करके लिखा गया है । ये अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं -

सरस्वतीकण्ठाभरणम् (मद्रास संस्करण)

सूत्र संख्या ६।४।१३६ में 'द्' के बदले ‘दृ’ और 'श्रि' के बदले 'श्री' छपा है ।
सूत्र संख्या ६।४।१३९ में - 'स्विदिमनः श्यना' के स्थान पर - 'स्विदिमश्यना' छपा है और सूत्रसंख्या ६।४।१४३ में - 'सखिहतु-' के स्थान पर - 'सखिवहतु-' ।

शाकटायन-व्याकरणम्

सूत्रसंख्या ४।२।१८५ में 'दन्-दृ-लि -' के बदले 'दन्-द्व-लि -' छपा है । परन्तु अमोघवृत्ति में सही पाठ है - 'दन् दृ लि वि स्पृ मृ दि रु क्रु रि इत्येतेभ्यः परो यः शकारस्तदन्तादेकाचो धातोर्विहितस्येडागमो न भवति ।'

कुछ द्रष्टव्य बातें -
1. बुध् धातु का सरस्वतीकण्ठाभरणम् (स॰कं॰) में श्यन् विकरण के साथ पाठ है जबकि शाकटायन व्याकरण (शा॰व्या॰) में सामान्य रूप से । अतः पाल्यकीर्ति के अनुसार सभी गणों का एकाच् बुध् धातु अनिट् है ।
2. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१४० में वस् धातु का शप् विकरण सहित पाठ है । अतः अदादि और दिवादिगण का वस् धातु सेट् है । शा॰व्या॰ में भी अमोघवृत्ति में लिखा है - वसीति वसतेर्ग्रहणम् वस्तेरदादित्वात् । वसिता वस्त्राणाम् ।
3. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१३८ में अदादिगण को छोड़कर बाकी सभी गणों का एकाच् विद् धातु लिया गया है जबकि शा॰व्या॰ में विकरण सहित रुधादिगण और दिवादिगण का, अर्थात् तुदादिगण को छोड़ दिया गया है । मगर अमोघवृत्ति के अनुसार तुदादिगण भी शामिल किया गया है - “विन्द्विद्येति नम्श्यविकरणोपादानं ज्ञानार्थव्युदासार्थम् । वेदिता शास्त्रस्य । विभागेनोपादानं साहचर्य्यार्थं विन्दतेरपि व्युदासार्थम् ।“
4. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१५० में रिह् और लुह् धातु शामिल किये गये हैं, जो दण्डनाथ के अनुसार सौत्र धातु हैं । शा॰व्या॰ में ये धातु शामिल नहीं हैं ।



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सरस्वतीकण्ठाभरणम् शाकटायन-व्याकरणम्
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सूत्रसंख्या सूत्र सूत्रसंख्या सूत्र
६।४।१३६ अच एकाचोऽनूद्-च्छ्वि- ४।२।१७६ शक्-प्रच्छि-विन्द-विद्य-हन्-
श्रि-डीङ्-शीङ्-यु-रु-स्नु- वसि-घस्यचोऽश्वि-श्रि-
नु-क्षु-क्ष्णु-वृङ्-वृञः । शीङ्-डीङ्‌-रु-षट्कोद्-वॄदतः ।
६।४।१३७ शके लृदितः । ४।२।१७६ “ “
६।४।१३८ विदेरलुकः । ४।२।१७६ “ “
६।४।१३९ श्लिषि-पुषि-सिधि-बुधि- ४।२।१८८ स्विद्-मन्-सिधि-श्लिषि-
स्विदि-मनः श्यना । पुषश्श्यात् ।
६।४।१४० हन्-घस्-वस-प्रच्छः । ४।२।१७६ शक्-प्रच्छि-विन्द-विद्य-हन्-
वसि-घस्यचोऽश्वि-श्रि-
शीङ्-डीङ्‌-रु-षट्कोद्-वॄदतः ।
६।४।१४१ प-रि-मु-सि-वि-वाच्चः । ४।२।१७७ मु-रि-सि-वि-प-वाच्चः ।
६।४।१४२ भ्रस्-मस्-भु-रु-स्वं-सं- ४।२।१७८ भ्रस्-मस्-सृ-यु-य-वि-नि-
रं-भं-वि-सृ-त्य-य-यु- त्य-भु-रु-भाज्जः ।
नि-भाज्जः ।
४।२।१७९ र-भ-स-स्वाञ्ञ्जः ।

६।४।१४३ अ-च्छि-स-खि-ह-तु- ४।२।१८० अ-क्षु-नु-तु-स्कं-भि-च्छि-
स्कं-प-नु-भि-क्षु-शाद्दः । खि-श-प-स-हाद्दः ।

६।४।१४४ सा-रा-बं-रु-क्षु-यु-क्रु- ४।२।१८१ बं-रा-सा-यु-बु-क्रु-शु-रु-
शु-व्याद्धः । क्षु-व्याद्धः ।
६।४।१४५ आ-स्व-लि-लु-च्छु-क्षि- ४।२।१८२ आ-व-लि-लु-क्षि-च्छु-सृ-
ति-सृ-त-व-शात्पः । स्व-ति-श-तात्पः ।
६।४।१४६ य-र-लाद्भः । ४।२।१८३ य-र-लाद्भः ।
६।४।१४७ य-र-न-गान्मः । ४।२।१८४ र-य-न-गान्मः ।
६।४।१४८ लि-वि-मृ-दि-स्पृ-दन्- ४।२।१८५ दन्-दृ-लि-वि-स्पृ-मृ-दि-
दृ-रु-क्रु-रेः शः । रु-क्रु-रेः शः ।
६।४।१४९ वि-तु-दु-त्वि-द्वि-शि- ४।२।१८६ शि-शु-द्वि-त्वि-कृ-पि-वि-
शु-कृ-पेः षः । तु-दोष्षः ।
६।४।१५० दि-न-मि-व-द-रु- ४।२।१८७ व-न-मि-दु-रु-दि-
दु-लि-रि-लोर्हः । लि-दाद् हः ।
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सन्दर्भ-

1. सरस्वतीकण्ठाभरणम् - मद्रास संस्करण, १९३७ ई॰ ।

2. सरस्वतीकण्ठाभरणम् - दण्डनाथवृत्तिसहित, चतुर्थ खण्ड, त्रिवेन्द्रम संस्करण, १९४८ ई॰ ।

3. शाकटायन-व्याकरणम् - संपादक पं॰ शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७१ ई॰ ।

4. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग - म॰ म॰ पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, १९८४ ई॰ ।

5. व्याकरण चन्द्रोदय, तृतीय खण्ड (अनिट् कारिकाः) - पं॰ चारुदेव शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, १९७१ ई॰ ।
(वेदवाणी, जुलाई १९९३, पृ॰ २५-२७, में प्रकाशित)
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अष्टाध्यायी सूत्र 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्' (७।२।१०) के सन्दर्भ में शाकटायन-व्याकरण और सरस्वतीकण्ठाभरण इन दोनों के उपजीव्य कातन्त्रव्याकरण और चान्द्रव्याकरण हैं , जबकि इन अन्तिम दोनों के सूत्र का मुख्य स्रोत व्याकरण-महाभाष्य है ।

कातन्त्रव्याकरण में संगत सूत्र

॥३.७.१३॥ अनिडेकस्वरादातः ।
॥३.७.१४॥ इवर्णादश्विश्रिडीङ्-शीङः ।
॥३.७.१५॥ उतोऽयुरुनुस्नुक्षुक्ष्णुवः ।
॥३.७.१६॥ ऋतोऽवृङ्-वृञः ।
॥३.७.१७॥ शकेः कात् ।
॥३.७.१८॥ पचि-वचि-सिचि-रिचि-मुचेश्चात् ।
॥३.७.१९॥ प्रच्छेश्छात् ।
॥३.७.२३॥ हन-मन्यतेर्नात् ।
॥३.७.२५॥ यभ-रभि-लभेर्भात् ।
॥३.७.२६॥ यमि-रमि-नमि-गमेर्मात् ।
॥३.७.२९॥ वसति-घसेः सात् ।
॥३.७.३०॥ दहि-दिहि-दुहि-मिहि-रिहि-रुहि-लिहि-लुहि-नहि-वहेर्हात् ।

चान्द्रव्याकरण में संगत सूत्र

॥५।४।१३०॥ एकाचोऽश्वि-श्रि-डी-शीङ्-य्वादिषट्कात् ।
॥५।४।१३१॥ सिधि-बुधि-स्विदि-मनि-पुष-श्लिषः श्यना ।
॥५।४।१३२॥ वेदेरलुकः ।
॥५।४।१३३॥ य-र-लाद्‌भः ।
॥५।४।१३४॥ य-न-र-गान्मः ।
॥५।४।१३५॥ शकादिभ्यः ।

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