Friday, July 4, 2008

1. विश्रान्तविद्याधर -- व्याकरण या व्याकरणकर्त्ता ?

Synopsis

All the modern Indian scholars I have come across through references mention विश्रान्तविद्याधर as the name of a grammar written by वामन. But Dr. Kielhorn, by giving some arguments has tried to prove that विश्रान्तविद्याधर is the name or epithet of a man, not of grammar. In this paper some more citations are presented to establish Kielhorn's view.

Pt. Ambalal Shah has expressed his opinion and from the statements of many other scholars it can be inferred that विश्रान्तविद्याधर व्याकरण has not come down to us. But as per Pt. Gurupoda Haldar's information, an incomplete manuscript of it is preserved at Cambay.

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गणरत्नमहोदधि की रचना के मुख्य आधारों में वर्धमान ने वामन के नाम का भी उल्लेख किया है (कारिका-२)-
"शालातुरीय-शकटांगज-चन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः ।" इसकी वृत्ति में वर्धमान आगे लिखते हैं - 'वामनो विश्रान्तविद्याधरव्याकरणकर्त्ता ।'
'विश्रान्तविद्याधर व्याकरणकर्ता' का अर्थ भारतीय विद्वानों के मत में 'विश्रान्तविद्याधर नामक व्याकरण का कर्त्ता' है, अर्थात् विश्रान्तविद्याधर एक व्याकरण का नाम है । परन्तु, डॉ॰ कीलहॉर्न के मत में विश्रान्तविद्याधर किसी व्याकरण का नाम नहीं, बल्कि एक व्यक्ति का नाम है ।

सर्वप्रथम हम भारतीय विद्वानों के मत प्रस्तुत करते हैं । पं॰ गुरुपद हालदार अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' में लिखते हैं -
"चारिखनि ग्रन्थ वामन प्रणीत बलिया शुना जाय - काशिकावृत्ति (आंशिक), लिङ्गानुशासन, सवृत्तिकाव्यालङ्कारसूत्र एवं विश्रान्तविद्याधरव्याकरण ।" (पृष्ठ ४२६)
"वामनाचार्य प्रणीत विश्रान्तविद्याधरेर एक खण्ड हस्तलिखित प्रतिलिपि Cambay ते सुरक्षित आछे, एखन किन्तु अनेकेर पक्षे ग्रन्थ देखाइ असम्भव ।" (पृष्ठ ४५७)

पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' में लिखते हैं -
"वामन ने 'विश्रान्तविद्याधर' नाम का व्याकरण रचा था । इस व्याकरण का उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र और वर्धमान सूरि ने अपने ग्रन्थों में किया है ।" (भाग १, पृष्ठ ६७०)

प्रो॰ के॰ वी॰ अभ्यङ्कर व्याकरण महाभाष्य (मराठी अनुवाद) के सातवें भाग में लिखते हैं -
"३६७ वामनाचे विश्रान्तविद्याधर व्याकरण
....................................
वामनाच्या विश्रान्तविद्याधर नांवाच्या व्याकरणाचा उल्लेख हैमशब्दानुशासन मध्ये मिळतो ।" (पृष्ठ ३८८)

श्री वाचस्पति गैरोला 'संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में लिखते हैं -
"संस्कृत साहित्य में वामन नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए । 'विश्रान्तविद्याधर' नामक जैन व्याकरण का रचियता, प्रसिद्ध अलङ्कार शास्त्री और 'लिङ्गानुशासन' का रचयिता 'काशिका' का रचयिता चौथा ही वामन है ।" (पृष्ठ ३७०)

पं॰ अंबालाल शाह 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' में लिखते हैं -
"वामन नामक जैनेतर विद्वान् ने 'विश्रान्तविद्याधर' व्याकरण की रचना की है, जो उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसका उल्लेख वर्धमान सूरि रचित 'गणरत्नमहोदधि' (पृष्ठ ७२, ९२) में, और आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन' (१।४।५२) के स्वोपज्ञ न्यास में मिलता है ।" (भाग ५, पृष्ठ ४८)
स्पष्ट है कि उनके द्वारा प्रयुक्त 'विश्रान्तविद्याधर व्याकरण' पद का अर्थ 'विश्रान्तविद्याधर का व्याकरण' या 'विश्रान्तविद्याधर द्वारा रचित व्याकरण' ऐसा अर्थ उपर्युक्त वाक्य में नहीं है, बल्कि 'विश्रान्तविद्याधर नामक व्याकरण' अर्थ ही उचित बैठता है ।

गणरत्नमहोदधि की कारिका-२ को उद्धृत कर डॉ॰ वी॰ राघवन् अपने लेख "How many grammars ?" में लिखते हैं -
In this verse, he mentions Panini..............., and in his Vrtti on the above, he adds शिवस्वामिन्, and also identifies वामन mentioned by him as the author of the grammar विश्रान्तविद्याधर........
The correct name of Vaman's work is विश्रान्तविद्याधर and not अविश्रान्त - as found in some mss." (p. 275)

डॉ॰ हर्षनाथ मिश्र 'चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्' में लिखते हैं -
"चत्वारो वामनाः संस्कृतशास्त्रकर्तारो दृश्यन्ते । तत्र प्रथमो विश्रान्तविद्याधराऽऽख्यस्य जैन-व्याकरणस्य कर्ता ।" (पृ॰ २८)

डॉ॰ जानकी प्रसाद द्विवेदी ने 'कलाप व्याकरण्' में विश्रान्तविद्याधर नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है -
"विश्रान्तविद्याधर-सूत्रसारप्रक्रिया-पाणिनीयमतदर्पण-प्रक्रियारत्नमणिसूत्रसार-सूत्रप्रकाश-पदचन्द्रिका.....बालशिक्षा-शुद्धाशुबोधाख्यग्रन्थानामध्ययनादावल्पीयानपि न जातः समादरः ।" (प्रस्तावना, पृष्ठ १)

'संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण' नामक पुस्तक के पृष्ठ ११२ पर वे लिखते हैं - 'विद्याधर व्याकरणकार आचार्य वामन (वि॰ सं॰ ४००-६००) ने विश्रान्त विद्याधर (पाठा॰ - अविश्रान्त विद्याधर) नामक व्याकरण की रचना की थी ।'

डॉ॰ भोला मिश्र अपने लेख 'बौद्ध भिक्षु धर्मकीर्ति का रूपावतार - एक अध्ययन' में लिखते हैं -
"कतिपय बौद्धभिक्षुओं द्वारा ऐन्द्र, चान्द्र, सामन्तभद्र, विश्रान्तविद्याधर, बालावबोध, अष्टधातु एवं मञ्जुश्रीशब्दलक्षण इत्यादि संस्कृत के स्वतन्त्र व्याकरणों की रचना की गई ।" (वेदवाणी, अप्रैल १९९७, पृष्ठ १४)

डॉ॰ कीलहार्न अपने लेख "Indragomin and other grammarians" में लिखते हैं (पृष्ठ १८१)
"Hemachandra mentions the views of other grammarians most frequently, but, unfortunately, instead of quoting those scholars by name, he introduces their statements by such vague expressions as कश्चित्, केचित्, एके, अन्ये, अपरे, etc. What grammarians were meant to be denoted by these terms I first learnt from the marginal notes in a MS. of a small portion of Hemachandra's grammar which is in my possession, and I subsequently descovered that the names there given have been taken from a commentary, called न्यास on Hemachandra's बृहद्वृत्ति. Of this न्यास I have now been able to read through a MS. of the Deccan College (No. 282 of 1873-74), which, I regret to say, does not go beyond the first पाद of अध्याय II of Hemachandra's grammar and from it I give the following names of grammarians or works on grammar, which Hemachandra is supposed to refer to."

इसके बाद वे अनेक नामों का उद्धरण देते हैं जिनमें एक नाम विश्रान्तविद्याधर भी है । आगे पृष्ठ १८२ के फुटनोट संख्या ४ में वे लिखते हैं -
"In the गणरत्नमहोदधि p.2, वामन is described as the author of the विश्रान्तविद्याधरव्याकरण; the same work mentions, p.167, a न्यास on the विश्रान्त [1], and p.131, a विश्रान्तन्यासकृत् [2] ...... In the न्यास, from which I have quoted in the above, विश्रान्तविद्याधर is certainly intended to be the name or the epithet of a man, not of a grammar; the name of the grammar appears to be विश्रान्त."

कीलहॉर्न ने उपर्युक्त जिस न्यास का उल्लेख किया है वह कनकप्रभसूरिकृत 'न्यासोद्धार' या 'न्याससारसमुद्धार' नामक टीका है जो हैमशब्दानुशासन की स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति पर लिखी गई है । बृहद्वृत्ति एवं इस न्यास का प्रकाशन सन् १९८६ में भेरुलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट, बम्बई द्वारा तीन भागों में किया गया है । इससे विश्रान्तविद्याधर सम्बन्धी सभी उद्धरण नीचे दिये जाते हैं ।

१. सूत्र 'तृतीयस्य पञ्चमे' (१।३।१) पर बृहद्वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं - "केचित् तु व्यञ्जनस्य स्थानेऽनुनासिके परे वाऽनुनासिकमिच्छन्ति, तस्य तु 'ह्रस्वान्ङ-ण-नो द्वे' (१।३।२७) इति द्वित्वं च नेच्छन्ति, तन्मते - त्वङूँ इति, त्वगूँ इति ।"
इस पर न्यायसारसमुद्धार में कनकप्रभसूरि लिखते हैं -
"केचित् त्विति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

२. सूत्र 'व्योः' (१।३।२३) पर बृहद्वृत्ति - कश्चित् तु स्वरजयोरनादिस्थयोर्यकार-वकारयोर्घोषवत्यवर्णादन्यतोऽपि लोपमिच्छति - अध्यारूढ उम् - ईशम् अध्युः, स चासाविन्दुश्च - अध्विन्दुः । साधोरीः - श्रीः साध्वी, तस्या उदयः - साध्वुदय इत्यादि ।"
इस पर न्यास॰ - "कश्चित् त्विति - विश्रान्तविद्याधरः ।"

३. सूत्र 'ऋतो रः स्वरेऽनि' (२।१।२) पर बृहद्वृत्ति - अपरे त्वनि स्वरे सर्वत्र विकल्पं जश्-शसोस्तु नित्यं मन्यन्ते, तन्मते - प्रियतिस्रौ, प्रियतिसरौ; प्रियचतस्रौ, प्रियचतसरौ; प्रियतिस्रः, प्रियतिसुः; प्रियचतस्रः, प्रियचतसुः आगतं स्वं वा, इत्यादि । जश्-शसोस्तु - तिस्रः, चतस्रः, परमतिस्रः, परमचतस्रः, प्रियतिस्रः, प्रियचतस्रस्तिष्ठन्ति पश्य वेति नित्यमेव रत्वम् ।"
इस पर न्यास॰ - "अपरे तु इति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

४. सूत्र 'कालाऽध्व-भाव-देशं वाऽकर्म चाकर्मणाम्' (२।२।२३) पर बृहद्वृत्ति - "अन्ये तु सकर्मकाणामकर्मकाणां च प्रयोगे कालाऽध्वभावानामत्यन्तसंयोगे सति नित्यं कर्मत्वमिच्छन्ति - मासमास्ते, दिवसं पचत्योदनम् ।"
इस पर न्यास॰ - "अन्ये त्विति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

५. सूत्र 'अद् व्यञ्जने' (२।१।३५) पर बृहद्वृत्ति - "उत्तरत्र 'अनक्' (२।१।३६) इति वचनादिह साक एव विधिः ।"
इस पर न्यास॰ - "साक एव विधिरिति - विश्रान्तादौ - अन्वादेशे साकोनिरकश्चादेशविधानादिहैवमपि व्याख्या - साको यद्यादेशस्तदाऽन्वादेश एवेति निरकोऽन्वादेशेऽनन्वादेशे चोत्तरेणादादेशः सिद्धः ।"

६. सूत्र 'शकलकर्दमाद्वा' (६।२।३) पर न्यास॰ - "शकल-शकलं रक्तचन्दनं कर्बुरवर्णो वा, कर्द्दमस्तु मृद्विकारविशेषः स च पाण्ड्यमण्डले प्रसिद्ध इति विश्रान्तः ।"

अब हम श्री विजयलावण्यसूरि द्वारा सम्पादित हैमशब्दानुशासन से आचार्य हेमचन्द्र के स्वोपज्ञ 'शब्दमहार्णवन्यास' अपरनाम 'बृहन्न्यास' से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं । सूत्र 'वाऽष्टन आः स्यादौ' (१।४।५२) पर बृहद्वृत्ति (तत्त्वप्रकाशिका) - "अन्यसम्बन्धिनोर्जश्शसोर्नेच्छन्त्येके, तन्मते - प्रियाष्टानस्तिष्ठन्ति, प्रियाष्ट्नः पश्येत्येव भवति । स्यादाविति किम् ? अष्टकः संघः, अष्टता, अष्टत्वम्, अष्टपुष्पी । केचित् तु सकार-भकारादावेव स्यादाविच्छन्ति ।"
इस पर बृहन्न्यास - "अन्यसम्बन्धिनोरित्येके - विश्रान्तविद्याधर इति । केचित् त्विति - स एव ।"

हैमशब्दानुशासन की उपर्युक्त टीकाओं के उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि निश्चय ही विश्रान्तविद्याधर एक व्यक्ति का नाम है, व्याकरण का नहीं । फिर वर्धमान की उक्ति 'वामनो विश्रान्तविद्याधर व्याकरणकर्त्ता' से सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाय ? हमें निम्नलिखित समाधान प्रतीत होता है । चार भिन्न-भिन्न वामन हुए हैं, ऐसा विद्वज्जन मानते हैं । अतः वर्धमान की उक्ति को अगर कुछ इस तरह लिखा जाय - 'वामनो विश्रान्तविद्याधरः, व्याकरणकर्त्ता' अर्थात् वामन व्याकरणकर्त्ता विश्रान्तविद्याधर हैं (वामन is same as विश्रान्तविद्याधर, the author of grammar), तो सामञ्जस्य बैठ जाता है ।

अन्त में हम हैमशब्दानुशासन की टीकाओं के सम्बन्ध में कीलहॉर्न द्वारा पूर्वोक्त लेख के अन्त में दी गयी टिप्पणी का उद्धरण देना उचित समझते हैं, क्योंकि उनकी यह टिप्पणी शोधकर्त्ताओं के लिए अभी भी लागू होती है -
"I would earnestly request my former colleagues, Peterson and Bhandarkar, who already have done so much for the preservation of Sanskrit MSS. to purchase as many commentaries on Hemachandra's work as they can lay hold of, because I believe that such commentaries will furnish many valuable notes on the history of Sanksrit grammar. If the information at my command be correct, there must still be in existence a बृहन्न्यास, called शब्दमहार्णव, a न्यास by धर्मघोष, one by रामचन्द्र, a लघुन्यास by कनकप्रभ, and similar works. They will probably not be pleasant reading, but if Professors Bhandarkar and Peterson will give me the chance, I will try to make the best of them."

टिप्पणी -
1. 'विश्रान्तन्यासस्तु किरात एव कैरातो म्लेच्छ इत्याह ॥' (कारिका १३०)
2. 'विश्रान्तन्यासकृत्त्वसमर्थत्वाद् दण्डपाणिरित्येव मन्यते ॥' (कारिका ९२)

सन्दर्भ ग्रन्थ -
१. Prof. F. Kielhorn: "Indragomin and other grammarians", Indian Antiquary, June 1886, pp.181-183.

२. श्रीगुरुपद हालदारः "व्याकरण दर्शनेर इतिहास", प्रथम खण्ड, प्रकाशक - श्री भारती विकाश हालदार, ४७ हालदार पाड़ा रोड, कालीघाट, कलकत्ता, १९४४ ई॰ (बङ्गाब्द १३५०), पृ॰ ६ + ८८ + ५६ + ७४८.

३. पं॰ युधिष्ठिर मीमांसकः "संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास", प्रथम भाग, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, १९८४ ई॰।

४. प्रो॰ काशीनाथ वासुदेव अभ्यङ्करः "व्याकरण महाभाष्य (मराठी अनुवाद)", प्रस्तावना खण्ड, भाग ७, डेक्कन एजुकेशन सोसायटी, पुणे, १९५४ ई॰।

५. श्री वाचस्पति गैरोलाः "संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास", चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, १९६० ई॰, पृ॰ १० + ९४४.

६. पं॰ अम्बालाल शाहः "जैन साहित्य का बृहद् इतिहास", भाग ५ (लाक्षणिक साहित्य), पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम, हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, १९६९ ई॰।

७. Dr V. Raghavan: "How many grammars ?", Charudev Shastri Felicitation Volume, 1974, pp.271-278.

८. डॉ॰ हर्षनाथ मिश्रः "चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्", श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, १९७४ ई॰ ।

९. डॉ॰ जानकी प्रसाद द्विवेदीः "कलापव्याकरणम्", केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी, १९८८ ई॰ ।

१०. डॉ॰ भोला मिश्रः "बौद्ध भिक्षु धर्मकीर्ति का रूपावतार - एक अध्ययन", वेदवाणी, अप्रैल १९७७, पृ॰ १४-१८ ।

११. "श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्" [स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति तथा न्याससारसमुद्धार (लघुन्यास) संवलितम् ], सम्पादक - मुनि श्री वज्रसेन विजय जी, भेरुलाल कनैयालाल रिलिजियस ट्रस्ट, चन्दनबाला, बम्बई, १९८६ ई॰ । (तीन भागों में)

१२. "श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्" [स्वोपज्ञ तत्त्वप्रकाशिका, शब्दमहार्णवन्यास तथा श्री कनकप्रभसूरि रचित न्याससारसमुद्धार संवलितम् ], सम्पादक - श्री विजयलावण्य सूरि, श्री राजनगरस्था जैनग्रन्थप्रकाशक सभा, १९५६ ई॰ । (भाग १)

(वेदवाणी, पौष सं॰ २०५४ वि॰, जनवरी १९९८, वर्ष ५०, अंक ३, पृ॰ १८-२३ में प्रकाशित)

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