Tuesday, February 26, 2008

असमिया के श, ष और स वर्ण

डॉ० वीरेन्द्र शर्मा अपने लेख "हिन्दु नाम कसौटी पर-", (वेदवाणी, मार्च 1996, पृ० 23, पं० 13) में लिखते हैं-
"हमारा तो दावा यह है कि भारतीय परम्परा में संस्कृत के पदादि 'स्' का कोई परिवर्त्तन कहीं भी नहीं हुआ, स् ही रहा है ।"

हम डॉ० शर्मा के इस मत से सहमत नहीं हैं । असमिया में 'श', 'ष' और 'स' यदि शब्द के शुरू में और असंयुक्त हों तो इनका उच्चारण अकसर 'ह' जैसा होता है । उदाहरणस्वरुप - 'समय' का उच्चारण 'हमय' [1], 'साधु' का 'हाधु', 'शकुन्तला' का 'हकुन्तला' इत्यादि । श्री बिधुभूषण दासगुप्त "Assamese Self-Taught" में लिखते है (सन्दर्भ 1, पृष्ठ 31-32)-
"श,ष,स have sounds peculiar to Assamese. They represent Sanskrit श,ष and स in initial position. But their pronunciation is sometimes like ख and sometimes like ह. In the compound letters or conjunct consonants they are pronounced like English’s’. e.g.-शागुन (हागुन) - vulture, षाठि (हाठि) - sixty, सीता (हीता), बिषय (बिखय), श्रम (स्रम) - labour, स्नान (स्नान) - bath, विष्णु (विस्नु) - Lord Vishnu, etc."

17 अगस्त 1993 को गौहाटी से आये हुए एक सज्जन श्री एन० जे० गोस्वामी से असमिया भाषा के बारे में विस्तृत चर्चा हुई । इसी चर्चा के दौरान हमने उनसे पूछा कि जब असमिया में 'स' का अकसर 'ह' उच्चारण होता है तो क्या 'Saikia' (an Assamese Surname) का उच्चारण 'Haikia' होता है ? उत्तर हाँ में मिला अर्थात् 'शइकीया' का उच्चारण 'हइकीया' ही होता है । असमिया में 'श', 'ष' और 'स' के उच्चारण में कोई विशेष अन्तर नहीं होने के कारण ही Bronson ने "Dictionary in Assamese and English" (प्रकाशन वर्ष 1867 ई०) में 'श' और 'ष' का बिलकुल त्याग करके सिर्फ 'स' का ही प्रयोग किया है (सन्दर्भ 2, पृष्ठ 401) ।

असमिया में 'श', 'ष' और 'स' के उच्चारण के बारे में अन्य विद्वानों के मत नीचे दिये जाते हैं ।

डॉ० ग्रियर्सन “Linguistic Survey of India” (सन्दर्भ 2, पृष्ठ 401) में लिखते हैं - "The three letters श, ष and स, when not compounded with any other consonant, are all pronounced something like a rough German ch, or like the Arabic ख़े ".

डॉ० काकती अपनी थीसिस "Assamese, Its Formation and Development" में लिखते हैं (सन्दर्भ 3, पृष्ठ 63)-
"To sum up, the sibilants have different sound values in initial and non-initial positions in ts. [2] words and they are treated differently in non-initial positions in tbh. words. In initial positions in both ts. and tbh. words they are pronounced as x., but in non-initial positions in ts. words they are pronounced as kh. In non-initial positions in tbh. words, they are all changed to h............. In the case of the numerals, the sibilant श has a स sound and is a borrowed one. In some borrowed forms, palatal च [3] is substituted for the sibilants in writing. In compound consonant groups, the sibilants retain an 's' sound".

कई विद्वानों की सहायता से श्रीमती सीता देवी द्वारा तैयार की गई पुस्तक "Indian Language Highway for All", जिसमें तेरह भारतीय भाषाओं एवं अन्य चार भाषाओं (अंग्रेजी, फ्रेंच, Burmese, Sinhalese) की हर सम्भव ध्वनि के लिए अलग-अलग चिह्न (कुल डेढ़ सौ से भी अधिक) तैयार करने का प्रयास किया गया है, में 'श','ष','स' के उच्चारण के लिए अरब ' ख़े ' जैसा खखारकर गला साफ करने जैसी कण्ठ्य ध्वनि नहीं बल्कि डच भाषा के 'g' या उर्दू के 'हे' जैसी मृदु कण्ठ्य ध्वनि निर्दिष्ट की गई है (सन्दर्भ 4, पृष्ठ xviii) –
0h = Tamil क् , ∴ ; medial soft guttural as in Dutch g, also found in Assamese, Hindustani ह़ , Urdu हे. [here, in "oh", the o is in the superscript]

0hk = Hindustani ख़् , high guttural like cleaning throat (अख़बार ) – Urdu ख़े । [here, in "ohk", the o is in the superscript]

टिप्पणी
[1] असमिया में सकार का उच्चारण थोड़ा मुँह गोल करके किया जाता है, इसलिए 'हमय' सुनने में लगभग 'होमोय्' जैसा प्रतीत होता है । 'असमिया' का उच्चारण सुनने में लगभग 'ओहोमिया' जैसा लगता है । इसी तरह अन्य शब्दों के बारे में भी समझना चाहिए ।
[2] x = ख़, ts. = तत्सम, tbh. = तद्भव
[3] असमिया वर्णमाला के 'च' वर्ण का उच्चारण 'स' जैसा होता है, जैसे - चाय = साय् ।

सन्दर्भ
1. Bidhu Bhusan Dasgupta: “Assamese Self Taught”, Das Gupta Prakashan, 3, Ramanath Mazumdar Street, Calcutta-9, 1966.
2. “Linguistic Survey of India”, Vol. V, Part I, Ed. G. A. Grierson, Motilal Banarsidass.
3. Dr Banikanta Kakati: “Assamese, Its Formation and Development”, thesis approved for the Ph.D. degree of the Calcutta University, 1935; Revised and Edited by Golock Chandra Goswami, Lawyer’s Book Stall, Gauhati, 1962.
4. Adeltha P. Siitaa Devii: “Indian Language Highway for All”, The Adyar Library and Research Centre, Madras, 1967.

Monday, February 25, 2008

कलियुगादि अहर्गण बनाम जुलियन दिवस संख्या

भारतवर्ष में कोई 30 विभिन्न पञ्चाङ्ग प्रचलित हैं । [1, 2] इन पञ्चाङ्गों में न केवल तिथि, नक्षत्र आदि के समाप्ति काल में ही वैषम्य पाया जाता है, बल्कि किसी वर्ष या मास के प्रारम्भ होने वाले दिन में भी विविधता पायी जाती है । एक ही संवत् का कोई वर्ष भिन्न-भिन्न मास से शुरू हो सकता है - जैसे विक्रम संवत् चैत्र मास से या कार्त्तिक से । एक ही मास कुछ क्षेत्रों में कृष्णपक्ष से शुरू होता है तो कुछ क्षेत्रों में शुक्लपक्ष से । अतः कृष्णपक्ष के समय इन दोनों क्षेत्रों में एक मास का अन्तर होता है । उदाहरणस्वरूप कृष्णपक्ष से शुरू होने वाले क्षेत्र में जहाँ चैत्र मास होता है, वहीं दूसरे क्षेत्र में पूर्व वर्ष का फल्गुन मास ही चल रहा होता है । बात यहीं खत्म नहीं होती, कुछ पञ्चाङ्गकर्त्ता ऐसा भी पञ्चाङ्ग (उदाहरणस्वरूप - काशी से संस्कृत में प्रकाशित 'श्रीकाशी-विश्वनाथ-पञ्चाङ्गम्') बनाते हैं, जिसमें वर्ष चैत्र मास के शुक्ल पक्ष से चालू होता है, किन्तु एक पक्ष के बाद ही वैशाख मास चालू हो जाता है और वर्ष के अन्त में चैत्र मास का कृष्णपक्ष आता है । यह एक विचित्र बात है । कुछ पञ्चाङ्गों के विश्लेषण के लिए देखें स्वर्गीय पं० जीवनाथ राय का लेख । [3]

सौर पञ्चाङ्गों में भी विविधता पाई जाती है । सूर्य की समान निरयन मेष राशि की स्थिति में तमिलनाडु में चैत्र (=चित्तिरै) मास माना जाता है तो असम और पश्चिम बङ्गाल में वैशाख । यही नहीं, कोई सौर मास कब शुरू होगा, इसके लिए भी कोई समरूपता नहीं है - या तो जिस दिन सूर्य का किसी खास राशि में संक्रमण होता है उस दिन से या उसके दूसरे दिन से या तीसरे दिन से । [4, 5]

चान्द्र तिथि गणना में भी एक पञ्चाङ्ग दूसरे पञ्चाङ्ग से मेल नहीं खाता । एक ही क्षेत्र से प्रकाशित दो पञ्चाङ्गों में तिथि समाप्ति काल में तीन-चार घंटों का अन्तर भी देखने को मिलता है । उदाहरणस्वरूप- 14 जनवरी 1982 ई० को माघ कृष्णपक्ष पञ्चमी तिथि का समाप्ति काल श्रीकाशी-विश्वनाथ-पञ्चाङ्गम् में रात्रि को 7.15 बजे दिया गया है, जबकि वाराणसी से ही प्रकाशित चिन्ताहरण जन्त्री (भाग्योदय पञ्चाङ्ग) में दोपहर को 3.35 बजे है । इस प्रकार इन दोनों पञ्चाङ्गों में तिथि समाप्ति काल के बारे में 3 घण्टे 40 मिनट का वैषम्य है । श्री रङ्गाचार्य ने यहां तक लिखा है कि यदि पञ्चाङ्गों में तिथि, नक्षत्र इत्यादि के मामले में इसी प्रकार की विविधता जारी रही तो सम्भव है कि हिन्दुओं का पञ्चाङ्ग पर से विश्वास ही उठ जाय । [6]

अधिक मास और क्षय मास के बारे में भी भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विविधता पायी जाती है । [7] इसके चलते दुर्गापूजा, दीपावली, वसन्त पञ्चमी (सरस्वती पूजा) इत्यादि प्रसिद्ध त्योहार भारत के सभी क्षेत्रों में एक ही समय मनाये जाने के बजाय एक महीने के अन्तर से भी मनाये जाते हैं ।[8] कभी-कभी पण्डितों के बीच यह विवाद भी छिड़ जाता है कि अमुक वर्ष का अमुक मास अधिक मास है या नहीं । ऐसा ही विवाद सन् 1963 में विजया दशमी और दीपावली की तारीख के बारे में हुआ था । कांची कामकोट्टि पीठम् द्वारा प्रतिष्ठित ज्योतिषियों का सम्मेलन बुलाया गया था, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि उस वर्ष का आश्विन मास अधिक मास नहीं है । यह भूमध्य दृग्गणित से भी मेल खाता था । कांची पीठम् ने इस निर्णय का अनुमोदन किया था, परन्तु भारत सरकार ने अन्य विचारधारावाले पण्डितों का निर्णय स्वीकार किया जिसके अनुसार आश्विन मास अधिक मास था और 25-26 अक्तूबर को दशहरा एवं 14-15 नवम्बर को दीपावली की छुट्टी का निर्देश दिया । [9] ऐसा ही विवाद सन् 1982 में भी खड़ा हुआ । Lahiri's Ephemeris के अनुसार आश्विन मास अधिक मास था और विजया दशमी 27 अक्तूबर एवं दीपावली 15 नवम्बर को पड़ती थी । परन्तु सनातन धर्म महासभा ने 14 फरवरी को निर्णय लिया कि 27 सितम्बर को विजया दशमी होगी और दीपावली 16 अक्तूबर को । [10]

सौर पञ्चाङ्गों में सौर मास के प्रथम दिन के प्रारम्भ के लिए भिन्न-भिन्न नियम के कारण, चान्द्र-सौर (Luni-solar) पञ्चाङ्गों में मासों के नामकरण हेतु अमान्त और पूर्णिमान्त पद्धति के अनुसरण के कारण; तिथिक्षय एवं तिथिद्वय के कारण; वर्षों की अवधि के लिए विभिन्न नियमों के प्रयोग से एवं अधिक मासों में अन्तर के कारण कई वर्षों के अन्तराल पर घटी दो घटनाओं के बीच ठीक-ठीक अन्तर की गणना करना अकसर एक बहुत ही जटिल कार्य हो जाता है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए एक आसान उपाय यह है कि वर्ष और मास को त्यागकर किसी निश्चित निर्देश-क्षण (epoch) से विगत केवल दिवसों की क्रमिक संख्याङ्कन पद्धति (Consecutive Numbering System) अपनायी जाय । इस उपज्ञा का श्रेय आर्यभट को जाता है जिसने इस का सर्वप्रथम प्रयोग ईसा की पाँचवीं शताब्दी में किया और इसे अहर्गण की संज्ञा दी । [11] पश्चिम में फ्रेंच विद्वान् Joseph Justus Scaliger (1540-1609) ने इसे जुलियन दिवस संख्या (Julian Day Number) की संज्ञा दी । [11] निर्देश-क्षण के लिए स्कालिगर ने 1 जनवरी, 4713 ई० पू० ग्रीनवीच मध्याह्न (=5.30 बजे शाम भारतीय मानक समय) को चुना । आर्यभट ने अहर्गण के लिए निर्देश-क्षण महायुग के शून्य दिवस को चुना । इस अहर्गण की संख्या बहुत बड़ी होने के कारण बाद के ज्योतिर्विदों ने निर्देश-क्षण के लिए कलियुग के प्रारम्भिक क्षण को अपनाया जो 3102 ई० पू० के 17-18 फरवरी को उज्जैन के लिए ठीक अर्धरात्रि से [11] अर्थात् भा.मा.स. के अनुसार 18 फरवरी को 0.16 बजे सुबह से माना गया है । इस क्षण से विगत दिवसों को कलियुगादि अहर्गण के नाम से जाना जाता है ।

रोमन कैलण्डर की किसी दी हुई तारीख को जुलियन दिवस संख्या (JDN) एवं कलियुगादि अहर्गण (KDN=Kali Day Number)निकालने के लिए चार तालिकाएँ (TABLES) प्रस्तुत की गयी हैं । TABLE-I में 4401 ई०पू० (BC) से लेकर 3200 ई० (AD) तक 400 वर्षों के अन्तराल पर JDN एवं KDN दिये गये हैं । TABLE-II में से 100 वर्षों के अन्तराल पर अतिरिक्त वर्षों के लिए योज्य दिवसों की संख्या दी गयी है जबकि TABLE-III में चार वर्षों के अन्तराल पर । TABLE-IV में 0 से 3 अतिरिक्त वर्षों के लिए प्रत्येक महीने की 1 तारीख को कुल योज्य दिवसों की संख्या दी गयी है । यह ध्यान रखना चाहिए कि सभी तालिकाओं में अतिरिक्त वर्ष किसी अधिवर्ष (Leap year) के बाद ही लेने पर योज्य दिवसों की संख्या सही होगी । यदि ऐसा नहीं है तो नोट संख्या 2 और 3 का विशेष ख्याल रखना जरूरी है । अगर JDN और KDN किसी महीने की 1 तारीख के बजाय किसी अन्य तारीख को निकालना हो तो 1 तारीख के बाद के अतिरिक्त दिवसों की संख्या जोड़ देनी चाहिए । उदाहरणस्वरूप 25 मार्च को मार्च 1+24 दिन लिखें । शेष दिये गये उदाहरणों से स्पष्ट हो जायगा ।

इन तालिकाओं से प्राप्त JDN की जाँच पाठकगण Astronomical Ephemeris [12] एवं Tables of the Sun [13] से कर सकते हैं । इन दोनों सन्दर्भों में दी गयी तालिकाओं की अपेक्षा प्रस्तुत तालिकाएँ समझने और प्रयोग करने में ज्यादा आसान हैं ।


संगणक (Computer) से JDN एवं KDN ज्ञात करना

रोमन कैलण्डर की दी हुई तारीख को यदि (d, m, y) के रूप में निरूपित किया जाय जहां d=date, m=month और y=year एवं जनवरी, फरवरी, मार्च इत्यादि महीनों को क्रमशः 1, 2, 3, .............,12 से तो JDN एवं KDN निम्नलिखित सूत्रों से ज्ञात किये जा सकते हैं -

JDN = INT (365.25*a) + INT (30.6*(b+1)) + c + d - 63

KDN = JDN-588466

यहाँ a, b और c के मान इस प्रकार ज्ञात करें -

(1) a का मानः ई०पू० के लिए y का मान ऋणात्मक लेना है, जैसे-
100 ई०पू० के लिए y = - 100
ई०पू० के लिएः a = y + 4713
ई० पश्चात् के लिएः a = y + 4712
यदि m<= 2 तो a = a-1

(2) b का मानः यदि m >= 2 तो b = m+12 अन्यथा b = m

(3) c का मानः 4 अक्तूबर 1582 या इसके पहले की तारीख के लिए c=0, परन्तु 15 अक्तूबर 1582 या इसके बाद की किसी तारीख के लिए अर्थात् ग्रिगॉरियन कैलण्डर के लिए c का मान निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त करें ।

c = 35 - k + INT (k/4)

जहाँ k = INT ((a-312)/100)

उपर्युक्त सूत्रों में INT पूर्णाङ्क (INTEGER) निरूपित करता है, जैसे INT (61.9)=61 एवं * गुणा चिह्न का द्योतक है ।


ज्ञात अहर्गण से तारीख निर्धारित करना

आर्यभटीय की एक ताड़पत्र पाण्डुलिपि की पुष्पिका में इस पाण्डुलिपि का प्रतिलेखन समाप्ति काल कटपयादि पद्धति में सिर्फ कलियुगादि अहर्गण के रूप में दिया हुआ है जो इस प्रकार है -

'सेव्यो दुग्धाब्धितल्पः' एषुतिक्कूटियन्नत्ते अहर्गणम् (in Malayalam, meaning 16,99,887 is the Kali day of the completion of the transcription) [14]

इस अहर्गण से रोमन कैलण्डर की तारीख तालिका I से IV का उपयोग कर इस प्रकार निर्धारित की जा सकती है -

1699817
-1570892 तालिका-I से निकटतम संख्या घटायें 1200 AD
--------------
128925
-109575 तालिका-II से निकटतम संख्या घटायें + 300 वर्ष
--------------
19350
-18993 तालिका-III से निकटतम संख्या घटायें + 52 वर्ष
--------------
357
-335 तालिका-IV से निकटतम संख्या घटायें + 0 वर्ष + 1 दिसम्बर
--------------
+ 22 दिन

अतः 1699817 कलियुगादि अहर्गण
= 1200 ई० + 300 वर्ष + 52 वर्ष + 0 वर्ष + 1 दिसम्बर + 22 दिन
= 23 दिसम्बर, 1552 ई० (शुक्रवार)

आर्यभट जब पूरे 23 वर्ष के हुए उस दिन कलियुगादि अहर्गण उन्हीं द्वारा दी गयी सूचना के अनुसार 1314931 दिन प्राप्त होता है । [15]

उपर्युक्त विधि से ही पाठकगण आसानी से इसकी सङ्गत तारीख ज्ञात कर सकते हैं एवं इसकी जाँच आर्यभटीय के सम्पादक महोदय द्वारा दी गयी तारीख [15] (21 मार्च 499 ई०) से कर सकते हैं ।

केरल के प्रसिद्ध ज्योतिर्विद् एवं षड्दर्शन पारंगत नीलकण्ठ सोमयाजी (1444-1545) ने अपने ज्योतिषग्रन्थ 'तन्त्र संग्रह' के प्रारम्भिक एवं अन्तिम श्लोक में इस कृति के प्रारम्भ एवं अन्त करने का काल अहर्गण के रूप में दिया है -

हे विष्णो निहितं कृत्स्नं जगत् त्वय्येव कारणे ।
ज्योतिषां ज्योतिषे तस्मै नमो नारायणाय ते ॥१.१॥

गोलः कालः क्रिया चापि द्योत्यतेऽत्र मया स्फुटम् ।
लक्ष्मीशनिहितध्यानै रिष्टं सर्वं हि लभ्यते ॥८.४०॥

'हे विष्णो निहितं कृत्स्नं' एवं 'लक्ष्मीशनिहितध्यानैः' का प्रयोग न केवल सामान्य अर्थ में किया गया है, बल्कि इनमें कटपयादि पद्धति में क्रमशः प्रारम्भ काल (1680548) एवं समाप्ति काल (1680553) अहर्गण के रूप में निहित है । [16] गणना करने पर रोमन केलण्डर में सङ्गत दिनाङ्क क्रमशः 22 मार्च 1500 एवं 27 मार्च 1500 प्राप्त होता है ।

'सिद्धान्त दर्पण' नामक अन्य ज्योतिष पुस्तिका [17] की स्वोपज्ञ व्याख्या में नीलकण्ठ सोमयाजी ने अपना जन्मकाल अहर्गण के रूप में दिया है -

"स्वजन्मकालज्ञापनार्थं चैवमुक्तम् । तदा अहर्गणश्च 'त्यजाम्यज्ञतां तर्कैः' (1660181) इति । Here, Nilkantha himself says that he was born on the Kali day 1660181, wich works out to AD 1443, Dec." [18] परन्तु श्री के॰ वी॰ शर्मा ('सिद्धान्त दर्पण और 'तन्त्र संग्रह' के सम्पादक) ने 'तन्त्र संग्रह' में इस तारीख को सुधार कर इस प्रकार लिखा है -

".................Kali day 1660181, wich works out to AD 1444, June 14." [19]

इस सुधार के बाद भी इसमें तीन दिन की अशुद्धि रह गयी है । रोमन कैलण्डर में कलि दिवस 1660181 की सङ्गत तारीख 17 जून 1444 (बुधवार) है ।

टिप्पणी:

1. Calendar Reform and our Debt to Our Ancestors-I, p. 470.
2. Standardising and Modernising Our Panchangas, p. 40.
3. स्वतन्त्र भारत में काल गणना, पृष्ठ 338-340.

4. Calendar Reform vs Dharmasastras, p. 64.
5. सिद्धान्त-दर्पण, Vol.-II, pp. 294-296.
6. Unification in Panchangas, p. 786.

7. Kshaya and Adhika Lunar months in 1982-83 - I, pp. 324-325.
8. Kshaya and Adhika Lunar months in 1982-83 - II, p. 397.
9. Disagreement in Almanacs: Conflicting Festival and Other Dates, p. 704.

10. वही, पृष्ठ 704.
11. Standardising and Modernising Our panchangas - II, p. 214.
12. The Astronomical Ephemeris (1971), p.447

13. Tables of the Sun, pp.xvii, 1-14
14. आर्यभटीय of आर्यभट, पृष्ठ 164.
15. वही, पृष्ठ 95.

16. तन्त्रसंग्रह, p. xxxv
17. इसमें केवल 32 श्लोक हैं ।
18. सिद्धान्त दर्पण, p. xxvi

19. तन्त्रसंग्रह, p. xxxvi


सन्दर्भ ग्रन्थ (AM=The Astrological Magazine)

1. K. D. Abhayankar: "Calendar Reform and Our Debt to Our Ancestors-I", AM, June 1982, pp. 470-472.

2. Commodore S. K. Chatterjee: "Standardising and Modernising Our Panchangas", Part-I, AM, Jan.1985, pp. 38-41; Part-II, AM, Feb. 1985, pp. 213-217.

3. प० जीवनाथ रायः "स्वतन्त्र भारत में काल-गणना", सारस्वत कुसुमाञ्जलि (आचार्य श्री जयमन्त मिश्राभिनन्दनग्रन्थः), 1994, इन्दिरा प्रकाशन, दरभंगा, पृष्ठ 338-342.

4. A. K. Chakravarty: "Calendar Reform Vs Dharmasastras" AM, Jan 1990, pp. 63-66.

5. "सिद्धान्त-दर्पण" [सामन्त चन्द्रशेखर कृत] (अंग्रेजी अनुवाद), Vol. II, अनुवादक एवं व्याख्याकार - अरुण कुमार उपाध्याय, प्रकाशक - नाग पब्लिशर्स, दिल्ली, 1998.

6. Iranganti Rangacharya: "Unification in Panchangas", AM, Oct. 1993, pp. 784, 786.

7. Commodore S. K. Chatterjee: "Kshaya and Adhika Lunar Months in 1982-83", Part-I, AM, April 1982, pp. 323-325, 356; Part-II, AM, May 1982. pp. 391-397.

8. K. Krishna Rao; "Disagreement in Almanacs: Conflicting festival and other Dates", AM, Sept. 1982, pp. 702-704.

9. The Astronomical Ephemeris for the year 1971, HMSO, London, 1969.

10. N. C. Lahiri: "Tables of the Sun", Astro-Research Bureau, Calcutta, 1973.

11. "आर्यभटीय of आर्यभट", Critically edited with Introduction, English Translation, Notes, Comments and Indexes by Kripa Shankar Shukla and K.V. Sarma, Indian National science Academy, New Delhi, 1976, pp.Lxxvii+219.

12. "सिद्धान्त दर्पणम् of नीलकण्ठ सोमयाजी" with auto-commentary, critically edited by K. V. Sarma, V. V. I., Sadhu Ashram, Hoshiarpur, 1976, pp. xxviii+54.

13. "तन्त्र संग्रह of नीलकण्ठ सोमयाजी" with युक्तिदीपिका and लघुविवृत्ति of शङ्कर Critically edited by K. V. Sarma, V. V. I., Sadhu Ashram, Hoshiarpur, 1977.

--------------------------------------------------------------------
Abbreviations
-------------
J = Julian
G = Gregorian

JDN = Julian Day Number
KDN = Kali Day Number

Julian Calendar: On and before 4 Oct. 1582 AD
Gregorian Calendar: On and after 15 Oct. 1582 AD
--------------------------------------------------------------------

*Note 1:
On 18 Feb 3102 BC, Kali Day No. = 0
On this date Julian Day No. = 588466
-----------------------------------------------
TABLE - I 
-----------------------------------------------
Leap Years JDN on Jan 1 at KDN on Jan 1 at  
05:30 PM IST     00:26 AM IST
-----------------------------------------------
4713 BC(J)        0
4401         113958
4001         260058
3601         406158
3201         552258
2801         698358          109892
2401         844458          255992
2001         990558          402092
1601        1136658          548192
1201        1282758          694292
801        1428858          840392
401        1574958          986492
1 BC(J)  1721058         1132592
400 AD(J)  1867158         1278692
800        2013258         1424792
1200        2159358         1570892
1600 AD(G)  2305448         1716982
2000        2451545         1863079
2400        2597642         2009176
2800        2743739         2155273
3200        2889836         2301370
--------------------------------------------


----------------------------------------
TABLE - II
----------------------------------------
No. of days for additional years from any
leap year in TABLE - I
----------------------------------------
Before 1600 AD     From 1600 AD onwards
----------------------------------------
Years  Days          Years   Days
100   36525           100   36525
200   73050           200   73049
300  109575           300  109573
400  146100           400  146097
---------------------------------------
---------------------------------------
TABLE - III
---------------------------------------
No. of days for additional years
after any leap year
---------------------------------------
Years Days
---------------------------------------
4  1461
8  2922
12  4383

16  5844
20  7305
24  8766

28 10227
32 11688
36 13149

40 14610
44 16071
48 17532

52 18993
56 20454
60 21915

64 23376
68 24837
72 26298

76 27759
80 29220
84 30681

88 32142
92 33603
96 35064

100 36525
------------------------------------


------------------------------------
TABLE -IV
------------------------------------
No. of days for additional years
after any leap year
------------------------------------
Month Additional years ---->
0    1     2     3
------------------------------------
Jan 1    0   366   731  1096
Feb 1   31   397   762  1127
Mar 1   60   426   790  1155

Apr 1   91   457   821  1186
May 1  121   487   851  1216
Jun 1  152   518   882  1247

Jul 1  182   548   912  1277
Aug 1  213   579   943  1308
Sep 1  244   610   974  1339

Oct 1  274   640  1004  1369
Nov 1  305   671  1035  1400
Dec 1  335   701  1065  1430
-----------------------------------


Note 2: While using table-III, subtract 1 day from each of the additional days, if additional years are taken after some common century year (e.g. 1900)

Note 3: If additional years are taken just after a common century year (e.g. 1700, 1800, 1900, 2100 etc.) without using table-III, then subtract 1 day from each of the numbers 60 to 1430 in Table-IV

Note 4: If Julian Day No./Kali Day No. is required for any date in the range 15 oct. 1582 to 31 Dec. 1599 , then subtract 10 days from the final result obtained by using Tables I  to IV.

--------------------------------------------------------------------
Ex. 1 : Find JDN and KDN on 15 Mar, 556 BC
556 BC = 801 BC + (801-556) Years = 801 BC + 245 Y.
15 Mar, 556 BC = 801 BC + 200 Y + 44 Y + 1 Y + Mar 1 + 14 Days
JDN = 1428858 + 73050 + 16071 + 425 + 14 = 1518418 (Sunday)
KDN = JDN-588466 = 929952

Ex. 2 : 1 Jan. 1 AD = 1 BC + 1 Y + Jan 1
JDN = 1721058 + 366 = 1721424 (Saturday)
KDN = JDN-588466 = 1132958

Ex. 3 : 16 May, 1583 = 1200 AD + 300 Y + 80 Y + 3 Y + May 1 + 15 Days
JDN = 2159358 + 109575 + 29220 + 1216 + 15 - 10 (NOTE 4)
= 2299374 (Monday):
KDN = JDN - 588466 = 1710908

Ex. 4 : 5 Mar, 1902 = 1600 AD + 300 Y + 2 Y + 3 Y + Mar 1 + 4 Days
JDN = 2305448 + 109573 + (790 -1) + 4 (NOTE 3) = 2415814 (Wednesday)
KDN = JDN - 588466 = 1827348

Ex. 5 : 4 Nov, 1998 = 1600 AD + 300 Y + 96 Y + 2 Y + Nov 1 + 3 Days
JDN = 2305448 + 109573 + (790 -1) + 35064 + (1035 - 1) + 3 (NOTE 2)
= 2451122 (Wednesday)
KDN = JDN - 588466 = 1862656

--------------------------------------------------------------------
Weekday (Midnight to Midnight)
--------------------------------------------------------------------
Using JDN :
Divide JDN by 7. If the remainder is 0, it is Monday, 1 Tuesday and so on.

Using KDN :
Divide KDN by 7. If the remainder is 0, it is Friday, 1 Saturday and so on.
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[प्रकाशित - वेदवाणी, मई 1999, पृ॰13-18 + दो पृष्ठों में उदाहरण सहित चार तालिकाएँ ]

Sunday, February 24, 2008

तेरह दिवसों का पक्ष (विश्वघस्रपक्ष)

Synopsis

The occurrence of a lunar fortnight of thirteen days and its ill effects have come up in the भीष्म पर्व of the Mahabharata. The मुहूर्तगणपति also deals with this topic. The पीयूषधारा commentary on मुहूर्तचिन्तामणि gives also its frequency (i.e. period of repetition) viz. a thousand years. According to Dr. J. F. Fleet, it occurs at least once in twenty-five years. Pt. S. B. Dixit gives an example of lower frequency of seven years.

'The present author feels that the occurrence of thirteen days' lunar fortnight is so frequent (the frequency may be as low as three years) that there is nothing to worry about this phenomenon.
* * * * * * * * * * * *

महाभारत में तेरह दिवसों के पक्ष की चर्चा आयी है । महाभारत युद्ध से कुछ पहले व्यास जी धृतराष्ट्र से कहते हैं -

चतुर्दशीं पञ्चदशीं भूतपूर्वां च षोडशीम् ।
इमां तु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम् ।
चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥
अपर्वणि ग्रहेणेतौ प्रजाः संक्षपयिष्यतः । - भीष्मपर्व (३।३२-३३), गीता प्रेस

अर्थात् एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथि क्षय न होने पर पन्द्रहवें दिन और एक तिथि की वृद्धि होने पर सोलहवें दिन अमावस्या का होना तो पहले देखा गया हे, परन्तु इस पक्ष में जो तेरहवें दिन यह अमावस्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है । इस एक ही महीने में तेरह दिनों के भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों लग गये । इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्व में ग्रहण लगने के कारण ये सूर्य और चन्द्रमा प्रजा का विनाश करने वाले होंगे ।

महाभारत युद्ध में हुए विनाश का परिमाण भी महाभारत में मिलता है । धृतराष्ट्र के द्वारा मृतों की संख्या बतलाने के लिए कहने पर युधिष्ठिर कहते हैं -
दशायुतानामयुतं सहस्राणि च विंशतिः ।
कोट्यः षष्टिश्च षट् चव ह्यस्मिन् राजन् मृधे हताः ॥
अलक्शितानां वीराणां सहस्राणि चतुर्दश ।
दश चान्यानि राजेन्द्र शतं षष्टिश्च पञ्च च ॥ स्त्रीपर्व (२६।९-१०)

हे राजन् ! इस युद्ध में एक अरब, छियासठ करोड़, बीस हजार (१,६६,००,२०,०००) योद्धा मारे गये हैं । राजेन्द्र ! इनके अतिरिक्त चौबीस हजार एक सौ पैंसठ (२४,१६५) सैनिक लापता हैं ।

मुहूर्त्तगणपति नामक ज्योतिष ग्रन्थ के मिश्रप्रकरण, श्लोक १३३ में भी तेरह दिवसों के पक्श को उत्पात सूचक बताया गया है [1] -

त्रयोदशदिनः पक्षो यस्मिन् वर्षे भवेत्तदा ।
प्रजानाशोऽथ दर्भिक्षं तथा भूमिभुजां क्षयः ॥

अर्थात् जिस वर्ष में तेरह दिन का पक्ष होता है उस वर्ष में प्रजा का नाश, अकाल एवं राजाओं का क्षय होता है ।

मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण, श्लोक ४८ में कहा गया है [2] -

अस्ते वर्ज्य सिंहनक्रस्थजीवे वर्ज्य केचिद् वक्रगे चातिचारे ।
गुर्वादित्ये विश्वघस्रेऽपि पक्षे प्रोचुस्तद्वद् दन्तरत्नादिभुषाम् ॥

अर्थात् जिस किसी शुभ कार्य को गुरु ग्रह के अस्त रहने पर निषिद्ध कहा गया है, उसे गुरु ग्रह के सिंह या मकर राशि में रहने पर भी निषिद्ध समझे । कुछ आचार्यों के मत में उसकी वक्रगति होने पर और उसके अतिचार होने पर भी निषिद्ध है । कुछ के मत में, गुरु और सूर्य की युति (एक राशि में दोनों की स्थिति) में भी और विश्वघस्रपक्ष में भी निषिद्ध है । इसी प्रकार हस्तिदन्त, रत्न आदि भूषणों के प्रयोग के लिए भी उपर्युक्त कालों को निषिद्ध कहा गया है ।

'विश्वघस्रपक्ष' पर पीयूष टीका इस प्रकार है - 'विश्वघस्रेऽपि पक्षे त्रयोदशदिने पक्षे यस्मिन् पक्षे तिथिद्वयह्रासः, स त्रयोदशदिनात्मकः पक्षोऽतिनिन्द्यः । तदुक्तं ज्योतिर्निबन्धे –

पक्षस्य मध्ये द्वितिथी पतेतां तदा भवेद् रौरवकालयोगः ।
पक्षे विनष्टे सकलं विनष्टमित्याहुराचार्यवराः समस्ताः ॥ इति ।

तथा - "त्रयोदशदिने पक्षे तदा संहरते जगत् ।
अपि वर्षसहस्रेण कालयोगः प्रकीर्तितः ॥" इति ।

तदुक्तं व्यवहारचण्डेश्वरे -
"त्रयोदशदिने पक्षे विवाहादि न कारयेद् ।
गर्गादिभुनयः प्राहुः कृते मृत्युस्तदा भवेत् ॥" इति ।

ज्योतिर्निबन्धेऽपि -
"उपनयनं परिणयनं वेश्मारम्भादिकर्मणि ।
यात्रां द्विक्षयपक्षे कुर्यान्न जिजीविषुः पुरुषः ॥"

उपर्युक्त श्लोक में 'वर्षसहस्रेण कालयोगः' अर्थात् तेरह दिनों का पक्ष एक हजार वर्षों की अवधि पर होता है, ऐसा कहा गया है । इस पर डॉ० फ्लीट ने टिप्पणी की है -

"This of course is an extensive exaggeration. A lunar fortnight of thirteen solar days appears to occur at least once in twenty-five years." [3]

पं० शंकर बाळकृष्ण दीक्षित के अनुसार शक संवत् १७९३ का फाल्गुन कृष्ण पक्ष और शक संवत् १८०० ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष तेरह दिनों का था [4] अर्थात् सात वर्षों के अन्तराल में ही विश्वघस्रपक्ष का पुनरावर्तन हुआ ।

ई० सन् १९८२ से १९९७ तक के पञ्चाङ्ग के अवलोकन के बाद हमने पाया कि सन् १९८२ (शन १९०४ वि० सं० २०३९) का संसर्प आश्विन कृष्ण पक्ष तेरह दिनों का था (चिन्ताहरण जंत्री, वाराणसी के अनुसार); सन् १९९० (शक १९१२, वि०सं० २०४६) का भाद्रपद कृष्ण पक्ष और सन् १९९३ (शक १९१५, वि० सं० २०४९) का आसाढ़ शुक्ल पक्ष भी तेरह दिनों का था (दाते पञ्चाङ्ग, सोलापुर के अनुसार) पुणे शहर के लिए भी उपर्युक्त तीनों वर्षों में विश्वघस्रपक्ष था । इस प्रकार क्रमशः आठ एवं तीन वर्षों में विश्वघस्रपक्ष का पुनरावर्त्तन हुआ । परन्तु, उपर्युक्त तेरह दिवस वाले पक्ष के वर्षों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सके कि तेरह दिवस वाले पक्ष का वर्ष जगत का संहार करने वाला होता है ।

कोई पक्ष तेरह दिन का होता है तो इसका अर्थ १३x२४ घंटे नहीं है । ई० सन् १९०० के लिए चान्द्रमास का मान २९.५३०५८८६७ दिन था । [5] एक शताब्दी में इस मान में दशमलव के चौथे अङ्क से ही परिवर्तन होता है अर्थात् कुछ सेकेण्डों का । अतः एक पक्ष या अर्धचान्द्रमास का औसत मान लगभग १४.७६५३ दिन अर्थात् १४ दिन १८ घंटे २२ मिनट प्राप्त होता है । पक्ष का स्पष्ट मान कभी भी १३ दिन २० घंटे से कम नहीं होता । [6] परम्परा के अनुसार सूर्योदय के समय जो चान्द्र तिथि होती है, वहीं तिथि अगले अहोरात्र के लिए मानी जाती है । इसलिए किसी तिथि का क्षय भी प्राप्त होता है और तेरह दिन का पक्ष भी । अर्धचान्द्रमास के औसत मान के आधार पर किसी भी तिथि का क्षय नहीं हो सकता और न कोई पक्ष तेरह दिन का । उदाहरण के लिए शक संवत् १९१५ के आषाढ़ शुक्ल पक्ष (२१ जून-३जुलाई १९९३) पर विचार करें । २१ जून को पुणे में सूर्योदय काल ६ बजे और प्रतिपदा तिथि का समाप्ति काल ६ बजकर १२ मिनट है । अतः सूर्योदय के समय पहली तिथि अर्थात् प्रतिपदा हुई और परम्परानुसार यही तिथि अगले सूर्योदय तक अर्थात् २२ जून के सूर्योदय तक मानी जायगी जबकि २१ जून को सुबह ६ बजकर १२ मिनट के बाद से वस्तुतः द्वितीया तिथि चल रही होती है । द्वितीया तिथि का समाप्ति काल २२ जून की सुबह ४ बजकर ३५ मिनट है अर्थात् सूर्योदय होने के पूर्व ही द्वितीया तिथि समाप्त हो जाती है । अतः सूर्योदय के समय तृतीया तिथि प्राप्त होती है । इस प्रकार द्वितीया तिथि का क्षय प्राप्त होता है । इसी तर्क से चतुर्दशी के क्षय के बारे में समझा जा सकता है ।

तालिका संख्या १ में तेरह दिन के पक्ष वाले कुछ वर्ष दिये गये हैं । तालिका २ में किन-किन तिथियों के क्षय से तेरह दिन का पक्ष प्राप्त होता है, इसका विवरण दिया गया है –

तालिका १: तेरह दिवसों के पक्ष वाले कुछ वर्ष

ई० सन् शक संवत् तेरह दिवसों के पक्ष वाला मास अंग्रेजी तारीख
उत्तरी भारत में दक्षिणी भारत में
१२६३ ११८५ श्रावण कृष्णपक्ष आषाढ़ कृष्णपक्ष २४ जून - ६ जुलाई

१५९८ १५२० कार्त्तिक शुक्लपक्ष कार्त्तिक शुक्लपक्ष

१८७२ १७९३ चैत्र कृष्णपक्ष फाल्गुन कृष्णपक्ष

१८७८ १८०० ज्येष्ठ शुक्लपक्ष ज्येष्ठ शुक्लपक्ष

१९०५ १८१८ वैशाख शुक्लपक्ष वैशाख शुक्लपक्ष

१९८२ १९०४ संसर्प आश्विन कृष्णपक्ष संसर्प भाद्रपद कृष्णपक्ष ४-१६ अक्तूबर

१९९० १९१२ आश्विन कृष्णपक्ष भाद्रपद कृष्णपक्ष ६-१८ सितम्बर

१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्लपक्ष आषाढ़ शुक्लपक्ष २१ जून-३ जुलाई


तालिका २: एक ही पक्ष में दो तिथियों का क्षय

ई० सन् शक संवत् मास/पक्ष क्षय तिथि अंग्रेजी तारीख तिथि समाप्ति काल सूर्योदय काल (पुणे)

१९८२ १९०४ भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा ४ अक्तूबर ५-२८ ६-२७
१९८२ १९०४ भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी १६ अक्तूबर ६-१२ ६-३०
१९९० १९१२ आश्विन कृष्ण प्रतिपदा ६ सितम्बर ५-३६ ६-२३
१९९० १९१२ आश्विन कृष्ण चतुर्दशी १८ सितम्बर ६-१४ ६-२४
१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्ल द्वितीया २२ जून ४-३५ ६-००
१९९३ १९१५ आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी ३ जुलाई ५-४० ६-०३



नोट-

1. तिथि समाप्ति काल एवं सूर्योदय काल (पुणे) भारतीय मानक समय (IST) में दिये गये हैं ।

2. उपर्युक्त क्षय तिथियों का प्रारम्भ काल निर्दिष्ट अंग्रेजी तारीख से एक दिन पूर्व क्रमशः ६-३८, ७-१५, ७-१६, ६-३७, ६-१२ एवं ६-३० बजे प्रातः है जो संगत सूर्योदय काल के बाद आता है ।

3. शक संवत् १९०४ में वाराणसी में चतुर्दशी के बदले अमावस्या का क्षय हुआ था ।

टिप्पणी

1. मुहूर्तगणपति, पृष्ठ ३९८.
2. मुहूर्तचिन्तामणि, पृष्ठ ४३.
3. a lunar fortnight of thirteen solar days, p. 83, fotnote 7.

4. भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास, पृष्ठ ११४.
5. पञ्चाङ्ग दर्पण, पृष्ठ ७३.
6. भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास, पृष्ठ ११५.


सन्दर्भ

1. "मुहूर्त्तगणपतिः" (दैवज्ञवर्य गणपति विरचितः) - सम्पादक एवं हिन्दी टीकाकार-पं० रामदयालु शर्मा, प्रकाशक-क्षेमराज श्रीकृष्णदास, श्री वेंकटेश्वर प्रेस, मुंबई, संवत् १९३७.

2. "मुहूर्तचिन्तामणिः" (श्रीमद राम दैवज्ञ विरचितः), पीयूषधारा टीका सहित-सम्पादक-नारायण राम आचार्य 'काव्यतीर्थ', प्रकाशक-सत्य भामाबाई पांडुरंग, निर्णयसागर प्रेस, मुंबई, १९४५ ई०.

3. J. F. Fleet: "A lunar fortnight of thirteen solar days", Indian Antiquary, March 1887, pp. 81-84.

4. पं० शंकर बाळकृष्ण दीक्षितः "भारतीय ज्योतिषशास्त्राचा इतिहास", तृतीय संस्करण, प्रकाशक-ह. अ. भावे, वरदा बुक्स 'वरदा', ३९७-१ सेनापति बापट रोड, पुणे, १९८९ ई०, पृष्ठ ४८+५६६.

5. श्री निर्मलचन्द्र लाहिड़ीः "पंचांग दर्पण", Astro-Research Bureau, 17 Brindaban Mullick 1st Lane, Calcatta, 1993. (बंगला में, परिशिष्ट अंग्रेजी में) ।