Saturday, March 29, 2008

2. व्याकरण वाङ्मय में स्थान, दण्डनाथवृत्ति, सूत्रपाठ-शुद्धि में जैन व्याकरण का महत्त्व

व्याकरणशास्त्र में भोजदेव (सं॰ १०७५-१११०) कृत सरस्वतीकण्ठाभरणम् (स॰ कं॰) का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । इसमें न केवल पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रपाठ बल्कि गणपाठ, उणादिपाठ, फिट्सूत्र, परिभाषा और गणपाठ से सम्बन्धित गणसूत्र को भी यथासम्भव सूत्रपाठ के रूप में ही समाविष्ट करने की कोशिश की गई है । कात्यायन, व्याडि, पतञ्जलि, वामन और जयादित्य इत्यादि लेखकों द्वारा प्रस्तावित सभी सुधारों और संशोधनों का भी ख्याल रखा गया है । इसलिए डॉ॰ चि॰ कुञ्ञन्राज (C. Kunhan Raja) ने व्याकरणशास्त्र में पाणिनि की अष्टाध्यायी के बाद इसका दूसरा स्थान बताया है (संदर्भ १, प्राक्कथन) ।

पाणिनीय व्याकरण के प्रकाण्ड विद्वान् नारायण भट्ट (सं॰ १६१७-१७३३) ने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर अपनी टीका प्रक्रिया सर्वस्व (प्र॰ स॰) की रचना में भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण और उसकी दण्डनाथ वृत्ति से महती सहायता ली है (सन्दर्भ २, प्रथम भाग, पृष्ठ ६०६) । इस कृति (प्र॰ स॰) में सं॰ कं॰ के सूत्रों का उद्धरण बहुलता से किया गया है और इसे पाणिनि-सूत्रों के ठीक बाद दूसरे स्थान पर महत्त्व दिया गया है । इसके (स॰ कं॰ के) सूत्रों को पूरक के रूप में जोड़ा गया है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ ३९) । परिभाषासूत्र मुख्यतः भोज से लिये गये है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ ३०) । भोज के उद्धृत सूत्र इतने प्रायिक (Frequent) और इतनी अधिक संख्या में है कि प्रक्रियासर्वस्व को अष्टाध्यायी की टीका के साथ-साथ भोजव्याकरण की टीका भी कहा जा सकता है (सन्दर्भ ४, पृष्ठ XL VI) । प्रक्रियासर्वस्व के सम्पादक डॉ॰ कुञ्ञन्राज ने लिखा है - "कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर मैं यह कहूं कि अन्य रचनाओं की अपेक्षा इस रचना में कहीं अधिक प्राचुर्य में उद्धरणों का संग्रह मिलता है और इसलिए जिन रचनाओं का सम्पादन अभी तक यथोचित रूप से नहीं हो पाया है उनके पुनर्निर्माण में इसका अपना महत्त्व है" (सन्दर्भ ५, भूमिका, पृष्ठ xxxi) । सं॰ कं॰ के मुद्रित सूत्र-पाठ की शुद्धि में प्रक्रियासर्वस्व के महत्त्व की विस्तृत चर्चा एक अन्य लेख में की जायेगी ।

सम्प्रति गणपाठ के शब्दों के अर्थ, पाठभेद और प्रयोग ज्ञान के लिए एकमात्र साहाय्य ग्रन्थ गणरत्नमहोदधि के कर्ता वर्धमान (सं॰ ११६०-१२१०) ने भी सरस्वतीकण्ठाभरण को प्रामाणिक ग्रन्थ के रूप में उद्धृत किया है (सन्दर्भ २, द्वितीय भाग, पृष्ठ १९३; सन्दर्भ ६, प्रथम भाग, भूमिका) । गणरत्नमहोदधि की रचना के मुख्य आधारों में भोज को अन्यतम माना गया है जो इसकी कारिका संख्या २ से स्पष्ट है (सन्दर्भ ८, पृष्ठ २) -

शालातुरीय शकटांगज चन्द्रगोमि
दिग्वस्त्र भर्तृहरि वामन भोजमुख्याः ।
मेधाविनः प्रवरदीपककर्तृयुक्ताः
प्राज्ञैर्निषेवितपदद्वितया जयन्ति ॥२॥

वर्धमान ने सरस्वतीकण्ठाभरणकर्ता भोजदेव का नामनिर्देशपूर्वक १२९ बार स्मरण किया है ।

शब्दशास्त्रनिष्णात क्षीरस्वामी ने पाणिनीय धातुपाठ की अपनी व्याख्या क्षीरतरङ्गिणी और अमरकोश की अपनी टीका अमरकोशोद्घाटन में श्री भोज और उसके सरस्वतीकण्ठाभरण को बहुधा उद्धृत किया है (सन्दर्भ २, द्वितीय भाग, पृष्ठ ९७) । श्री भोज का नामनिर्देशपूर्वक क्षीरतरङ्गिणी में ४ बार (सन्दर्भ ९) और अमरकोशोद्घाटन में १८ बार (सन्दर्भ १०)स्मरण किया है ।

वेदनिघण्टुव्याख्याता देवराज यज्वा (सं॰ १३५०-१४००) ने भी भोजसूत्र को सर्वत्र अङ्गीकृत किया है (प्रक्रियासर्वस्वकार नारायणभट्टकृता 'अपाणिनीय प्रमाणता', सन्दर्भ २, तृतीय भाग, पृष्ठ १२) और स॰ कं॰ के वृत्तिकार दण्डनाथ का नाम निर्देशपूर्वक उल्लेख किया है (सन्दर्भ २, प्रथम भाग, पृष्ठ ६८९) । सायणाचार्य (सं॰ १३७२-१४४४) ने भी पाणिनीय धातुपाठ की अपनी व्याख्या धातुवृत्ति में भोज का मत उद्धृत किया है(सन्दर्भ २६, पृष्ठ ५७, २००, ३६९)। भट्टोजि दीक्षित (सं॰ १५७०-१६५० के मध्य) ने 'ध्वन ८१६ शब्दे' की व्याख्या के प्रसङ्ग में भोज का सूत्र (स॰ कं॰ १.१.१९२) उद्धृत किया है [सन्दर्भ २७, पृष्ठ १८९]। हेमचन्द्रसूरि (सं॰ ११४५-१२२९) ने भी अपनी लिङ्गानुशासन वृत्ति (सन्दर्भ ११) में और भानुजिदीक्षित (सं॰ १६५०) ने अपनी अमरकोष टीका (सन्दर्भ १२, प्रस्तावना, पृष्ठ १५) में भोज का उल्लेख किया है । अमरकोषटीका में उसने भोज या स॰ कं॰ का बिना उल्लेख किये भी इसके सूत्र को उद्धृत किया है । उदाहरणस्वरूप, श्लोक १।१।४४ में 'ऋभुक्षाः' की व्युत्पत्ति में 'अर्तेर्भुक्षिनक्' सूत्र का उल्लेख किया है जो स॰ कं॰ (२।१।१९४) का उणादिसूत्र है ।

संस्कृत काव्यों के प्रसिद्ध टीकाकार कोलाचल मल्लिनाथ सूरि (सं॰ १२६० से पूर्व) ने भी भोजराज का मत उद्धृत किया है - उदाहरणस्वरूप, कालिदासकृत मेघदूत (पू॰ में॰ ३६) में 'दृष्टभक्ति', रघुवंशम् (१२।१९) में 'दृढभक्ति' और कुमारसम्भव (८।७७) में 'मान्यभक्ति' की रूपसिद्धि की विवेचना करते समय भोजसूत्र 'भक्तौ च कर्मसाधनायाम्' (स॰ क॰ ६।२।४६) को उद्धृत किया है (सन्दर्भ १३, पृष्ठ २५०, २५५) ।

अष्टाध्यायी के सूत्रपाठ के साथ-साथ वार्तिक, इष्टि, गणपाठ, गणसूत्र, परिभाषा, फिट्सूत्र और उणादिपाठ के भी यथासम्भव सूत्रपाठ में ही समावेश किये जाने के कारण सरस्वतीकण्ठाभरण अति विस्तृत हो गया है । एकमात्र सम्पूर्ण मद्रास संस्करण (सन्दर्भ १) में कुल सुत्रों की संख्या ६४३२ है । पाद के अनुसार सूत्रों की संख्या इस प्रकार है (अ॰=अध्याय)-

तालिका १: सरस्वतीकण्ठाभरण के मद्रास संस्करण में सूत्रों की संख्या
---------------------------------------------
अध्याय पाद १ पाद २ पाद ३ पाद ४ कुल
---------------------------------------------
१ २१२ १३५ २३१ २७७ ८५५
२ ३४८ २५५ १९१ २८३ १०७७
३ ३०४ १६१ १४८ १३५ ७४८
४ २११ १४९ २६९ २०७ ८३६
५ १८१ २२४ १५६ १८९ ७५०
६ १७५ १८० १८३ १९२ ७३०
७ १४० १५१ १५० १७८ ६१९
८ १७३ १४९ २६३ २३२ ८१७
---------------------------------------------
कुल ---> ६४३२
---------------------------------------------

सभी संज्ञाओं का पाठ प्रथम अध्याय के प्रथम पाद में, परिभाषा का पाठ द्वितीय पाद में, उणादिपाठ द्वितीय अध्याय के प्रथम तीन पादों में और फिट्सूत्र का पाठ अष्टम अध्याय के तृतीय पाद के सूत्र ११०-१९६ में समाविष्ट है । अष्टम अध्याय के प्रथम दो पादों में वैदिक रूपविधान (Morphology) प्रकरण और अन्तिम दो पादों में वैदिक और लौकिक दोनों के स्वर प्रकरण का समावेश है ।

दण्डनाथवृत्ति
सरस्वतीकण्ठाभरण पर दण्डनाथ नारायण की हृदयहारिणी नामक व्याख्या1 प्रथम छः अध्याय तक कुल चार अध्याय तक कुल चार खण्डों में त्रिवेन्द्रम से छप चुकी है (सन्दर्भ ६) । १९४८ ई॰ में छपे चतुर्थ भाग के कवर के अन्तिम पृष्ठ पर यह सूचना दी गई थी कि "भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण (व्याकरण) व्याख्या सहित-पञ्चम भाग" प्रेस में है, किन्तु ४७ साल गुजर जाने के बाद भी यह पञ्चम भाग प्रकाश में नहीं आया । सातवें अध्याय के अन्त तक दण्डनाथवृत्ति की एक प्रति मद्रास की अडयार लाइब्रेरी में जमा है (सन्दर्भ ७) । डॉ॰ कंसारा ने लिखा है कि अडयार लाइब्रेरी एण्ड रिसर्च इन्स्टिच्यूट के डिरेक्टर से पूछताछ करने पर पता चला कि स॰ कं॰ के अष्टम अध्याय पर दण्डनाथवृत्ति का यहां कोई हस्तलेख नहीं है (सन्दर्भ १४, पृष्ठ ३१२; सन्दर्भ १५, पृष्ठ ४५) । शायद दण्डनाथ ने स॰कं॰ की व्याख्या सप्तम अध्याय तक ही लिखी है । स॰क॰ के मद्रास संस्करण (मात्र सूत्रपाठ) और त्रिवेन्द्रम् संस्करण (दण्डनाथवृत्ति सहित) में कुल सूत्रों की संख्या में अन्तर है । पाद के अनुसार सूत्रों की संख्या त्रिवेन्द्रम संस्करण में निम्नलिखित है –

तालिका २: सरस्वतीकण्ठाभरण के त्रिवेन्द्रम् संस्करण में सूत्रों की संख्या
---------------------------------------------
अध्याय पाद १ पाद २ पाद ३ पाद ४ कुल
---------------------------------------------
१ २११ १३४ २३० २७८ ८५३
२ ३४८ २५५ १९० २८५ १०७८
३ ३०७ १६४ १५० १३५ ७५६
४ २१२ १५२ २७२ २०८ ८४४
५ १८२ २२७ १५७ १८९ ७५५
६ १७५ १८५ १८१ १९२ ७३३
---------------------------------------------
कुल ---> ५०१९
---------------------------------------------

जिन सूत्रों की कोई दण्डनाथवृत्ति नहीं मिलती या वृत्ति के रूप में सिर्फ एक या दो शब्द मिलते हैं उन सूत्रों की कुल संख्या अगली तालिका में दी गई है । एक या दो शब्द प्राप्त वृत्ति वाले सूत्रों की संख्या '+' चिह्न के बाद लिखि गई है । चूंकि दडनाथ वृत्ति के हस्तलेख (सन्दर्भ ७) में सूत्रों के आगे कोई संख्या नहीं लिखी है, इसलिए सप्तम अध्याय के लिए मद्रास संस्करण के सूत्रों की संख्या ही तुलना के लिए रखी गयी है ।

तालिका ३: उन सूत्रों की कुल संख्या जिनकी दण्डनाथवृत्ति प्राप्त नहीं होती
---------------------------------------------
अध्याय पाद १ पाद २ पाद ३ पाद ४ कुल
---------------------------------------------
१ १ - १२ - १३
२ - - - ३ ३
३ ७३ ४१ १३ १+१ १२८+१
४ - १ ३+२ १ ५+२
५ - २०+१ - ७ २७+१
६ - १६ १६ १४+२ ४६+२
७ २ ३+१ - १३ १८+१
---------------------------------------------
कुल ---> २२७+७
---------------------------------------------

दण्डनाथवृत्ति में कुल सूत्रों की संख्या जिनमें वृत्ति अधूरी है (एक-दो शब्दों की रक्ततावाली वृत्ति भी शामिल) निम्नलिखित तालिका में दी गयी है

तालिका ४: अधूरी वृत्ति वाले सूत्रों की कुल संख्या
---------------------------------------------
अध्याय पाद १ पाद २ पाद ३ पाद ४ कुल
---------------------------------------------
१ २ १ १ - ४
२ १ - १ ५ ७
३ ६ ८ ५ १४ ३३
४ ६ १ ५ ४ १६
५ ३ ६ २ ३ १४
६ ७ ८ १६ २ ३३
७ ७ ४ ५ ५ २१
---------------------------------------------
कुल ---> १२८
---------------------------------------------

सन्दर्भ ७ में सप्तम अध्याय के निम्नलिखित सूत्र और उनकी वृत्ति लुप्त हैं –
७।२।९०, १०५-१०६ ७।४।६७, १५८-१६७
सूत्र ७।४।१६८ और उसकी वृत्ति के प्रारम्भ के कुछ अंश लुप्त हैं ।


सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि में जैन व्याकरण का महत्त्व

सरस्वतीकण्ठाभरण जैसे अतिमहत्त्वपूर्ण व्याकरणशास्त्र के शुद्ध संस्करण की महती आवश्यकता है । जैसा कि हमने पूर्वलेख 'सरस्वतीकण्ठाभरणम्' (वेदवाणी, जुलाई १९९३) में सूचित किया था, मद्रास संस्करण में बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं जिनमें अधिकतर छपाई की अशुद्धियाँ हैं । परन्तु कुछ ऐसे भी अशुद्ध सूत्रपाठ हैं जिनकी शुद्धि के लिए बहुत कुछ शोध की आवश्यकता है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए हम सरस्वतीकण्ठाभरण के दो अशुद्ध सूत्रपाठ ७।३।२७ और ७।४।७७ की विवेचना इस लेख में करते हैं ।

अब तक प्रकाशित सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ के सम्पादन में सिर्फ पाणिनीय व्याकरण का ही सहारा लिया गया है । मगर भोजदेव ने अपने शब्दानुशासन की रचना अपने पूर्ववर्ती सभी उपलब्ध व्याकरणों का आलोडन करके की है और पाणिनीतर व्याकरणों से भी बहुत कुछ ग्रहण किया है, जैसे चान्द्र व्याकरण और शाकटायन व्याकरण । ये दोनों व्याकरण प्रकाशित हो चुके हैं (सन्दर्भ १६-१८) ।

सूत्र रचना और प्रकरण-विच्छेद आदि में भोज ने पाणिनीय अष्टाध्यायी की अपेक्षा चान्द्र व्याकरण का आश्रय अधिक लिया है (सन्दर्भ २, प्रथम भाग, पृष्ठ ६८८) । उपर्युक्त लेख में हमने यह लिखा था कि भोजदेव ने स॰कं॰ की रचना में पाल्यकीर्ति (सं॰ ८७१-९२४) कृत शाकटायन व्याकरण का भी बहुत कुछ आश्रय लिया है और उसी सन्दर्भ में हमने अष्टाध्यायी के सूत्र 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्' (७।२।१०) से सम्बन्धित सूत्रों की तुलना भी की थी । डॉ॰ नेमिचन्द्र शास्त्री ने "आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन: एक अध्ययन" में लिखा है - "सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण की रचना में पाणिनि, कातन्त्र, जैनेन्द्र, शाकटायन और सरस्वतीकण्ठाभरण का आधार ग्रहण किया है । यतः उक्त व्याकरणग्रन्थों के कतिपय सूत्र तो ज्यों के त्यों हैम से उपलब्ध हैं और कतिपय सूत्र कुछ परिवर्त्तन के साथ मिलते हैं" (सन्दर्भ १९, पृष्ठ ११९) । अतः सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि में हेमचन्द्र सूरि (सं॰ ११४५-१२२९) द्वारा रचित सिद्धहेमशब्दानुशासन का भी प्रयोग किया जा सकता है ।

अब हम अशुद्ध भोजसूत्र ७।३।२७ की तुलना भिन्न-भिन्न व्याकरणों से करके शुद्ध पाठ तय करते हैं ।

भोजसूत्र – ७।३।२७ युष्मदस्मलोर्लु ग्विभक्त्यन्तयोर्वस्नसौ वा ।

पाणिनिसूत्र – ८।१।२० युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयास्थयोर्वान्नावौ ।
८।१।२१ बहुवचनस्य वस्नसौ ।

कातन्त्रसूत्र – २।३।१ युष्मदस्मदोः पदं पदात् षष्ठीचतुर्थीद्वितीयासु वस्नसौ ।

चान्द्रसूत्र – ६।३।१६ युष्मदस्मदोः षष्ठीचतुर्थीद्वितीयान्तयोर्वानौ वा ।
६।३।१७ बहुवचनस्य वस्नसौ ।

जैनेन्द्रसूत्र – ५।३।१६ युष्मदस्मदोऽविप् तास्थस्य वां नावौ ।
५।३।१७ बहोवस्नसौ (सन्दर्भ २१)

शाकटायनसूत्र – १।२।१७७ युष्मदस्मद्भ्यामाकम् ।
१।२।१९१ पदाद्वाक्यस्य वस्नसौ युग्विभक्तेः ।

हैमसूत्र - २।१।२१ पदाद्युग्विभक्त्यैकवाक्ये वस्नसौ बहुत्वे ।

जैनेन्द्र न अप्, इप् और ता संज्ञाओं का प्रयोग क्रमशः चतुर्थी, द्वितीया और षष्ठी विभक्ति के लिए किया है । भोजसूत्र में लुग्विभक्ति का अर्थ प्रसंग के अनुसार ठीक नहीं बैठता । इस सूत्रपाठ की शुद्धि में सिर्फ जैन व्याकरण (शाकटायन और हैम) ही उपयोगी हैं । जैसा कि उपर्युक्त सूत्रों की तुलना से स्पष्ट है । शाकटायन व्याकरण के सूत्र १।२।१९१ की अमोघवृत्ति में युग्विभक्ति की व्याख्या मिलती है - 'द्वितीया चतुर्थी षष्ठी च युग्विभक्तिः ।' सिद्धहेम शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ लघुवृत्ति (सन्दर्भ २२) में युग्विभक्ति का अर्थ 'समविभक्ति' मिलता है । अवचूरिपरिष्कार (सन्दर्भ २२, पृष्ठ १२०-१२१) में निम्नलिखित व्याख्या प्राप्त होती है-
"पदात्, युज्यते इति युग्, विभज्यतेप्रकटी क्रियतेऽर्थोऽनेनेति विभक्तिः, युग् चासौ विभक्ति- श्च तया, ......... । युग्विभक्तिरविषमविभक्तिर्द्वितीयाचतुर्थीषष्ठीरूपा ।"

बृहद्वृत्त्यवचूर्णि (सन्दर्भ २३, पृष्ठ ७५) में और भी स्पष्ट व्याख्या मिलती है-
"युनक्तीति युङ् इति कर्तरि क्विप्, यद्वा योजनं युङ् सममविषमं संख्यास्थानम्; युग्ममिति यत् संख्यायते तेन परिच्छिन्नं वस्त्वपि युगित्युच्यते; ततः समसंख्या द्वितीयाचतुर्थीषष्ठीरूपा विभक्तयो युग्शब्देनोच्यन्त इति ।"

दण्डनाथवृत्ति की जो प्रति उपलब्ध है (सन्दर्भ ७) उसमें "द्वितीयाचतुर्थीषष्ठी चेति लुग्विभक्तयः" ऐसी टीका पायी जाती है जो भ्रष्ट है । इसी वृत्ति को देखकर शायद डॉ॰ चिन्तामणि ने मद्रास संस्करण में '-लुग्विभक्त्यन्त-' इस पाठ को सूत्रपाठ में शामिल किया है जबकि पाण्डुलिपि A के सही सूत्रपाठ को फुटनोट में रखा है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भोजसूत्र का शुद्ध पाठ होगा - "युष्मदस्मयोर्युग्विभक्त्यन्तयोर्वस्नसौ वा ॥७।३।२७॥"


अब हम षत्व प्रकरण से सम्बन्धित भोजसूत्र (७।४।४७) पर विचार करते हैं ।

भोजसूत्र - ७।४।७६ सुविनिर्दुभ्यः समसूत्योः ।
७।४।७७ स्वपेरपः ।

पाणिनिसूत्र - ८।३।८८ सुविनिर्दुर्भ्यः सुपिसूतिसमाः ।

चान्द्रसूत्र - ६।४।७५ सुविनिर्दुर्भ्यः समसूतिसुपाम् ।

जैनेन्द्रसूत्र - ५।४।६९ निर्दुस्सुवेः सुपिसुतिसमाः ।

शाकटायनसूत्र - ४।२।२३७ निर्दुस्सुवेस्समसूतिस्वपोऽवः ।

हैमसूत्र - २।३।५६ निर्दुः सुवेः समसूतेः ।
२।३।५७ अवः स्वपः ।

यहां भी "स्वपेरपः" से मिलता-जुलता सूत्र जैन व्याकरणों में ही है । शाकटायन व्याकरण के सूत्र ४।२।२३७ पर अमोघवृत्ति इस प्रकार है -
"निस् दुस् सु वि इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्यः परस्य समशब्दस्य सूतिशब्दस्य च स्वपेश्च । वकारस्य धातोः षिरादेशो भवति निष्षमः । दुष्षमः । सुषमः । विषमः । विष्षूतिः । दुष्षूतिः । सुषूतिः । विषूतिः । निष्षुप्तः । दुष्षुप्तः । सुषुप्तः । विषुप्तः । विषुषुपतुः । विषुषुपुः अव इति किम् ? निस्स्वप्नः । दुस्स्वप्नः । विसुष्वाप । समसूतीति प्रातिपदिकग्रहणम् । तेनेह न भवति । निस्समति । दुस्समति । निस्सूतम् । दुस्सूतम् । अन्ये धातुग्रहणमेबाहुः । तेषां निष्षमति । दुष्षमति । निष्षूतम् । दुष्षूतम् ।"
'अवः स्वपः' (२।३।५७) पर श्री सिद्धहेमलघुवृत्ति इस प्रकार है - "निर्दुः सुविपूर्वस्य वहीनस्य स्वपेः सः ष् स्यात् । निःषुषुपतुः, दुःषुषुपतुः, सुषुषुपतुः, विषुषुपतुः । अव इति किम् ? दुःस्वप्नः ।"

इस स्थल पर जैन व्याकरणों के छोटे से सूत्र - 'स्वपोऽवः' और 'अवः स्वपः' व्याकरण महाभाष्य (संदर्भ २४, पृष्ठ ४४६-४४७) में उल्लिखित इन दो श्लोकवार्तिकों -

सुपेः षत्वं स्वपेर्मा भूद्विसुष्वापेति केन न ।
हलादि शेषान्नसुपिरिष्टं पूर्व प्रसारणम् ॥१॥
स्थादीनां नियमो नात्र प्राक्मितादुत्तरः सुपिः ।
अनर्थके विषुषुपुः सुपिभूतो द्विरुच्यते ॥२॥

और संगत (Corresponding) भाष्य के परिप्रेक्ष्य में देखने लायक हैं । 'स्वपेरपः' पर प्राप्त दण्डनाथवृत्ति (सन्दर्भ ७) इस प्रकार है -
"सुविनिर्दुभ्यः उपसर्गेभ्यः परस्य स्वपेः सकारस्य षकारादेशो भवति । सुषुप्तः । विषुप्तः । निःषुप्तः दुष्षुप्तः, एवं सुषु-ष्वत, अत इति किम् । सुषुप्तः ॥"
स्पष्ट है कि यह वृत्ति भ्रष्ट है । सूत्रपाठ में 'अतः' है जबकि वृत्ति में 'अत' है और दोनों ही असंगत हैं । अतः भोजसूत्र के पाठ होंगे -
सुविनिर्दुर्भ्यः समसूत्योः ॥७।४।७६॥
स्वपेरवः ॥७।४।७७॥

सरस्वतीकण्ठाभरण के अष्टम अध्याय का एक संशोधित संस्करण छप चुका है (सन्दर्भ २५) । इसमें सूत्रपाठ, सूत्रार्थ (संस्कृत में) तथा उदाहरण देवनागरी लिपि में हैं किन्तु व्याख्या गुजराती भाषा में है । इसके सम्पादक और व्याख्याकार डॉ॰ नारायण कंसारा ने अपने पत्र (दिनांक २३-११-१९९४) द्वारा मुझे सूचना दी है कि उन्होंने राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान को 'सरस्वतीकण्ठाभरण-वैदिक व्याकरण' का भारत की सभी भाषाओं में अनुवाद कराने की सलाह दी है ।

सन्दर्भ
1. सरस्वतीकण्ठाभरणम् (भोजदेवप्रणीतम्) - सम्पादक ति॰ रा॰ चिन्तामणि, मद्रपुरीय विश्वविद्यालय संस्कृतग्रन्थावलि (मद्रास यूनिवर्सिटी संस्कृत सीरिज़), ग्रन्थाङ्क ११,१९३७ ई॰ ।
2. पं॰ युधिष्ठिर मीमांसकः "संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास", रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत-हरियाणा), १९८४ ई० ।
3. Dr. S. Venkitasubramonia Iyer: "Narayanbhatta's Prakriyasarvasva - A Critical Study". Publication No. 7, Department of Sanskrit, University of Kerala, Trivandrum, 1972, pp. xii+347+1
4. प्रक्रियासर्वस्वम् (नारायचणभट्टप्रणीतम्), तृतीयो भागः - सम्पादक वी॰ ए॰ रामस्वामिशास्त्री, अनन्तशयन संस्कृत ग्रंथावलि (त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरिज), ग्रन्थाङ्क १५३ए १९४७ ई॰ ।
5. प्रक्रियासर्वस्वम् (तद्धितप्रकरणम्)-नारायणभट्टविरचितम्-सम्पादक चि॰ कुञ्ञन्राज, मद्रपुरीय विश्वविद्यालय संस्कृत ग्रन्थावलि, ग्रन्थाङ्क १५ए १९४१ ई॰ ।
6. सरस्वतीकण्ठाभरणम् (नारायण दणडनाथ प्रणीतया हृदयहारिण्याख्यया व्याख्यया समेतम्) सम्पादक-के॰ साम्बशिवशास्त्री (१८७९-१९४६), प्रथम भाग (अध्याय ३-४) - १९३८ ई॰ - सम्पादक - वि॰ ए॰ रामस्वामिशास्त्री, चतुर्थ भाग (अध्याय ५-६) - १९४८ ई॰; अनन्तशयन संस्कृत ग्रन्थावलि, क्रमशः ग्रन्थाङ्क ११७, १२७, १४० और १५४ में अनन्तशयन विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित ।
7. "हृदयहारिणी" नामाख्या सरस्वतीकण्ठाभरण व्याख्या (दण्डनाथ नारायणभट्ट विरचिता) - पैलेस लाइब्रेरी, त्रिवेन्द्रम में संगृहीत पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि (सप्तम अध्याय तक), सन्दर्भ १ में "C" से निर्दिष्ट ।
8. गणरत्नमहोदधिः - सम्पादक - Julius Eggeling, मोतीलाल बनारसीदास, १९७९ संस्करण का पुनर्मुद्रण, १९६३ ई॰ ।
9. क्षीरतरङ्गिणी - सम्पादक - पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, १९५७ ई॰ ।
10. अमरकोशोद्घाटनम् (क्षीरस्वामिकृत) - सम्पादक कृष्णाजी गोविन्द ओक, प्रकाशक - डी॰ जी॰ खाण्डेकर, "लॉ प्रिंटिंग प्रेस", ४४९ शनवार पेठ, पुणे, १९१३ ई॰ ।
11. श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्, प्रथमोऽध्यायः (स्वोपज्ञ टीकासमेतलिङ्गानुशासन-सटीक प्रथमाध्यायद्व्याश्रयमहाकाव्यादिभिः परिशिष्टैः समलंकृतः) - सम्पादक श्री विजयलावण्यसूरिः, प्रकाशिका - श्रीराजनगरस्था जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा, वि॰ सं॰ २००७ ।
12. अमरकोषः [श्री भानुजिदीक्षितकृतया 'रामाश्रमी' (व्याख्यासुधा) व्याख्याविभूषितः] सम्पादक - पं॰ हरगोविन्द शास्त्री, चोखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १९८२ ई॰ ।
13. डॉ॰ प्रभुनाथ द्विवेदी: 'कालिदास की कृतियों पर पल्लिनाथ की टीकाओं का विमर्श' प्रकाशक-वेदप्रकाश द्विवेदी, के ६७/८५-१० ए, नाटी इमली, वाराणसी, १९८२ ई॰ ।
14. Dr. N. M. Kansara: 'The Vaidika Vyakarana of Bhojadeva', Journal of the Oriental Institute, Baroda, Vol. 38, Nos. 3-4, March-June 1989, pp. 309-313.
15. N. M. Kansara: "Emendations essential to the vedic Grammar of Bhojdeva", All India Oriental Conference, 35th Session, Hardwar, 1990, pp. 43-53.
16. Candravyakarana of Candragomin - Editor KshitishChandra Chatterji, Deccan College Postgraduate & Research Institute, Poona [Part I (ch. 1-3)-1953, Part II (ch. 4-6)-1961].
17. चान्द्रव्याकरणम्-सम्पादक पं॰ श्री बेचरदास जीवराज दोशी, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर १९६७ ई॰ ।
18. शाकटायनव्याकरणम् - सम्पादक पं॰ सम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी १९७१ ई॰ ।
19. डॉ॰ नेमिचन्द्र शास्त्रीः "आचार्य हेमचन्द्र और उनका शब्दानुशासन - एक अध्ययन", चौखम्भा विद्या भवन, वाराणसी, १९६३ ई॰ ।
20. कातन्त्रव्याकरणम् - (दुर्गवृत्तिसहितम्)-सम्पादक डॉ॰ आर्॰ एस्॰ सैनी, भारतीय विद्या प्रकाशन, दिल्ली, १९८७ ई॰ ।
21. जैनेन्द्र व्याकरणम् (जैनेन्द्र महावृत्तिसहितम्) - सम्पादक पं॰ शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, नवम्बर १९५६ ।
22. श्री सिद्धहेमलघुवृत्तिः (अवचूरिपरिष्कारसहिता), द्वितीय अध्यायः - सम्पादक मुनि जितेन्द्र विजय, शाह उमेदचन्द रायचन्द, श्रलब्धसूरीश्वर जैन ग्रन्थमाला, गारी आधार, १९४८ ई॰ ।
23. श्रीसिद्धहेमचन्द्र-शब्दानुशासन-वृहद्वृत्त्यवचूर्णिः - सम्पादक श्रीमच्चन्द्रसागर गणिवर, श्रेष्ठि दे॰ ला॰ जैनपुस्तकोद्धारागार, वड़ेखान् चकला, गोपीपरा, सूरत, १९४८ ई॰ ।
24. व्याकरणमहाभाष्यम् (श्रीभगवत्पतञ्जलिविरचितम्) - सम्पादक - F. Kielhorn, तृतीय संस्करण, तृतीय भाग, भाण्डारकर ओरियेंटल रिसर्च इन्स्टिच्यूट, पुणे, १९७२ ई॰ ।
25. सरस्वतीकण्ठाभरण - वैदिकव्याकरणम् (भोजदेवविरचितम्) - सम्पादक एवं व्याख्याकारः डॉ॰ नारायण म॰ कंसारा, राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान और मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली १९९२ ई॰, पृ॰ २२+४०९, कीमत ४०० रुपये ।
26. माधवीया धातुवृत्तिः, सम्पादक - स्वामी द्वारिका दास शास्त्री, तारा बुक एजेंसी, वाराणसी, १९८७ ई॰ ।
27. वैयाकरण सिद्धान्तकौमुदी, (बालमनोरमा-तत्त्वबोधिनी सहिता), तृतीय भाग, सम्पादक - गिरधर शर्मा एवं परमेश्वरानन्द शर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, १९८२ ई॰ ।

(वेदवाणी, मई १९९५, पृ॰ १६-२४, में प्रकाशित)

Tuesday, March 18, 2008

1. अनिट् प्रकरण

भोजदेवकृत व्याकरणशास्त्र सरस्वतीकण्ठाभरणम् पाणिनि की अष्टाध्यायी का एक विस्तृत संशोधित संस्करण है । इसमें भोजदेव (सं॰ १०७५-१११०) ने कात्यायन, पतञ्जलि, वामन और जयादित्य एवं अन्य लेखकों द्वारा प्रस्तावित सभी सुधारों और संशोधनों को समावेश करने का प्रयत्न किया है । सरस्वतीकण्ठाभरणम् का प्रकाशित एकमात्र सम्पूर्ण संस्करण ति॰रा॰चिन्तामणि द्वारा सम्पादित मद्रास संस्करण १९३७ ई॰ का है । पाण्डुलिपियों के अतिभ्रष्ट होने के कारण इसके सम्पादन में अष्टाध्यायी, वार्तिक, महाभाष्य और काशिकावृत्ति की भी सहायता ली गयी है (पृ॰ ix, प्रस्तावना, मद्रास संस्करण) । तथापि इसमें हजारों अशुद्धियाँ रह गयी हैं । इनमें अधिकतर तो छपाई की अशुद्धियाँ हैं । परन्तु बहुत से ऐसे अशुद्ध सूत्रपाठ हैं, जिनकी शुद्धि के लिए बहुत कुछ शोध की आवश्यकता है । इसके लिए अष्टाध्यायी, महाभाष्य और काशिकावृत्ति के अतिरिक्त व्याकरणशास्त्र पर लिखित अन्य ग्रन्थों जैसे शाकटायन (जैन) व्याकरण, चान्द्रव्याकरण आदि का आश्रय लेना बहुत ही उपयोगी साबित हो सकता है ।

भोजदेव ने सरस्वतीकण्ठाभरणम् की रचना में पाल्यकीर्ति (सं॰ 871-924) कृत शाकटायन व्याकरण का भी बहुत कुछ आश्रय लिया है । सरस्वतीकण्ठाभरणम् के कुछ सूत्रपाठों की शुद्धि में जैन व्याकरण के महत्त्व की विवेचना एक अन्य लेख में की जायेगी । भोजकृत व्याकरण की एक सबसे बड़ी विशेषता है - गणपाठ का सूत्रपाठ में ही समावेश । यही कारण है कि जहाँ अनिट् प्रकरण में अष्टाध्यायी में सूत्र 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्' (७।२।१०) से कई अनिट् धातुओं का समावेश कर लिया गया है, वहाँ सरस्वतीकणठाभरणम् में इन धातुओं का साक्षात् पाठ सूत्रों में ही किया गया है । इसी प्रकार का पाठ शाकटायन व्याकरण में भी है । इन दोनों में अष्टाध्यायी के सूत्र (७।२।१०) से सम्बन्धित सूत्रों का तुलनात्मक अध्ययन ही इस लेख का मुख्य विषय है । प्रकाशित सूत्रपाठों में कहीं-कहीं छपाई की अशुद्धियाँ हैं, जिन्हें इस लेख में ठीक करके लिखा गया है । ये अशुद्धियाँ निम्नलिखित हैं -

सरस्वतीकण्ठाभरणम् (मद्रास संस्करण)

सूत्र संख्या ६।४।१३६ में 'द्' के बदले ‘दृ’ और 'श्रि' के बदले 'श्री' छपा है ।
सूत्र संख्या ६।४।१३९ में - 'स्विदिमनः श्यना' के स्थान पर - 'स्विदिमश्यना' छपा है और सूत्रसंख्या ६।४।१४३ में - 'सखिहतु-' के स्थान पर - 'सखिवहतु-' ।

शाकटायन-व्याकरणम्

सूत्रसंख्या ४।२।१८५ में 'दन्-दृ-लि -' के बदले 'दन्-द्व-लि -' छपा है । परन्तु अमोघवृत्ति में सही पाठ है - 'दन् दृ लि वि स्पृ मृ दि रु क्रु रि इत्येतेभ्यः परो यः शकारस्तदन्तादेकाचो धातोर्विहितस्येडागमो न भवति ।'

कुछ द्रष्टव्य बातें -
1. बुध् धातु का सरस्वतीकण्ठाभरणम् (स॰कं॰) में श्यन् विकरण के साथ पाठ है जबकि शाकटायन व्याकरण (शा॰व्या॰) में सामान्य रूप से । अतः पाल्यकीर्ति के अनुसार सभी गणों का एकाच् बुध् धातु अनिट् है ।
2. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१४० में वस् धातु का शप् विकरण सहित पाठ है । अतः अदादि और दिवादिगण का वस् धातु सेट् है । शा॰व्या॰ में भी अमोघवृत्ति में लिखा है - वसीति वसतेर्ग्रहणम् वस्तेरदादित्वात् । वसिता वस्त्राणाम् ।
3. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१३८ में अदादिगण को छोड़कर बाकी सभी गणों का एकाच् विद् धातु लिया गया है जबकि शा॰व्या॰ में विकरण सहित रुधादिगण और दिवादिगण का, अर्थात् तुदादिगण को छोड़ दिया गया है । मगर अमोघवृत्ति के अनुसार तुदादिगण भी शामिल किया गया है - “विन्द्विद्येति नम्श्यविकरणोपादानं ज्ञानार्थव्युदासार्थम् । वेदिता शास्त्रस्य । विभागेनोपादानं साहचर्य्यार्थं विन्दतेरपि व्युदासार्थम् ।“
4. स॰कं॰ के सूत्र ६।४।१५० में रिह् और लुह् धातु शामिल किये गये हैं, जो दण्डनाथ के अनुसार सौत्र धातु हैं । शा॰व्या॰ में ये धातु शामिल नहीं हैं ।



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सरस्वतीकण्ठाभरणम् शाकटायन-व्याकरणम्
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सूत्रसंख्या सूत्र सूत्रसंख्या सूत्र
६।४।१३६ अच एकाचोऽनूद्-च्छ्वि- ४।२।१७६ शक्-प्रच्छि-विन्द-विद्य-हन्-
श्रि-डीङ्-शीङ्-यु-रु-स्नु- वसि-घस्यचोऽश्वि-श्रि-
नु-क्षु-क्ष्णु-वृङ्-वृञः । शीङ्-डीङ्‌-रु-षट्कोद्-वॄदतः ।
६।४।१३७ शके लृदितः । ४।२।१७६ “ “
६।४।१३८ विदेरलुकः । ४।२।१७६ “ “
६।४।१३९ श्लिषि-पुषि-सिधि-बुधि- ४।२।१८८ स्विद्-मन्-सिधि-श्लिषि-
स्विदि-मनः श्यना । पुषश्श्यात् ।
६।४।१४० हन्-घस्-वस-प्रच्छः । ४।२।१७६ शक्-प्रच्छि-विन्द-विद्य-हन्-
वसि-घस्यचोऽश्वि-श्रि-
शीङ्-डीङ्‌-रु-षट्कोद्-वॄदतः ।
६।४।१४१ प-रि-मु-सि-वि-वाच्चः । ४।२।१७७ मु-रि-सि-वि-प-वाच्चः ।
६।४।१४२ भ्रस्-मस्-भु-रु-स्वं-सं- ४।२।१७८ भ्रस्-मस्-सृ-यु-य-वि-नि-
रं-भं-वि-सृ-त्य-य-यु- त्य-भु-रु-भाज्जः ।
नि-भाज्जः ।
४।२।१७९ र-भ-स-स्वाञ्ञ्जः ।

६।४।१४३ अ-च्छि-स-खि-ह-तु- ४।२।१८० अ-क्षु-नु-तु-स्कं-भि-च्छि-
स्कं-प-नु-भि-क्षु-शाद्दः । खि-श-प-स-हाद्दः ।

६।४।१४४ सा-रा-बं-रु-क्षु-यु-क्रु- ४।२।१८१ बं-रा-सा-यु-बु-क्रु-शु-रु-
शु-व्याद्धः । क्षु-व्याद्धः ।
६।४।१४५ आ-स्व-लि-लु-च्छु-क्षि- ४।२।१८२ आ-व-लि-लु-क्षि-च्छु-सृ-
ति-सृ-त-व-शात्पः । स्व-ति-श-तात्पः ।
६।४।१४६ य-र-लाद्भः । ४।२।१८३ य-र-लाद्भः ।
६।४।१४७ य-र-न-गान्मः । ४।२।१८४ र-य-न-गान्मः ।
६।४।१४८ लि-वि-मृ-दि-स्पृ-दन्- ४।२।१८५ दन्-दृ-लि-वि-स्पृ-मृ-दि-
दृ-रु-क्रु-रेः शः । रु-क्रु-रेः शः ।
६।४।१४९ वि-तु-दु-त्वि-द्वि-शि- ४।२।१८६ शि-शु-द्वि-त्वि-कृ-पि-वि-
शु-कृ-पेः षः । तु-दोष्षः ।
६।४।१५० दि-न-मि-व-द-रु- ४।२।१८७ व-न-मि-दु-रु-दि-
दु-लि-रि-लोर्हः । लि-दाद् हः ।
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सन्दर्भ-

1. सरस्वतीकण्ठाभरणम् - मद्रास संस्करण, १९३७ ई॰ ।

2. सरस्वतीकण्ठाभरणम् - दण्डनाथवृत्तिसहित, चतुर्थ खण्ड, त्रिवेन्द्रम संस्करण, १९४८ ई॰ ।

3. शाकटायन-व्याकरणम् - संपादक पं॰ शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७१ ई॰ ।

4. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, प्रथम भाग - म॰ म॰ पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, १९८४ ई॰ ।

5. व्याकरण चन्द्रोदय, तृतीय खण्ड (अनिट् कारिकाः) - पं॰ चारुदेव शास्त्री, मोतीलाल बनारसीदास, १९७१ ई॰ ।
(वेदवाणी, जुलाई १९९३, पृ॰ २५-२७, में प्रकाशित)
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अष्टाध्यायी सूत्र 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तात्' (७।२।१०) के सन्दर्भ में शाकटायन-व्याकरण और सरस्वतीकण्ठाभरण इन दोनों के उपजीव्य कातन्त्रव्याकरण और चान्द्रव्याकरण हैं , जबकि इन अन्तिम दोनों के सूत्र का मुख्य स्रोत व्याकरण-महाभाष्य है ।

कातन्त्रव्याकरण में संगत सूत्र

॥३.७.१३॥ अनिडेकस्वरादातः ।
॥३.७.१४॥ इवर्णादश्विश्रिडीङ्-शीङः ।
॥३.७.१५॥ उतोऽयुरुनुस्नुक्षुक्ष्णुवः ।
॥३.७.१६॥ ऋतोऽवृङ्-वृञः ।
॥३.७.१७॥ शकेः कात् ।
॥३.७.१८॥ पचि-वचि-सिचि-रिचि-मुचेश्चात् ।
॥३.७.१९॥ प्रच्छेश्छात् ।
॥३.७.२३॥ हन-मन्यतेर्नात् ।
॥३.७.२५॥ यभ-रभि-लभेर्भात् ।
॥३.७.२६॥ यमि-रमि-नमि-गमेर्मात् ।
॥३.७.२९॥ वसति-घसेः सात् ।
॥३.७.३०॥ दहि-दिहि-दुहि-मिहि-रिहि-रुहि-लिहि-लुहि-नहि-वहेर्हात् ।

चान्द्रव्याकरण में संगत सूत्र

॥५।४।१३०॥ एकाचोऽश्वि-श्रि-डी-शीङ्-य्वादिषट्कात् ।
॥५।४।१३१॥ सिधि-बुधि-स्विदि-मनि-पुष-श्लिषः श्यना ।
॥५।४।१३२॥ वेदेरलुकः ।
॥५।४।१३३॥ य-र-लाद्‌भः ।
॥५।४।१३४॥ य-न-र-गान्मः ।
॥५।४।१३५॥ शकादिभ्यः ।