Monday, July 14, 2008

2. वष्टि भागुरिरल्लोपम्

सन् 1989 में जब मैंने पहली बार यह श्लोक (सन्दर्भ 1, पृष्ठ 104)
"वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥"
देखा तो मुझे लगभग 20 साल पहले की घटना तरोताजा हो गयी । उस वक्त मैं शायद आठवीं कक्षा का छात्र था । छमाही परीक्षा के हिन्दी-पत्र में कुछ शब्दों के विपरीतार्थक शब्द लिखने थे । इन शब्दों में ही एक शब्द था - 'भिज्ञ' । मैंने इसका विपरीतार्थक शब्द लिखा - 'अभिज्ञ' । शिक्षक महोदय ने जब उत्तरपत्रिका को जाँचने के बाद मुझे दिखाया तो इस शब्द के आगे क्रॉस चिह्न अर्थात् गलत मार्क किया हुआ पाकर मुझे आश्चर्य हुआ । पूछने पर शिक्षक महोदय ने बताया - 'अभिज्ञ' का वही अर्थ है जो 'भिज्ञ' का है ।

उपर्युक्त प्रथम श्लोकार्द्ध का अर्थ

क्रियाकोश 'आख्यातचन्द्रिका'[१] के रचयिता [२] द्वारा इच्छा अर्थ में दी गई २० क्रियाओं में 'वष्टि' भी एक है (सन्दर्भ २, अध्याय १, पृष्ठ ६) -
"लषते लष्यति लषत्याशास्ते माङ्क्षतीप्सति ।
आकाङ्क्षति स्पृहयति नाथते वष्टि वाञ्छति ॥५७॥
आशंसते कामयते लष्यते वाङ्क्षतीच्छति ।
लिप्सते हर्यतीच्छायां खटत्यप्यनुरुध्यते ॥५८॥"

अतः 'वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः' का अर्थ है - "आचार्य भागुरि 'अव' और 'अपि' उपसर्गों का अल्लोप (=अत्+लोप) अर्थात् अकार का लोप चाहते हैं ।" 'तपरस्तत्कालस्य' (अष्टा॰ १।१।७०) से 'अत्' सिर्फ 'अकार' को ही निरूपित करता है । 'अव' उपसर्ग में दो अकार हैं - एक आदि का अकार और दूसरा वकार के बाद का, किन्तु 'अपि' उपसर्ग में सिर्फ आदि में ही अकार है । 'अव' और 'अपि' दोनों के लिए अल्लोप की समान उक्ति होने से आदि अकार का लोप ही विवक्षित है । इसके बारे में वासुदेव दीक्षित भी लिखते हैं - "अवेत्युपसर्गे आदेरेवाकारस्य लोपो नान्त्यस्य, अपिना साहचर्यात् ।" (बालमनोरमाटीका, सन्दर्भ ३, भाग १, पृष्ठ ४९२) । नागेश भट्ट का भी मत है - "अपिसाहचर्यादवेऽप्यादेरकारस्यैव लोपः" (सन्दर्भ ४, पृष्ठ ३६३) ।

अल्लोप सम्बन्धी भागुरि-मत के उद्धरण

भागुरि का काल पाणिनि से पूर्ववर्ती है (सन्दर्भ १, पृष्ठ १०४-१०६) । पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में दश प्राचीन व्याकरण प्रवक्ता आचार्यों का उल्लेख किया है, किन्तु उनमें भागुरि का नाम नहीं है । महाभाष्य में भी उपर्युक्त भागुरि-मत का उद्धरण नहीं मिलता - द्रष्टव्य - सिद्धान्तकौमुदी की वासुदेव दीक्षितकृत बालमनोरमा व्याख्या - 'वष्टि भागुरिरिति श्लोको भाष्ये न दृश्यते ।' (सन्दर्भ ३, भाग १, पृष्ठ ४३९) । नागेश भट्टकृत लघुशब्देन्दुशेखर व्याख्या में भी यही कथन मिलता है - 'इदं भाष्ये न दृश्यते ।' (सन्दर्भ ४, पृष्ठ ३६३) ।

१. अल्लोप सम्बन्धी उपर्युक्त भागुरि-मत सर्वप्रथम जिनेन्द्रबुद्धि (सन् ७०० ई॰ के लगभग) कृत काशिकावृत्ति 'न्यास' में मिलता है - देखें पाणिनिसूत्र 'कार्तकौजपादयश्च' (६।२।३७) के अन्तर्गत 'तण्डवतण्डाः' की व्याख्या-
"पचाद्यच्प्रत्ययान्ताविति । 'तडि' ताडने इत्यस्मात् केवलादवपूर्वाच्च पचाद्यच् । वष्टि-भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयो,' इत्यवशब्दाकारस्य लोपः ।" (सन्दर्भ ५, पञ्चम भाग, पृष्ठ ४१) ।

२. अल्लोप सम्बन्धी भागुरि-मत का उल्लेख भोजदेव (राज्यकाल १०१८-१०५३ ई॰) कृत शृङ्गारप्रकाश के प्रथम प्रकाश (सन्दर्भ ६, पृष्ठ १४) में भी पाया जाता है –
वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
हितादिषु समो म्लोपं पाठं चात्र श्रदन्तरोः ।
.........अवगतवान् कोटं वकोटः, अपिहितः कायतीति पिकः................ अवधत्ते,........... अपिदधाति,..........एवं वधत्ते, .........अपिनह्यति, ...............एवं वतंसः, पिनद्धवान् ...............।"

३. अमरकोष की क्षीरस्वामी (१०५३ ई॰ से पूर्व) द्वारा रचित 'अमरकोशोद्‍घाटनम्' नामक टीका में भी भागुरि-मत का उल्लेख प्राप्त होता है । [सन्दर्भ ७, पृष्ठ १३२, 'पिनद्धश्चापिनद्धवत्' (२।८।६६) की व्याख्या] -
"अपिनह्यते स्मापिनद्धः । (पिनद्धः) वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः (का) इति पक्षेऽल्लोपः ।"
'अपिधान-तिरोधान-पिधानाच्छादनानि च' (अमर॰ १।२।१३) में 'विधान' की व्याख्या में भी भागुरि-मत प्राप्त होता है - देखें पृष्ठ १६ ।

४. काशिकावृत्ति की हरदत्तमिश्र (१०५८ ई॰ के लगभग) कृत पदमञ्जरी व्याख्या में भी भागुरि-मत का उल्लेख, सूत्र 'कार्तकौजपादयश्च' (६।२।३७) के अन्तर्गत 'तण्डवतण्डाः' की व्याख्या में मिलता है (सन्दर्भ ५, पञ्चम भाग, पृष्ठ ४१) –
"'तडि ताडने' तण्डः, तस्मादेवावपूर्वाद्वतण्डः, 'वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः' इत्य-कारलोपः ।"

५. अष्टाध्यायी पर धर्मकीर्ति (१०८३ ई॰ के लगभग) कृत प्रक्रिया-ग्रन्थ 'रूपावतार' के अव्ययावतार अर्थात् अव्यय प्रकरण में भागुरि-मत का उपर्युक्त श्लोक मिलता है (सन्दर्भ ८, भाग १, पृष्ठ १३१) "वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
आपञ्चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥
इति अवगाहः वगाहः, अपिधानम् पिधानम् ॥"

६. सुधाकर [३] नामक वैयाकरण के मत का उल्लेख सायणकृत 'माधवीया धातुवृत्तिः' में धातु 'षस षस्ति स्वप्ने' के अन्तर्गत प्राप्त होता है, जिसमें अल्लोप सम्बन्धी भागुरि-मत भी शामिल है । (सन्दर्भ ९, पृष्ठ ३८२)-
अत्र सुधाकरः-"'षस षसने', 'वश कान्तौ' छान्दसौ 'जक्षित्यादयष्षट्' इत्यत्र भाष्यादेवावधृतौ । 'वष्टि भागुरिरल्लोपम्' इति दुर्लभः प्रयोगः" इति ॥

७. सर्वानन्द (११५६ ई॰) के अमरटीकासर्वस्व में भी भागुरि-मत का उल्लेख मिलता है । (सन्दर्भ १०, भाग १, पृष्ठ ५३) [४]
"टापं चापि हलन्तानां दिशा वाचा गिरा क्षुधा ।
वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ॥"

८. जयमङ्गल (११७२ ई॰ के पूर्व) नामक वैयाकरण ने भट्टिकाव्य के श्लोक (३।४।७) के अन्तर्गत 'पिनह्य' शब्द की विवेचना करते समय भागुरि-मत को उद्धृत किया है (सन्दर्भ ११, पृष्ठ २१७)-
अपिशब्दादकारलोपस्तु -
"वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
धाञ् कृञोस्तनिनह्योश्च बहुलत्वेन शौनकिः ॥ इति ।"

९. संस्कृत काव्यों के प्रसिद्ध टीकाकार कोलाचल मल्लिनाथ सूरि (१२०७ ई॰ के पूर्व) ने भागुरि-मत का बहुधा उल्लेख किया है । उदाहरणस्वरूप निम्नलिखित स्थल द्रष्टव्य हैं –
प्यधुः (शिशु॰ ५।४)
पिदधे (शिशु॰ २०।१३)
पिधान (शिशु॰ ८।५०)
प्यधित (नैषध॰ ४।११)
वतंसकुसुमैः (शिशु॰ १०।६७)
वतंस (नैषध॰ ९।१४४)
अपिहित (शिशु॰ १६।११)
पिधांदधद् (नैषध॰ १८।६३)

१०. सायण (१३१५-१३८७ ई॰) कृत 'माधवीया धातुवृत्ति' में 'इण् गतौ' के अन्तर्गत भागुरि-मत का उल्लेख मिलता है (सन्दर्भ ९, पृष्ठ ३५२) -
'अथ वा न धर्ममसुबोधसमयमवगत बालिशाः' इति माघप्रयोगो 'वष्टि भागुरिरल्लोपम-वाप्योरुपसर्गयोः' इत्यवशब्दान्तलोपे द्रष्टव्यः ।

११. रामचन्द्र (१४०० ई॰ के लगभग) कृत प्रक्रियाकौमुदी में पाणिनिसूत्र 'अव्ययादप्-सुपः' (२।४।८२) की व्याख्या के प्रसङ्ग में भागुरि-मत का पूर्वोक्त श्लोक प्राप्त होता है (सन्दर्भ १२, भाग १, पृष्ठ ३१७)-

१२. रायमुकुट (१४३१ ई॰) की पदचन्द्रिका नाम्नी अमरकोष टीका में कई स्थलों पर अल्लोप सम्बन्धी भागुरि-मत का उल्लेख प्राप्त होता है (सन्दर्भ १३)-देखें
भाग १: पृष्ठ १०६, १८३ पर क्रमशः 'पिधान' और 'अवक्ष' शब्द की विवेचना ।
भाग १: पृष्ठ ३०२, ३८४, ३९९, ६०५ पर क्रमशः 'पिक', 'पिप्लु', 'पित्तम्' और 'पिनद्ध' की विवेचना ।

१३. भट्टोजि दीक्षित (१५३५-१६२५ ई॰ के बीच) कृत वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी के अव्ययप्रकरण में भी रूपावतार एवं प्रक्रियाकौमुदी जैसा ही उद्धरण भागुरि-मत के बारे में प्राप्त होता है (सन्दर्भ ३, भाग१, पृष्ठ ४९२)-
"'वष्टि भागुरिरल्लोपमवाप्योरुपसर्गयोः ।
आपं चैव हलन्तानां यथा वाचा निशा दिशा ॥'
वगाहः-अवगाहः । पिधानम्-अपिधानम् ॥"

१४. भट्टोजि दीक्षित के पुत्र भानुजि दीक्षित कृत 'रामाश्रमी' (व्याख्यासुधा) नाम्नी अमरकोष की व्याख्या में कई स्थलों पर भागुरि का अल्लोप सम्बन्धी मत प्राप्त होता है (सन्दर्भ १४) - देखें -
'पिधान' (१।३।१३), 'वलक्ष' (१।५।१३), 'पिक' (२।५।१९), 'पिप्लु' (२।६।४९), 'पित्तम्' (२।६।६२), 'पिचण्ड' (२।६।७७), 'पिनद्ध' (२।८।६५), 'पिपीलिका' (३।५।८), 'पिचण्ड' (३।५।१८) की व्याख्या ।

व्याकरणान्तर में 'अव' और 'अपि' के अल्लोप सम्बन्धी सूत्र

१. पाणिनि से पूर्व शौनकि आचार्य का मत - पाणिनि से पूर्ववर्ती किन्तु भागुरि से परवर्ती आचार्य शौनकि का निम्नलिखित श्लोकात्मक सूत्र (सन्दर्भ ११, पृष्ठ २१७) प्राप्त होता है-
'धाञ् कृञोस्तनिनह्योश्च बहुलत्वेन शौनकिः ।'
अर्थात - धाञ् कृञ्५ तन् नह् धातु के परे रहने पर 'अपि' और 'अव' उपसर्ग के अकार का लोप बहुल करके होता है, शौनकि आचार्य के मत में ।

'अव' और 'अपि' उपसर्गों के अल्लोप से सम्बन्धित कोई भी सूत्र अष्टाध्यायी, कातन्त्र, चान्द्रव्याकरण और जनेन्द्र व्याकरण में प्राप्त नहीं होता । किन्तु (जैन) शाकटायन व्याकरण, सरस्वतीकण्ठाभरण, हैमशब्दानुशासन और मलयगिरि-व्याकरण में तत्सम्बन्धी सूत्र प्राप्त होते हैं । ये सूत्र वृत्ति सहित नीचे दिये जाते हैं ।

२. पाल्यकीर्ति (८१४-८६७ ई॰) कृत शाकटायन व्याकरणम् (सन्दर्भ १५)
क्रीञ्तन्यवस्यादेर्लुग्बहुलम् (४।२।२०९)-(अमोघावृत्तिः) अव इत्येतस्योपसर्गस्य क्रीञ् तन्योर्धात्वोः परयोरादेर्बहुलं लुग्भवति । वक्रयः । अवक्रयः । तनुषु वक्रयगेहवदस्पृहाः । वतंसः । अवतंसः । वतंसयन्ति सहकारमञ्जरीम् । बहुलग्रहणं किम् ? प्रयोगानुसरणार्थम् ।
धाञ् नह्यपेः (४।२।२१०)-(अमोघावृत्तिः) अपि इत्येतस्योपसर्गस्य धाञ्नह्योर्धात्वोः परत आदेबहुलं लुग्भवति । पिहितम् । अपिहितम् । क्व संहताभ्यां पिहितं स्तनाभ्याम् । पिनद्धम् । अपिनद्धम् । पिनद्धरत्नाङ्गदकोटिरेषः ।

३. भोजदेव (१०१८-१०५३) कृत सरस्वतीकण्ठाभरणम् (सन्दर्भ १६)
अवाप्योस्तंसनद्धादिष्वादेर्वा (६।२।१४९) - (दण्डनाथवृत्तिः) तंसादिषु चोत्तरपदेषु परतः यथा संख्यमवाप्योरादिलोपो वा भवति । वतंसः अवतंसः । वक्रयः अवक्रयः । पिनद्धम् अपिनद्धम् । पिहितम् अपिहितम् । पिधानम् अपिधानम ॥

४. हेमचन्द्र (१०८८-११७२ ई॰) कृत श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् (सन्दर्भ १७)
वावाप्योस्तनि क्री धाग्नहोर्वपी (३।२।१५६)-(बृहद्वृत्तिः) अवशब्दस्योपसर्गस्य तनिक्रीणात्योः परयोरपि शब्दस्य च धाग्नहोः परयोर्यथासंख्यं व पि इत्येतावादेशौ वा भवतः । वतंसः । अवतंसः । वक्रयः । अवक्रयः । पिहितम् । अपिहितॄॄ । पिधानम् । अपिधानम् । पिदधाति । अपिदधाति । पिनद्धम् । अपिनद्धम् । धातुनियमं नेच्छन्त्येके ।

५. मलयगिरि (११३१-११९३ ई॰) कृत शब्दानुशासनम् (सन्दर्भ १८)
लुग् बहुलं क्रीञ्-तनि अवस्य (आख्यात ५।९०) - (स्वोपज्ञवृत्तिः) क्रीञ् तनोः परयोः 'अव' शब्दस्य आदेः लुग् बहुलं भवति । वक्रयः, अवक्रयः । वतंसः, अवतंसः । 'बहुल' ग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् ॥ धाञ्-नहि अपेः (आख्यात ५।९१)-(स्वोपज्ञहृत्तिः) धाञ् नहोः परयोः अपेः आदेः लुग् बहुलं भवति । पिहितम्, अपिहितम् । पिनद्धम्, अपिनद्धम् ॥

'अव' और 'अपि' के अल्लोप पर एक ऐतिहासिक दृष्टि

वैदिक काल से प्रारम्भ करके सूत्रकाल, रामायण-महाभारत काल और महाकाव्य काल की तरफ जैसे-जैसे हम बढ़ते हैं, 'अव' और 'अपि' उपसर्गों के अल्लोप के उदाहरण उत्तरोत्तर अधिक संख्या में मिलते हैं ।

१. वैदिक संहिताओं में इन उपसर्गों के अल्लोप का एक भी उदाहरण प्राप्त नहीं होता । (सन्दर्भ १९)

२. वैदिक ग्रन्थों के ब्राह्मण भाग में सिर्फ 'अपि' के अल्लोप का एक ही रूप 'पिहित्यै' मिलता है और वह भी सिर्फ ताण्ड्य ब्राह्मण में (द्रष्टव्य तां॰ ब्रा॰ १८।५।४;६;८;९;११) -
"यत्तीव्रसोमेन यजते पिहित्या एवाऽच्छिद्रतायै ॥" (सन्दर्भ २०)

३. आरण्यक भाग में भी सिर्फ 'अपि' के अल्लोप का एकमात्र उदाहरण शाङ्खायन आरण्यक में 'पिहिता' शब्द मिलता है जो एक ही वाक्य में दो बार आया है (सन्दर्भ २१, पृ॰ ५७) –
"अथ खल्वियं..... । तद् यथा हैवेयं रोमशेन चर्मगा पिहिता भवत्येवम् एवासौ रोमशेन चर्मणा पिहिता भवति । रोमशेन हस्म चर्मणा पुरा वीणा अपिदधति ।" (शां॰ आ॰ ८।९)

४. उपनिषद् भाग में सिर्फ 'अपि' के अल्लोप के निम्नलिखित उदाहरण मिलते हैं (सन्दर्भ १९, उपनिषद् भाग)-
पिधापयेत् (शि॰ ७।३६) पिधाय (अना॰ २०; नाप॰ ६।१; वरा॰ ५।२३)
पिहितः (तै॰ १।४।१; मै॰ ५।८; मैत्रि॰ ६।८) पिहितम् (वरा॰ ५।३०)

५. (क) वेदाङ्गसूत्र भाग में 'धा' और 'नह्' इन दो धातुओं से 'अपि' के अल्लोप के निम्नलिखित उदाहरण मिलते हैं (सन्दर्भ १९, वेदाङ्ग सूत्र भाग)-
पिदधामि् पिदध्यात्, पिधान, पिधानम्, पिधानात्, पिधाने, पिधानार्थम्, पिधाय, पिहितः, पिहिताननम्, पिनद्ध, पिनह्य । इनमें 'पिधान' और 'पिनद्ध' शब्द पाणिनि के गणपाठ में मिलते हैं - देखें 'पिधान' के लिए 'अर्धर्चादिगण' (२।४।३१) और 'पिनद्ध' के लिए 'वराहादिगण' (४।२।८०) [सन्दर्भ ३, भाग ४, पृ॰ ६४६, पंक्ति ७; पृ॰ ६५७, पं॰ ७; सन्दर्भ २२, पृ॰ ३४५] ।

(ख) 'अव' के अल्लोप का एकमात्र उदाहरण 'वतण्ड' अष्टाध्यायी के सूत्र और गणपाठ में मिलता है - वतण्डाच्च (४।१।१०८)
शार्ङ्गरवादिगण (४।१।७३), गर्गादिगण (४।१।१०५), शिवादिगण (४।१।११२), कार्तकौजपादिगण (६।२।३७), लोहितादिगण (४।१।१८) । गणपाठ में 'वतण्ड' शब्द के लिए देखें - सन्दर्भ ३, भाग ४, पृष्ठ ६५०, पं॰ २२; पृष्ठ ६५२, पं॰ ९; पृष्ठ ६५२, पं॰ २७; पृष्ठ ६६९, पं॰ १५; सन्दर्भ २२, पृष्ठ ४७८ । लोहितादिगण, गर्गादिगण के अन्दर ही आता है ।

(ग) वेदाङ्गसूत्र भाग में 'अधि' उपसर्ग के अल्लोप का भी एक उदाहरण 'धिष्ठितम्' (विध॰ ९७।२०) मिलता है । समान प्रकरण में गीता के श्लोक (१३।१७) में 'धिष्ठितम्' के बदले 'विष्टितम्' शब्द मिलता है ।
वैदिक ग्रन्थों में उपलब्ध 'अपि' उपसर्ग से 'धा' और 'नह्' धातुओं के कुल रूपों और प्रयोगों की संख्या तालिका संख्या १ में दी गई है ।

६. (क) रामायण और महाभारत (गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित) में 'धा' और 'नह्' इन दोनों धातुओं से 'अपि' के अल्लोप के उदाहरण मिलते हैं जिनमें कुछ नीचे दिये जाते हैं ।
रामायण - पिहित (अयोध्या॰ २८।३; ४८।३७; ५७।१६; ९९।३९), पिधाय (अरण्य॰ ५५।३३; किष्किन्धा॰ ९।१९; युद्ध॰ ७६।५३), पिहितम् (किष्किन्धा॰ १०।२२; ५५।४), पिहिते (युद्ध॰ ७६।५२), पिनद्धाम् (सुन्दर॰ १५।२०) ।
महाभारत - पिनद्ध (आदि॰ १८४।२२; विराट॰ २।२७), पिहित (सभा॰ ४७।११), पिधाय (सभा॰ ८०।१२; वन॰ ४६।३६; २७८।३०, ३७; आश्वमे॰, पृष्ठ ६३५५), पिदधुः (वन॰ १६९।११; उद्योग॰ १२९।३२) सपिधानम् (विराट्॰ १५।१६), पिहिताः (विराट्॰ ४६।१८) ।

(ख) समान प्रसङ्ग में 'अपि' उपसर्ग के अल्लोप के पक्ष और विपक्ष दोनों में रामायण और महाभारत से एक-एक उदाहरण पूर्ण श्लोक सहित नीचे दिया जाता है ।
अहं त्ववगतो बुद्ध्या चिन्हस्तैर्भ्रातर हतम् ।
पिधाय च बिलद्वारं शिलया गिरिमात्रया ॥ रामा॰ (कि॰ ९।१९)
अपिधाय बिलद्वारं शैलशृङ्गेण तत् तदा ॥
तस्माद् देशादपाक्रम्य किष्किन्धां प्राविशं पुनः । रामा॰ (कि॰ १०।५, ६)
यहाँ 'पिधाय' और 'अपिधाय' दोनों का एक ही अर्थ 'बन्द करके' है ।
न मां मनुष्याः पश्यन्ति न मां पश्यन्ति देवताः ।
पापेनापिहितः पापः पापमेवाभिजायते ॥
यथा वार्धुषिको वृद्धिं दिनभेदे प्रतीक्षते ।
धर्मेण पिहितं पापं धर्ममेवाभिवर्धयेत् ॥ महा॰ (अनु॰ १६२।५५, ५६)
यहाँ 'अपिहित' और 'पिहित' दोनों का समान अर्थ है ।

(ग) अब 'अपि' के अल्लोप का एक उदाहरण ऐसा दिया जाता है जो रामायण और महाभारत में लगभग समान रूप में पाया जाता है -
मन्दप्रख्यायमानेन रूपेण रुचिरप्रभाम् ।
पिनद्धां धूमजालेन शिखामिव विभावसोः ॥ रामा॰ (सुन्दर १५।२०)
मन्दप्रख्यायमानेन रूपेणाप्रतिमेन ताम् ।
पिनद्धां धूमजालेन प्रभामिव विभावसोः ॥ महा॰ (वन॰ ६५।७) पूना संस्करण
गीताप्रेस संस्करण के महाभारत (वन॰ ६८।९) में 'पिनद्धां' के बदले 'निबद्धां' पाठ है । 'नह्' धातु से 'अपि' उपसर्ग के अल्लोप के विपक्ष में एक उदाहरण 'अपिनद्धानि' मिलता हैं
अभिजानामि पुष्पाणि तानीमानीह लक्ष्मण ॥
अपिनद्धानि वैदेह्या मया दत्तानि कानने । रामा॰ (अरण्य॰ ६४।२६, २७)

(घ) महाभारत में 'स्था' धातु से 'अधि' उपसर्ग के अल्लोप का उदाहरण 'धिष्ठित' शब्द बहुतायत में पाया जाता है । सभी पर्वों में कुल मिलाकर २५ बार 'धिष्ठित' शब्द आया है । ये सभी प्रसङ्ग नीचे दिये जाते हैं (देखें गीताप्रेस संस्करण, हिन्दी टीका सहित, ६ खण्डों में) -
धिष्ठितः (आदि॰ २२७।४२; द्रोण॰ १४६।४३; कर्ण॰ २४।४२; सौप्तिक २।१७; अनु॰ १४।२७४, १४।४०३) - पृष्ठ ६५०, ३५२३, ३८२१, ४३२८, ५४९७, ५५०५ ।
धिष्ठिता (उद्योग॰ १८६।२२) - पृ॰ २५२४
धिष्ठितम् (आदि॰ २।२९८; ८८।९; द्रोण॰ १००।३५; कर्ण॰ ५५।५; शल्य॰ १०।७; शान्ति २८१।७; अनु॰ १२।४०; १४।२४३; १४।४०३) - पृष्ठ ४०, २६९, ३३६२, ३९३५, ४१३८, ५१५३, ५४६६, ५४९५, ५५०५ ।
धिष्ठितौ (वन॰ १८५।२०; २३१।४७; शान्ति॰ ३३४।१९) - पृष्ठ १४७२, १६१२, ५३३१ ।
धिष्ठिताः (वन॰ २९।४१; कर्ण॰ ७९।४६; शान्ति॰ १५३।१७; १५३।९४) - पृष्ठ १०२७, ४०३०, ४८१८, ४८२३ ।
धिष्ठिताम् (आदि॰ ६९।२४) - पृष्ठ २०५
धिष्ठितानाम् (आदि॰ ५३।१३) - पृष्ठ १५०
वी॰ एस्॰ आप्टे के Practical Sanskrit English Dictionary में महाभारत के वन पर्व से उद्धृत निम्नलिखित श्लोकों में 'धिष्ठित' शब्द मिलता है (सन्दर्भ २३, पृष्ठ ८६२), जबकि गीताप्रेस संस्करण में 'विष्ठित' शब्द प्राप्त होता है -
शाल्वो वैहायसं चापि तत्पुरं व्यूह्य धिष्ठितः (महा॰ ३।१५।३)
उदक्रोशन् महाराज धिष्ठिते मयि भारत (३।२२।४)

(ङ) 'अधि' उपसर्ग के अल्लोप का एक भी उदाहरण हमें गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित रामायण (हिन्दी टीका सहित) में नहीं मिला । परन्तु 'विष्ठित' शब्द कई स्थलों पर पाया जाता है, जिनमें कुछ नीचे दिये जाते हैं ।
विष्ठितः (सुन्दर ४६।३०; उत्तर॰ १६।३५; २३।४५; ७७।१०) - पृष्ठ ९८३, १४९५, १५१४, १६२८
विष्ठिता (अयो॰ ५८।३४) - पृष्ठ ३४८
विष्ठितम् (युद्ध॰ ८५।३२; उत्तर॰ २५।३; ३१।१८) - पृष्ठ १२२३, १५१७, १५३७
विष्ठिताः (बाल॰ ३५।११; ४३।१९; उत्तर १।७) - पृ॰ १०१, ११५, १४५३
विष्ठितान् (अयो॰ १६।३) - पृष्ठ २३२
अधिकतर स्थलों में 'विष्ठित' का एक पाठभेद 'धिष्ठित' भी रामायण की कई पाण्डुलिपियों में पाया जाता है । उदाहरण के लिए देखें निम्न स्थलों में ओरियेंटल इन्स्टिच्यूट, बड़ौदा से प्रकाशित रामायण का Critical Edition -
देवास्तत्र विष्ठिताः (बाल॰ ४२।९), पृष्ठ २४५-४६
विष्ठितो विमलेऽम्बरे (सुन्दर॰ ४४।२८), पृ॰ ३१६
विष्ठिताः प्रतिहारार्थं (उत्तर॰ १।६), पृ॰ ४
तेषामुपरि विष्ठितः (उत्तर॰ २३।३८), पृ॰ १५२
ददर्श विष्ठितं यज्ञं (उत्तर॰ २५।३), पृष्ठ १६३
वमन्तमिव विष्ठितम् (उत्तर॰ ३१।१६), पृष्ठ २१४
विष्ठितोऽस्मि सरस्तीरे (उत्तर॰ ६८।९), पृष्ठ ३९५

७. (क) स्मृति और पुराणों से 'धा' एवं 'नह्' धातुओं से 'अपि' उपसर्ग के अल्लोप के उदाहरण नीचे दिये जाते हैं । स्मृतियों में मनुस्मृति, पराशरस्मृति, नारद स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति एवं बृहस्पतिस्मृति और पुराणों में विष्णु पुराण, मार्कण्डेय पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण एवं अग्नि पुराण - इन्हीं ग्रन्थों का हमने अवलोकन किया है । इनमें 'गाह्' एवं 'क्री' धातुओं से 'अव' उपसर्ग के अल्लोप का उदाहरण नहीं मिला । 'वतंस' या 'अवतंस' शब्द भी नहीं मिला (संक्षिप्त शब्द - अ॰ पु॰ = अग्नि पुराण, भा॰ = श्रीमद्‍भागवत पुराण, मा॰ पु॰ = मार्कण्डेय पुराण, म॰ स्मृ॰ = मनुस्मृति) ।
पिधते (भा॰ १०।३७।२९; १०।८९।५२)
पिधाय (अ॰ पु॰ ८०।१०, ८१।६७, ९७।२९, २१४।२२; मा॰ पु॰ ३५।२८; भा॰ २।७।२९, ४।४।१७, १०।३०।२३, १०।७४।३९)
पिधान (अ॰ पु॰ ८१।६४) पिधातव्यौ (म॰ स्मृ॰ २।२००) पिधीयते (मा॰ पु॰ ३५।२९)
पिहित (भा॰ ११।३०।३८) पिहितः (भा॰ १०।६३।३९) पिहिता (भा॰ ११।४।१९)
पिहितान् (भा॰ २।७।३१) पिनद्धः (मा॰ पु॰ २३।१५) पिनद्धम् (भा॰ ११।८।३३)

(ख) 'स्था' धातु से 'अधि' उपसर्ग के अल्लोप का उदाहरण 'धिष्ठित' शब्द अग्नि पुराण (सन्दर्भ २४) और श्रीमद्‍भागवत पुराण (सन्दर्भ २५) में भी मिलता है ।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम् ॥ (अ॰पु॰ ३८१।५१), पृष्ठ ५५७
गीता के श्लोक (१३।१७) में यही पाठ है, किन्तु वहाँ 'धिष्ठितम्' के बदले 'विष्ठितम्' शब्द प्राप्त होता है । देखें अनुच्छेद ५ (ग) भी ।
हृदि हृदि धिष्ठितम् (भा॰ १।९।४२), पृष्ठ ४९
न्यदहन्काष्ठ धिष्ठितम् (भा॰ १०।७।३३), पृष्ठ ५३१
अथ तं बालकं वीक्ष्य नेत्राभ्यां धिष्ठितं हृदि (भा॰ १२।९।३२), पृष्ठ ८३२

८. (क) अनार्ष साहित्य में साधारणतः 'तन्', 'गाह्' और 'क्री' धातुओं के 'अव' उपसर्ग और 'धा' एवं 'नह्' धातुओं से 'अपि' उपसर्ग के आदि अकार के लोप के उदाहरण पाये जाते हैं । इनमें से कुछ नीचे दिए जाते हैं ।
वतंस (शिशु॰ १०।६७, नैषध॰ ९।१४४, ११।८८)
वगाह्य (कु॰ १।१, रघु॰ १४।७६)
वक्रये (शाक॰ व्या॰ ३।२।५१); तुलना कीजिये - अवक्रये (हैम॰ ६।४।५३)
अवक्रयः (अष्टा॰ ४।४।५०)

पिहित (रघु॰ १।८०; शिशु॰ २०।१५) पिधाय (नैषध॰ १८।८२)
पिदधानम् (शिशु॰ ९।७६) पिधध्वम् (भट्टि॰ ७।६९) पिनह्य (भट्टि॰ ३।४७)
पिनद्धम् (शाकु॰ १।१९) अतिपिनद्धेन वल्कलेन (शाकु॰ १।१८ के बाद)

(ख) 'अपि' उपसर्ग के अल्लोप का एक मनोरञ्जक उदाहरण 'अपिहित' माघकृत शिशुपाल वधम् में मिलता है (सन्दर्भ २६, पृष्ठ ७२७) -
सकलापिहित स्वपौरुषो नियतव्यापदवर्धितोदयः ।
रिपुरुन्नत धीरचेतसः सततव्याधिरनीतिरस्तु ते ॥ (शिशु॰ १६।११)
यहाँ 'अपिहित' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक पक्ष में 'अपिहित' (= अपि+हित) का अर्थ हैं - 'तिरस्कृत' । दूसरे पक्ष में 'अपिहित' (=अ+पिहित) का अर्थ है - 'अतिरस्कृत' । इस दूसरे अर्थ में 'पिहित' शब्द, जो 'अपि' उपसर्ग के अकारलोप से प्राप्त होता है, में 'अ' उपसर्ग नकारात्मक अर्थ में लगाया गया है । 'शिशुपालवधम्' के श्लोक (१६।२) से (१६।१५) तक में शिशुपाल की तरफ से भेजे गये दूत के द्वारा श्रीकृष्ण भगवान् के समीप जाकर सभा में भिन्न अर्थयुक्त वचन कहने का वर्णन है । इन चौदहों श्लोकों में से प्रत्येक श्लोक से प्रिय और अप्रिय दोनों ही अर्थ निकलते हैं ।

९. श्री मृणाल कान्ति नाथ ने दो ऐसे उपसर्गों की चर्चा की है जिन्हें आज तक उपसर्ग के अन्तर्गत नहीं गिना गया है और न वैयाकरणों का ध्यान इस तरफ गया है । ये दो उपसर्ग हैं - 'अद्' और 'द्' (सन्दर्भ २७, पृष्ठ २१५-२१६) । अद् उपसर्ग का प्रयोग सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में सिर्फ 'अद्‍भुत' शब्द में मिलता है जबकि द् उपसर्ग का प्रयोग एकमात्र धातु 'त्सर्' (जो 'सर्' धातु में 'द्' उपसर्ग लगाने से बना है) में एवं इससे बने अन्य धातुरूपों और संज्ञारूपों में (पृष्ठ २१६-२१७) । अगर 'द्' को उपसर्ग मान लिया जाय तो लिट् प्रथम पुरुष एकवचन का रूप 'तत्सार' के बदले 'त्ससार' होगा ।

मृणाल जी के मत में 'द्' उपसर्ग 'अद्' उपसर्ग के अल्लोप से बना है - "The zero grade of ad upsarga is d." (पृष्ठ २१७, पं॰ १) ।

यद्यपि व्याकरण ग्रन्थों में 'अव' और 'अपि' उपसर्गों के ही अल्लोप का उल्लेख मिलता है, तथापि विष्णु धर्मसूत्र, रामायण, महाभारत, एवं पुराणों में 'अधि' उपसर्ग के अकारलोप के उदाहरण मिलते हैं । हिन्दी में 'भिज्ञ' और 'अभिज्ञ' दोनों का एक ही अर्थ में प्रयोग इस बात को सिद्ध करता है कि 'अभि' उपसर्ग के अकार का भी क्वाचित्क लोप होता है । संस्कृत साहित्य में 'अभि' के अकारलोप का एक भी उदाहरण हमारे देखने में नहीं आया ।

उपसंहार

उपर्युक्त विवेचन के बाद हम निम्नलिखित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं -
१. 'अपि', और 'अभि' उपसर्गों के आदि अकार के लोप के उदाहरण उत्तरोत्तर कम संख्या में प्राप्त होते हैं ।
"श्री मृणाल कान्ति नाथ के मत में 'अद्' भी उपसर्ग है और इसके अल्लोप के उदाहरण 'त्सर्' धातु एवं इससे निर्मित अन्य शब्दों में मिलते हैं ।"

२. वैदिक संहिताओं में उपर्युक्त उपसर्गों के अल्लोप का कोई उदाहरण प्राप्त नहीं होता । अन्य वैदिक ग्रन्थों में सिर्फ 'अपि' उपसर्ग के अल्लोप के उदाहरण मिलते हैं (एकमात्र प्रयोग 'धिष्ठितम्' को छोड़कर) ।

३. साधारणतः 'अपि' उपसर्ग का अल्लोप 'धा' और 'नह्' धातुओं से एवं 'अव' उपसर्ग का अल्लोप 'तन्', 'क्री' और 'गाह्' धातुओं से होता है । 'अधि' उपसर्ग का अल्लोप 'स्था' धातु से और 'अभि' का क्वाचित्क अल्लोप 'ज्ञा' धातु से होता है ।

४. लौकिक संस्कृत साहित्य में 'धा' और 'नह्' धातुओं से सम्पूर्ण 'अपि' उपसर्ग की अपेक्षा इसके अल्लोप सहित प्रयोग ज्यादा होते हैं । किसी भी धातु से 'अव' उपसर्ग के अल्लोप का प्रयोग क्वाचित्क ही पाया जाता है ।

५. जैसा कि हेमचन्द्र ने कहा है - 'धातुनियमं न इच्छन्त्येके' - 'वलक्ष', 'वलम्ब', 'वतण्ड' जैसे क्वाचित्क प्रयोगों के उदाहरण क्रमशः 'लक्ष्', 'लम्ब', 'तण्ड्' धातुओं से एवं 'पित्तम्', 'पिपीलिका', 'पिप्लु', 'पिचण्ड', 'पिक' जैसे उदाहरण क्रमशः 'दो', 'पील्', 'प्लु', 'चण्ड्', 'कै' धातुओं से दिये जा सकते हैं ।

संक्षिप्त शब्दों की सूची
अना॰ अमृतनादोपनिषद्
अष्टा॰ अष्टाध्यायी
कु॰ कुमारसम्भवम्
तै॰ तैत्तिरीयोपनिषद्
नाप॰ नारदपरिव्राजकोपनिषद्
नैषध॰ नैषधमहाकाव्यम् (सं॰ हरगोविन्द शास्त्री)
भट्टि॰ भट्टिकाव्यम्
महा॰ महाभारत (गीता प्रेस)
मै॰ मैत्रायण्युपनिषद्
मैत्रि॰ मैत्र्युपनिषद्
रघु॰ रघुवंशम्
रामा॰ रामायण (गीता प्रेस)
वरा॰ वराहोपनिषद्
विध॰ विष्णुधर्मसूत्र
शि॰ शिवोपनिषद्
शाकु॰ अभिज्ञान शाकुन्तलम्
शिशु॰ शिशुपालवधम्
हेम॰ श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम्

तालिका १: वैदिक ग्रन्थों में 'धा' और 'नह्' धातुओं से 'अपि'
उपसर्ग के अल्लोप के पक्ष और विपक्ष में कुल प्रयोग

---------------------------------------------------
वैदिक उपसर्ग+धातु अल्लोप के विपक्ष में अल्लोप के पक्ष में
ग्रन्थ कुल रूप कुल प्रयोग कुल रूप कुल प्रयोग
---------------------------------------------------
संहिता अपि+धा २६ १८९ --- ---
अपि+नह् ११ ३३ --- ---
---------------------------------------------------
ब्राह्मण अपि+धा १८ १०६ १ ५
अपि+नह् ५ ५ --- ---
---------------------------------------------------
आरण्यक अपि+धा ३ १९ १ २
अपि+नह् १ १ --- ---
---------------------------------------------------
उपनिषद् अपि+धा ५ ११ ४ ८
अपि+नह् --- --- --- ---
---------------------------------------------------
वेदाङ्गसूत्र अपि+धा २६ ४७* ९ १६
अपि+नह् ६ ९ २ २
---------------------------------------------------

*नोट - वैदिक - पदानुक्रम - कोष के वेदाङ्गसूत्र भाग में 'अपिदधाति' और 'अपिधाय' इन दो रूपों के सभी प्रयोग नहीं दिये गये हैं । अतः यहाँ कम से कम ४७ प्रयोग हैं, ऐसा समझना चाहिए ।

टिप्पणी -

१. रघु॰ १२।४१.

२. मल्लिनाथ सूरि ने महाकाव्यों की टीका करते समय बहुधा नाम सहित इसे उद्धृत किया है - देखें -नैषध॰ ४।८४, ७।९०, ११।१०९; शिशु॰ २।६८, ११।१४, ११।२९, १२।५१, १३।४, १५।३, १५।४१, १७।२१, १७।३१; रघु॰ ८।६८.

३. सुधाकर का काल गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान (११०३-११५३ ई॰ के लगभग) से पहले है,क्योंकि वर्धमान ने इसके मत को उद्धृत किया है ।

४. सन्दर्भ १, पृ॰ १०४ में उद्धृत ।

५. कृञ् धातु से 'अव' और 'अपि' इन दोनों में से किसी भी उपसर्ग के अकारलोप का कोई उदाहरण हमारे देखने में नहीं आया । हो सकता है कि यह 'क्रीञ्' धातु का ही अपपाठ हो ।

सन्दर्भ -

१. पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक - "संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास", प्रथम भाग, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ १९८४ ई॰ ।

२. आख्यात चन्द्रिका - सम्पादक - वेंकटरंगनाथ स्वामी, चौखम्भा संस्कृत ग्रन्थमाला (ग्रं॰ सं॰ २२), काशी, १९०४ ई॰ ।

३. वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी (बालमनोरमा-तत्त्वबोधिनी सहिता) - सम्पादक - पं॰ गिरिधर शर्मा एवं परमेश्वरानन्द शर्मा, मोतीलाल बनारसीदास, १९८६ ई॰ ।

४. लघुशब्देन्दुशेखरः (अव्ययीभावान्तः) - सम्पादक - श्री नित्यानन्द पन्त, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, काशी संस्कृत ग्रन्थमाला २७, १९७५ ई॰ ।

५. काशिकावृत्तिः (पदमञ्जरी एवं न्यास सहिता) - सम्पादक - स्वामी द्वारकादास शास्त्री एवं पं॰ कालिकाप्रसाद शुक्ल, तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी, १९६७ ई॰ ।

६. शृङ्गारप्रकाशः (महाराजाधिराज श्रीभोजदेव विरचितः) प्रथम भाग (१-८ प्रकाश), सम्पादक - जी॰ आर॰ जोस्यर्, मैसूर, १९५६ ई॰ ।

७. अमरकोश (क्षीरस्वामिकृत अमरकोशोद्घाटनम् नाम्नी टीका सहित) - सम्पादक - श्रीकृष्ण जी गोविन्द ओक, उपासना प्रकाशन, १६५ डी, कमलानगर, दिल्ली, १९८१ ई॰ (पुनर्मुद्रण) ।

८. रूपावतारः (धर्मकीर्ति विरचितः) - सम्पादक - म॰ रङ्गाचार्य, मद्रास, १९१२ ई॰ ।

९. माधवीया धातुवृत्तिः - सम्पादक - स्वामी द्वारिका दास शास्त्री, तारा बुक एजेन्सी, कमच्छा, वाराणसी, १९८७ ई॰ ।
१०. अमरटीकासर्वस्व (सर्वानन्दकृत) - सम्पादक - गणपति शास्त्री, त्रिवेन्द्रम ।

११. भट्टिकाव्यम् (१-४ सर्गाः) - सम्पादक - डॉ॰ रामअवध पाण्डेय, मोतीलाल बनारसीदास, १९७७ ई॰ ।

१२. प्रक्रियाकौमुदी (रामचन्द्र विरचिता) - सम्पादक - कमलाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी, भाण्डारकर ओरियेंटल रिसर्च इन्स्टिच्यूट, पुणे, १९२५ ई॰ ।

१३. पदचन्द्रिका (रायमुकुटकृता) - सम्पादक - श्री कालीकुमार दत्त, संस्कृत कालेज, कलकत्ता, प्रथम भाग १९६६ ई॰, द्वितीय भाग १९७३ ई॰, तृतीय भाग १९७८ ई॰ ।

१४. अमरकोषः (रामाश्रमी व्याख्यया विभूषितः) - सम्पादक - पं॰ हरगोविन्द शास्त्री, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १९८२ ई॰ ।

१५. शाकटायन-व्याकरणम् (अमोघावृत्ति सहितम्)- सम्पादक - पं॰ शम्भुनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, वाराणसी, १९७१ ई॰ ।

१६. सरस्वतीकण्ठाभरणम् (नारायण दण्डनाथ प्रणीतया हृदयहारिण्याख्यया व्याख्यया समेतम्), चतुर्थ खण्ड, सम्पादक - वी॰ ए॰ रामस्वामिशास्त्री, अनन्तशयन संस्कृत ग्रन्थावलि (ग्रन्थांक संख्या १५४), अनन्तशयन विश्वविद्यालय, १९४८ ई॰।

१७. श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासनम् (स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति तथा न्याससारसमुद्धार संवलितम्), सम्पादक - मुनि श्री वज्रसेन विजय जी, भेरुलाल कनैयालाल रिलिजियस ट्रस्ट, चन्दनबाला, बम्बई, १९८६ ई॰ ।

१८. शब्दानुशासनम् (मलयगिरि विरचितम् स्वोपज्ञवृत्तियुतम्), सम्पादक - पं॰ बेचरदास जीवराज दोशी, प्रकाशक - लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद, मार्च १९६७ ई॰ ।

१९. वैदिक-पदानुक्रम-कोष (संहिता भाग, ब्राह्मणारण्यक भाग, उपनिषद् भाग, वेदाङ्गसूत्र भाग), विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, १९४२-१९७३ ई॰ ।

२०. सामवेदीय ताण्ड्य महाब्राह्मणम् (सायणाचार्य विरचित भाष्य सहितम्), सम्पादक - श्री चिन्नस्वामिशास्त्री, प्रकाशक - जयकृष्णदास हरिदास गुप्त, प्रथम भाग - वि॰सं॰ १९९१, द्वितीय भाग - वि॰सं॰ १९९३ ।

२१. शाङ्खायनारण्यकम् - सम्पादक - भीमदेव शास्त्री, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होशियारपुर, १९८० ई॰ ।

२२. Sumitra Mangesh Katre – “A Dictionary of Panini Ganapatha”, Deccan College Postgraduate and Research Institute, Poona, 1971.

२३. V. S. Apte’s “The Practical Sanskrit-English Dictionary” (Enlarged Edition), Editors – P.K.Gode and C.G. Karve, Vol.II (ख-म), Prasad Prakashan, Poona, 1957.

२४. अग्नि-पुराण (मूलमात्र), सम्पादक - बलदेव उपाध्याय, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी, १९६६ ई॰ ।

२५. श्रीमद्भागवतम् (मूलमात्रम्), सम्पादक - नारायण राम आचार्य 'काव्यतीर्थ', निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९५० ई॰ ।

२६. शिशुपालवधम् (मल्लिनाथकृत संस्कृत टीका एवं हिन्दी टीका सहित), सम्पादक एवं हिन्दी टीकाकार - पं॰ हरगोविन्द शास्त्री, चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, १९८४ ई॰ ।

२७. Mrinal Kanti Nath: “On Two Sanskrit Upsargas”, Journal of the Oriental Institute, Baroda, Vol. 35, Nos. 1-2, Sep.-Dec. 1985 issue, pp.215-218.

(वेदवाणी, आश्विन सं॰ २०५२ वि॰, अक्टूबर १९९५, वर्ष ४७, अंक १२, पृ॰ ११-२३ में प्रकाशित)

Friday, July 4, 2008

1. विश्रान्तविद्याधर -- व्याकरण या व्याकरणकर्त्ता ?

Synopsis

All the modern Indian scholars I have come across through references mention विश्रान्तविद्याधर as the name of a grammar written by वामन. But Dr. Kielhorn, by giving some arguments has tried to prove that विश्रान्तविद्याधर is the name or epithet of a man, not of grammar. In this paper some more citations are presented to establish Kielhorn's view.

Pt. Ambalal Shah has expressed his opinion and from the statements of many other scholars it can be inferred that विश्रान्तविद्याधर व्याकरण has not come down to us. But as per Pt. Gurupoda Haldar's information, an incomplete manuscript of it is preserved at Cambay.

* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
गणरत्नमहोदधि की रचना के मुख्य आधारों में वर्धमान ने वामन के नाम का भी उल्लेख किया है (कारिका-२)-
"शालातुरीय-शकटांगज-चन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः ।" इसकी वृत्ति में वर्धमान आगे लिखते हैं - 'वामनो विश्रान्तविद्याधरव्याकरणकर्त्ता ।'
'विश्रान्तविद्याधर व्याकरणकर्ता' का अर्थ भारतीय विद्वानों के मत में 'विश्रान्तविद्याधर नामक व्याकरण का कर्त्ता' है, अर्थात् विश्रान्तविद्याधर एक व्याकरण का नाम है । परन्तु, डॉ॰ कीलहॉर्न के मत में विश्रान्तविद्याधर किसी व्याकरण का नाम नहीं, बल्कि एक व्यक्ति का नाम है ।

सर्वप्रथम हम भारतीय विद्वानों के मत प्रस्तुत करते हैं । पं॰ गुरुपद हालदार अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' में लिखते हैं -
"चारिखनि ग्रन्थ वामन प्रणीत बलिया शुना जाय - काशिकावृत्ति (आंशिक), लिङ्गानुशासन, सवृत्तिकाव्यालङ्कारसूत्र एवं विश्रान्तविद्याधरव्याकरण ।" (पृष्ठ ४२६)
"वामनाचार्य प्रणीत विश्रान्तविद्याधरेर एक खण्ड हस्तलिखित प्रतिलिपि Cambay ते सुरक्षित आछे, एखन किन्तु अनेकेर पक्षे ग्रन्थ देखाइ असम्भव ।" (पृष्ठ ४५७)

पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' में लिखते हैं -
"वामन ने 'विश्रान्तविद्याधर' नाम का व्याकरण रचा था । इस व्याकरण का उल्लेख आचार्य हेमचन्द्र और वर्धमान सूरि ने अपने ग्रन्थों में किया है ।" (भाग १, पृष्ठ ६७०)

प्रो॰ के॰ वी॰ अभ्यङ्कर व्याकरण महाभाष्य (मराठी अनुवाद) के सातवें भाग में लिखते हैं -
"३६७ वामनाचे विश्रान्तविद्याधर व्याकरण
....................................
वामनाच्या विश्रान्तविद्याधर नांवाच्या व्याकरणाचा उल्लेख हैमशब्दानुशासन मध्ये मिळतो ।" (पृष्ठ ३८८)

श्री वाचस्पति गैरोला 'संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास' में लिखते हैं -
"संस्कृत साहित्य में वामन नाम के अनेक ग्रन्थकार हुए । 'विश्रान्तविद्याधर' नामक जैन व्याकरण का रचियता, प्रसिद्ध अलङ्कार शास्त्री और 'लिङ्गानुशासन' का रचयिता 'काशिका' का रचयिता चौथा ही वामन है ।" (पृष्ठ ३७०)

पं॰ अंबालाल शाह 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' में लिखते हैं -
"वामन नामक जैनेतर विद्वान् ने 'विश्रान्तविद्याधर' व्याकरण की रचना की है, जो उपलब्ध नहीं है, परन्तु उसका उल्लेख वर्धमान सूरि रचित 'गणरत्नमहोदधि' (पृष्ठ ७२, ९२) में, और आचार्य हेमचन्द्र सूरि कृत 'सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन' (१।४।५२) के स्वोपज्ञ न्यास में मिलता है ।" (भाग ५, पृष्ठ ४८)
स्पष्ट है कि उनके द्वारा प्रयुक्त 'विश्रान्तविद्याधर व्याकरण' पद का अर्थ 'विश्रान्तविद्याधर का व्याकरण' या 'विश्रान्तविद्याधर द्वारा रचित व्याकरण' ऐसा अर्थ उपर्युक्त वाक्य में नहीं है, बल्कि 'विश्रान्तविद्याधर नामक व्याकरण' अर्थ ही उचित बैठता है ।

गणरत्नमहोदधि की कारिका-२ को उद्धृत कर डॉ॰ वी॰ राघवन् अपने लेख "How many grammars ?" में लिखते हैं -
In this verse, he mentions Panini..............., and in his Vrtti on the above, he adds शिवस्वामिन्, and also identifies वामन mentioned by him as the author of the grammar विश्रान्तविद्याधर........
The correct name of Vaman's work is विश्रान्तविद्याधर and not अविश्रान्त - as found in some mss." (p. 275)

डॉ॰ हर्षनाथ मिश्र 'चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्' में लिखते हैं -
"चत्वारो वामनाः संस्कृतशास्त्रकर्तारो दृश्यन्ते । तत्र प्रथमो विश्रान्तविद्याधराऽऽख्यस्य जैन-व्याकरणस्य कर्ता ।" (पृ॰ २८)

डॉ॰ जानकी प्रसाद द्विवेदी ने 'कलाप व्याकरण्' में विश्रान्तविद्याधर नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है -
"विश्रान्तविद्याधर-सूत्रसारप्रक्रिया-पाणिनीयमतदर्पण-प्रक्रियारत्नमणिसूत्रसार-सूत्रप्रकाश-पदचन्द्रिका.....बालशिक्षा-शुद्धाशुबोधाख्यग्रन्थानामध्ययनादावल्पीयानपि न जातः समादरः ।" (प्रस्तावना, पृष्ठ १)

'संस्कृत के बौद्ध वैयाकरण' नामक पुस्तक के पृष्ठ ११२ पर वे लिखते हैं - 'विद्याधर व्याकरणकार आचार्य वामन (वि॰ सं॰ ४००-६००) ने विश्रान्त विद्याधर (पाठा॰ - अविश्रान्त विद्याधर) नामक व्याकरण की रचना की थी ।'

डॉ॰ भोला मिश्र अपने लेख 'बौद्ध भिक्षु धर्मकीर्ति का रूपावतार - एक अध्ययन' में लिखते हैं -
"कतिपय बौद्धभिक्षुओं द्वारा ऐन्द्र, चान्द्र, सामन्तभद्र, विश्रान्तविद्याधर, बालावबोध, अष्टधातु एवं मञ्जुश्रीशब्दलक्षण इत्यादि संस्कृत के स्वतन्त्र व्याकरणों की रचना की गई ।" (वेदवाणी, अप्रैल १९९७, पृष्ठ १४)

डॉ॰ कीलहार्न अपने लेख "Indragomin and other grammarians" में लिखते हैं (पृष्ठ १८१)
"Hemachandra mentions the views of other grammarians most frequently, but, unfortunately, instead of quoting those scholars by name, he introduces their statements by such vague expressions as कश्चित्, केचित्, एके, अन्ये, अपरे, etc. What grammarians were meant to be denoted by these terms I first learnt from the marginal notes in a MS. of a small portion of Hemachandra's grammar which is in my possession, and I subsequently descovered that the names there given have been taken from a commentary, called न्यास on Hemachandra's बृहद्वृत्ति. Of this न्यास I have now been able to read through a MS. of the Deccan College (No. 282 of 1873-74), which, I regret to say, does not go beyond the first पाद of अध्याय II of Hemachandra's grammar and from it I give the following names of grammarians or works on grammar, which Hemachandra is supposed to refer to."

इसके बाद वे अनेक नामों का उद्धरण देते हैं जिनमें एक नाम विश्रान्तविद्याधर भी है । आगे पृष्ठ १८२ के फुटनोट संख्या ४ में वे लिखते हैं -
"In the गणरत्नमहोदधि p.2, वामन is described as the author of the विश्रान्तविद्याधरव्याकरण; the same work mentions, p.167, a न्यास on the विश्रान्त [1], and p.131, a विश्रान्तन्यासकृत् [2] ...... In the न्यास, from which I have quoted in the above, विश्रान्तविद्याधर is certainly intended to be the name or the epithet of a man, not of a grammar; the name of the grammar appears to be विश्रान्त."

कीलहॉर्न ने उपर्युक्त जिस न्यास का उल्लेख किया है वह कनकप्रभसूरिकृत 'न्यासोद्धार' या 'न्याससारसमुद्धार' नामक टीका है जो हैमशब्दानुशासन की स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति पर लिखी गई है । बृहद्वृत्ति एवं इस न्यास का प्रकाशन सन् १९८६ में भेरुलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट, बम्बई द्वारा तीन भागों में किया गया है । इससे विश्रान्तविद्याधर सम्बन्धी सभी उद्धरण नीचे दिये जाते हैं ।

१. सूत्र 'तृतीयस्य पञ्चमे' (१।३।१) पर बृहद्वृत्ति में आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं - "केचित् तु व्यञ्जनस्य स्थानेऽनुनासिके परे वाऽनुनासिकमिच्छन्ति, तस्य तु 'ह्रस्वान्ङ-ण-नो द्वे' (१।३।२७) इति द्वित्वं च नेच्छन्ति, तन्मते - त्वङूँ इति, त्वगूँ इति ।"
इस पर न्यायसारसमुद्धार में कनकप्रभसूरि लिखते हैं -
"केचित् त्विति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

२. सूत्र 'व्योः' (१।३।२३) पर बृहद्वृत्ति - कश्चित् तु स्वरजयोरनादिस्थयोर्यकार-वकारयोर्घोषवत्यवर्णादन्यतोऽपि लोपमिच्छति - अध्यारूढ उम् - ईशम् अध्युः, स चासाविन्दुश्च - अध्विन्दुः । साधोरीः - श्रीः साध्वी, तस्या उदयः - साध्वुदय इत्यादि ।"
इस पर न्यास॰ - "कश्चित् त्विति - विश्रान्तविद्याधरः ।"

३. सूत्र 'ऋतो रः स्वरेऽनि' (२।१।२) पर बृहद्वृत्ति - अपरे त्वनि स्वरे सर्वत्र विकल्पं जश्-शसोस्तु नित्यं मन्यन्ते, तन्मते - प्रियतिस्रौ, प्रियतिसरौ; प्रियचतस्रौ, प्रियचतसरौ; प्रियतिस्रः, प्रियतिसुः; प्रियचतस्रः, प्रियचतसुः आगतं स्वं वा, इत्यादि । जश्-शसोस्तु - तिस्रः, चतस्रः, परमतिस्रः, परमचतस्रः, प्रियतिस्रः, प्रियचतस्रस्तिष्ठन्ति पश्य वेति नित्यमेव रत्वम् ।"
इस पर न्यास॰ - "अपरे तु इति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

४. सूत्र 'कालाऽध्व-भाव-देशं वाऽकर्म चाकर्मणाम्' (२।२।२३) पर बृहद्वृत्ति - "अन्ये तु सकर्मकाणामकर्मकाणां च प्रयोगे कालाऽध्वभावानामत्यन्तसंयोगे सति नित्यं कर्मत्वमिच्छन्ति - मासमास्ते, दिवसं पचत्योदनम् ।"
इस पर न्यास॰ - "अन्ये त्विति - विश्रान्तविद्याधरादयः ।"

५. सूत्र 'अद् व्यञ्जने' (२।१।३५) पर बृहद्वृत्ति - "उत्तरत्र 'अनक्' (२।१।३६) इति वचनादिह साक एव विधिः ।"
इस पर न्यास॰ - "साक एव विधिरिति - विश्रान्तादौ - अन्वादेशे साकोनिरकश्चादेशविधानादिहैवमपि व्याख्या - साको यद्यादेशस्तदाऽन्वादेश एवेति निरकोऽन्वादेशेऽनन्वादेशे चोत्तरेणादादेशः सिद्धः ।"

६. सूत्र 'शकलकर्दमाद्वा' (६।२।३) पर न्यास॰ - "शकल-शकलं रक्तचन्दनं कर्बुरवर्णो वा, कर्द्दमस्तु मृद्विकारविशेषः स च पाण्ड्यमण्डले प्रसिद्ध इति विश्रान्तः ।"

अब हम श्री विजयलावण्यसूरि द्वारा सम्पादित हैमशब्दानुशासन से आचार्य हेमचन्द्र के स्वोपज्ञ 'शब्दमहार्णवन्यास' अपरनाम 'बृहन्न्यास' से उद्धरण प्रस्तुत करते हैं । सूत्र 'वाऽष्टन आः स्यादौ' (१।४।५२) पर बृहद्वृत्ति (तत्त्वप्रकाशिका) - "अन्यसम्बन्धिनोर्जश्शसोर्नेच्छन्त्येके, तन्मते - प्रियाष्टानस्तिष्ठन्ति, प्रियाष्ट्नः पश्येत्येव भवति । स्यादाविति किम् ? अष्टकः संघः, अष्टता, अष्टत्वम्, अष्टपुष्पी । केचित् तु सकार-भकारादावेव स्यादाविच्छन्ति ।"
इस पर बृहन्न्यास - "अन्यसम्बन्धिनोरित्येके - विश्रान्तविद्याधर इति । केचित् त्विति - स एव ।"

हैमशब्दानुशासन की उपर्युक्त टीकाओं के उद्धरणों से यह स्पष्ट है कि निश्चय ही विश्रान्तविद्याधर एक व्यक्ति का नाम है, व्याकरण का नहीं । फिर वर्धमान की उक्ति 'वामनो विश्रान्तविद्याधर व्याकरणकर्त्ता' से सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाय ? हमें निम्नलिखित समाधान प्रतीत होता है । चार भिन्न-भिन्न वामन हुए हैं, ऐसा विद्वज्जन मानते हैं । अतः वर्धमान की उक्ति को अगर कुछ इस तरह लिखा जाय - 'वामनो विश्रान्तविद्याधरः, व्याकरणकर्त्ता' अर्थात् वामन व्याकरणकर्त्ता विश्रान्तविद्याधर हैं (वामन is same as विश्रान्तविद्याधर, the author of grammar), तो सामञ्जस्य बैठ जाता है ।

अन्त में हम हैमशब्दानुशासन की टीकाओं के सम्बन्ध में कीलहॉर्न द्वारा पूर्वोक्त लेख के अन्त में दी गयी टिप्पणी का उद्धरण देना उचित समझते हैं, क्योंकि उनकी यह टिप्पणी शोधकर्त्ताओं के लिए अभी भी लागू होती है -
"I would earnestly request my former colleagues, Peterson and Bhandarkar, who already have done so much for the preservation of Sanskrit MSS. to purchase as many commentaries on Hemachandra's work as they can lay hold of, because I believe that such commentaries will furnish many valuable notes on the history of Sanksrit grammar. If the information at my command be correct, there must still be in existence a बृहन्न्यास, called शब्दमहार्णव, a न्यास by धर्मघोष, one by रामचन्द्र, a लघुन्यास by कनकप्रभ, and similar works. They will probably not be pleasant reading, but if Professors Bhandarkar and Peterson will give me the chance, I will try to make the best of them."

टिप्पणी -
1. 'विश्रान्तन्यासस्तु किरात एव कैरातो म्लेच्छ इत्याह ॥' (कारिका १३०)
2. 'विश्रान्तन्यासकृत्त्वसमर्थत्वाद् दण्डपाणिरित्येव मन्यते ॥' (कारिका ९२)

सन्दर्भ ग्रन्थ -
१. Prof. F. Kielhorn: "Indragomin and other grammarians", Indian Antiquary, June 1886, pp.181-183.

२. श्रीगुरुपद हालदारः "व्याकरण दर्शनेर इतिहास", प्रथम खण्ड, प्रकाशक - श्री भारती विकाश हालदार, ४७ हालदार पाड़ा रोड, कालीघाट, कलकत्ता, १९४४ ई॰ (बङ्गाब्द १३५०), पृ॰ ६ + ८८ + ५६ + ७४८.

३. पं॰ युधिष्ठिर मीमांसकः "संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास", प्रथम भाग, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, १९८४ ई॰।

४. प्रो॰ काशीनाथ वासुदेव अभ्यङ्करः "व्याकरण महाभाष्य (मराठी अनुवाद)", प्रस्तावना खण्ड, भाग ७, डेक्कन एजुकेशन सोसायटी, पुणे, १९५४ ई॰।

५. श्री वाचस्पति गैरोलाः "संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास", चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी, १९६० ई॰, पृ॰ १० + ९४४.

६. पं॰ अम्बालाल शाहः "जैन साहित्य का बृहद् इतिहास", भाग ५ (लाक्षणिक साहित्य), पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, जैनाश्रम, हिन्दू यूनिवर्सिटी, वाराणसी, १९६९ ई॰।

७. Dr V. Raghavan: "How many grammars ?", Charudev Shastri Felicitation Volume, 1974, pp.271-278.

८. डॉ॰ हर्षनाथ मिश्रः "चान्द्रव्याकरणवृत्तेः समालोचनात्मकमध्ययनम्", श्री लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली, १९७४ ई॰ ।

९. डॉ॰ जानकी प्रसाद द्विवेदीः "कलापव्याकरणम्", केन्द्रीय उच्च तिब्बती शिक्षा संस्थान, सारनाथ, वाराणसी, १९८८ ई॰ ।

१०. डॉ॰ भोला मिश्रः "बौद्ध भिक्षु धर्मकीर्ति का रूपावतार - एक अध्ययन", वेदवाणी, अप्रैल १९७७, पृ॰ १४-१८ ।

११. "श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्" [स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति तथा न्याससारसमुद्धार (लघुन्यास) संवलितम् ], सम्पादक - मुनि श्री वज्रसेन विजय जी, भेरुलाल कनैयालाल रिलिजियस ट्रस्ट, चन्दनबाला, बम्बई, १९८६ ई॰ । (तीन भागों में)

१२. "श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्" [स्वोपज्ञ तत्त्वप्रकाशिका, शब्दमहार्णवन्यास तथा श्री कनकप्रभसूरि रचित न्याससारसमुद्धार संवलितम् ], सम्पादक - श्री विजयलावण्य सूरि, श्री राजनगरस्था जैनग्रन्थप्रकाशक सभा, १९५६ ई॰ । (भाग १)

(वेदवाणी, पौष सं॰ २०५४ वि॰, जनवरी १९९८, वर्ष ५०, अंक ३, पृ॰ १८-२३ में प्रकाशित)