Tuesday, April 8, 2008

5. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (३)

(वैदिक प्रकरण)
Synopsis

In this article seven sutras of the सरस्वतीकण्ठाभरण dealing with the Vedic morphology are discussed whose readings are incorrect in both the editions (See the Table at the end).

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवे अध्याय के वैदिक प्रकरण के सात ऐसे सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं ।

सर्वप्रथम हम मद्रास संस्करण के सूत्र ८।२।७५-७६ पर चर्चा करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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न प्रथमाद्विर्वचने ॥८।२।७५॥ युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७७॥
युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७६॥ न प्रथमाद्विर्वचने ॥८।२।७८॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - न प्रथमाद्विर्वचने. युष्मदस्मदोरात् ।

ये सूत्र अष्टाध्यायी के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित हैं -
प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् ॥७।२।८८॥ युष्मदस्मदोः आ विभक्तौ, अङ्गस्य ।

अष्टाध्यायी के किसी सूत्र में यदि स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया जाता कि यह सूत्र वेदविषय में लागू होता है या भाषा में तो यह सूत्र यथासम्भव दोनों में लागू होगा । स॰कं॰ में सभी वैदिक प्रकरण आठवें अध्याय के प्रथम दो पादों में रखा गया है जबकि सामान्य कथन वाले सूत्र प्रथम सात अध्यायों में । अतः इन सात अध्यायों में दिये गये सूत्र वेद के लिए भी लागू होते हैं, अष्टम अध्याय में दिये गये अपवाद सूत्रों को छोड़कर ।

अष्टाध्यायी के सूत्र "द्वितीयायां च" (७।२।८७) में सामान्य रूप से 'युष्मद्' और 'अस्मद्' को आकारादेश का विधान होने से लौकिक एवं वैदिक दोनों प्रसङ्ग में आकारादेश होगा और सूत्र ७।२।८८ में केवल भाषा में आकारादेश का विधान होने से वेद-विषय से आकारादेश प्राप्त नहीं होगा । अतः लौकिक या भाषा विषय में प्रथमा एवं द्वितीया इन दोनों के द्विवचन में युष्मद् का रूप 'युवाम्' एवं अस्मद् का रूप 'आवाम्' होगा जबकि वेद-विषय में केवल द्वितीया के द्विवचन में 'युवाम्' एवं 'आवाम्' रूप बनेंगे, प्रथमा द्विवचन में 'युवम्' एवं 'आवम्' रूप ही रहेंगे ।

स॰कं॰ में प्रथमा एवं द्वितीया के द्विवचन में युष्मद् एवं अस्मद् के लिए आकारादेश का विधान निम्नलिखित सूत्र में किया गया है -
औशसम्सु ॥६।४।५६॥ युष्मदस्मदोः, आत्, सुपि, प्रकृतेः ।

स॰कं॰ के इस सूत्र में भाषा एवं वेद-विषय दोनों में प्रथमा एवं द्वितीया के द्विवचन में युष्मद् एवं अस्मद् को आकारादेश प्राप्त होता है । प्रथमा द्विवचन में आकारादेश को रोकने के लिए अलग सूत्र की जरूरत है । अतः स॰कं॰ के उपर्युक्त सूत्रों का शुद्धपाठ होगा -
न प्रथमा द्विवचने युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७५॥

गुजराती संस्करण के सम्पादक ने सूत्रपाठ शुद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिया है (पृ॰ ४०१)
तर्क १५. युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७७॥
न प्रथमा द्विवचने ॥८।२।७८॥

डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां आ सूत्रनो क्रम उपर दर्शाववा करतां 'न प्रथमा द्विवचने (८।२।७५) । युष्मदस्मदोरात् (८।२।७६) ।' अ‍ेम उलटो छे । पाणिनिअ‍े अष्टाध्यायी मां 'प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् (८।२।८८)' अ‍े सूत्र रच्युं छे । जेमां पूर्वसूत्र ८६ मांथी 'युष्मदस्मदोः' अ‍े पदनी अनुवृत्ति आवे छे । आ सूत्रो युष्मद् अने अस्मद् अ‍े सर्वनामने आकारादेशनुं विधान करे छे । आ विधान लौकिक अने वैदिक बने प्रयोगोमां लागु पड़े छे । तेथी भोजदेवे आत् पद प्रयोजीने अ‍ेने पोताना सूत्रमां वणी लीधुं छे । पछी प्रथमा द्विवचननी बाबतमां आकारादेश मात्र लौकिक प्रयोग पूरतो ज मर्यादित होवाथी पाणिनिअ‍े सूत्रोमां भाषायाम् पद प्रयोज्युं छे, ज्यारे भोजदेवना सूत्रमां छन्दसि नो अधिकार आवतो होई तेमणे निषेधवाचक 'न' प्रयोज्यो छे । प्रथमा द्विवचनने लगतुं आ विधान युष्मद् अने अस्मद् सर्वनामने ज लागु पडतुं होवाथी पाणिनिनो सूत्रक्रम बराबर हतो, जेथी आ पदोनी अनुवृत्ति ते पछी प्रथमा द्विवचन अंगेना सूत्रमां आवी शकती नथी । उलटुं अ‍े पूर्व सूत्रमांना ॠकारान्त धातुओने लागु पडतां अनर्थ ज सर्जाय ! तेथी भोजदेवना सूत्रक्रममां उपर दर्शाव्या सुजब क्रम पलटावो आवश्यक ठरे छे । उपरान्त भोजदेवना पाठमांनो द्विर्वचने अ‍े पाठ भ्रष्ट होवाथी रेफ काढी नाखी पाठशुद्धि पण अपेक्षित ठरे छे ।"

डॉ॰ कंसारा ने मद्रास संस्करण के उपर्युक्त सूत्रों को पलट दिया है । परन्तु इसके चलते सूत्र 'युष्मदस्मदोरात्' व्यर्थ पड़ जाता है, क्योंकि इस सूत्र से जिस कार्य का विधान प्राप्त होता है, वह स॰कं॰ के छठे अध्याय में पहले ही कह दिया गया है । उन्होंने जिन दो समस्याओं का उल्लेख किया है, वे दोनों सूत्रों को एक साथ पढ़ने से पैदा ही नहीं होतीं ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।१३९-१४० की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ
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पूर्वपदात् ॥८।२।१३९॥ स्तुतस्तोमादीनाम् ॥८।२।१४६॥
स्तुतस्तोमादीनाम् ॥८।२।१४०॥ पूर्वपदात् ॥८।२।१४७॥
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ये सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्र पर आधारित हैं -
स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि ॥८।३।१०५॥ एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, मूर्धन्यः, संहितायाम् ।
पूर्वपदात् ॥८।३।१०६॥ छन्दसि, एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, मूर्धन्यः, संहितायाम् ।

पाणिनिसूत्र ॥८।३।१०५॥ पर निम्नलिखित वार्त्तिक पाया जाता है –
स्तुतस्तोमयोछन्दस्यनर्थकं वचनं पूर्वपदादिति सिद्धत्वात् ॥१॥

कंसारा जी ने यहाँ भी मद्रास संस्करण के सूत्रों को पलट दिया है, परन्तु इसके लिए उन्होंने कोई तर्क नहीं दिया । इन सूत्रों को पलटकर अष्टाध्यायी के सूत्रों जैसा बनाते समय उन्होंने कात्यायन के वार्त्तिक पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया । स॰कं॰ की रचना के समय भोज ने उपर्युक्त पाणिनि सूत्रों के साथ-साथ वार्त्तिक का भी ख्याल रखा है । वस्तुतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्धपाठ 'पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्' है अर्थात् दो सूत्र नहीं बल्कि एक ही है । अष्टाध्यायी में आयी अनुवृत्तियों की सङ्गत अनुवृत्तियाँ स॰कं॰ में निम्न प्रकार से आती हैं -

तयोर्य्वावचि संहितायाम् (७।३।१५०) से 'संहितायाम्'
कुण्कुभ्यामपदान्तस्यादेशप्रत्ययस्य सष्षः (७।४।४८) से 'इण्कुभ्याम्',
बहुलं छन्दसि (८।१।१) से 'छन्दसि'
सहेः साढस्सष्षः (८।२।१३६) से 'सः', 'षः'
यजुषि वा (८।२।१३८) से 'वा' ।

गुजराती संस्करण में उपर्युक्त सूत्रों की वृत्ति में 'यजुषि' का भी प्रयोग किया गया है जो पाणिनिसूत्र 'यकुष्येकेषाम्' (८।३।१०४) एवं 'स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि' (८।३।१०५) के परिप्रेक्ष्य में सही नहीं है । यदि केवल यजुर्वेद में ही सकार का षकार अभिप्रेत होता तो सूत्र ८।३।१०५ में पाणिनि मुनि 'छन्दसि' शब्द का प्रयोग नहीं करते । भोजसूत्र 'पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्' का अर्थ बिलकुल सरल है -

पूर्व पद में स्थित इण् तथा कवर्ग से उत्तर नुम्, विसर्जनीय तथा शर् का व्यवधान होने पर भी स्तुत, स्तोम आदि के सकार का वेद-विषय में विकल्प से षकारादेश होता है । उदाहरण - त्रिभिः ष्टुतस्य, त्रिभिः स्तुतस्य । गोष्टोमम्, गोस्तोमम् । द्विषन्धिः, द्विसन्धिः । मधुष्ठानम्, मधुस्थानम् । द्विषाहस्रम्, द्विसाहस्रम् । यदिन्द्राग्नी दिविष्ठः (ऋ॰ १।१०८।११) । यूयं हि ष्ठा (ऋ॰ ६।५१।१५, ८।७।१२, ८।८३।९) । परि हि ष्मा (ऋ॰ ९।८७।६) । युवं हि स्थः स्वर्पती (ऋ॰ ९।१९।२) ।
पूर्व पदं पूर्वपदमिति सामान्यत आश्रीयते न तु समासावयव एवेति वाक्येऽपि तेनैव सिद्ध षत्वम् ।[2]

गुजराती संस्करण में 'वा' की अनुवृत्ति नहीं ली गयी है, परन्तु अष्टाध्यायी की टीकाओं में 'एकेषाम्' की अनुवृत्ति सहित वैकल्पिक षकारादेश का विधान ही प्राप्त होता है ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।१२०-१२१ पर विचार करते हैं ।

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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।१२०॥ ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।१२६॥ यज्ञकर्मणि याज्यान्तः ।
याज्यान्तः ॥८।२।१२१॥ याज्यान्तः ॥८।२।१२७॥
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उपर्युक्त सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्र पर आधारित हैं -
ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।८८॥ प्लुत उदात्तः, पदस्य ।
याज्यान्तः ॥८।२।९०॥ टेः, यज्ञकर्मणि, वाक्यस्य, प्लुत उदात्तः, पदस्य ।

पाण्डुलिपि का पाठ ठीक होने पर भी सरस्वतीकण्ठाभरण के दोनों सम्पादकों ने बिना सोचे-समझे पाणिनि सूत्र थोपे दिये हैं । काशिका में पाणिनि-सूत्र ८।२।८८ के लिए 'ये ३ यजामहे' उदाहरण मिलता है । स॰कं॰ के सूत्र 'ये यजामहे-ब्रूहि-प्रेष्य-श्रौषड्-वौषडावहानामादेः' (८।२।१२४) से इसकी सिद्धि हो जाती है । गुजराती संस्करण में सूत्र ८।२।१२६ और ८।२।१३० दोनों की वृत्ति में 'ये ३ यजामहे' ही मिलता है । उपर्युक्त भोजसूत्र ८।२।१२४ का सङ्गत पाणिनि सूत्र 'ब्रूहि-प्रेष्य-श्रौषड्-वौषडावहानामादेः' (८।२।०१) है ।

पाणिनिसूत्र ८।२।८८ एवं ९१ में भोज द्वारा जो परिवर्त्तन किया गया है, वह पाणिनिसूत्र 'ये यज्ञकर्मणि' (८।२।८८) पर उपलब्ध कात्यायन वार्त्तिकों पर आधारित है -
ये यज्ञकर्मणीत्यतिप्रसङ्गः ॥१॥
ये यज्ञकर्मणीत्यतिप्रसङ्गो भवति । इहापि प्राप्नोति । ये देवासो दिव्येकादश स्थ (ऋ॰ १।१३९।११) इति ।
सिद्धं तु ये यजामह इति ब्रूह्यादिषूपसंख्यानात् ॥२॥
सिद्धमेतत् । कथम् । ये यजामहे शब्दो ब्रूह्यादिषूपसंख्येयः ॥

अब हम भोजसूत्र ८।२।७४ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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ऋत इद्धातोः ॥८।२।७४॥ ॠत इद्धातोः ॥८।२।७५॥ ॠत इद्धातोः ॥८।२।७५॥
उच्च ॥८।२।७६॥
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यह भोजसूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है -
बहुलं छन्दसि ॥७।१।१०३॥ उत्, ऋतः, धातोः ।
उपर्युक्त भोजसूत्र के बारे में डॉ॰ कंसारा ने निम्नलिखित विचार प्रकट किया है (पृ॰ ४०१) –
"14. उच्च ॥८।२।७६॥
डॉ॰ चिंतामणिअ‍े अष्टाध्यायीमां ऋत इद्धातोः (७।१।१००) अ‍ेवुं सूत्र रच्युं छे जेने भोजदेवे सरस्वतीकण्ठाभरणमां पोताना सूत्र तरीके अपनावी लीधुं छे अने डॉ॰ चिंतामणिना पाठमां अ‍े क्रमांके आ सूत्र नोंध्युं छे पाणिनिअ‍े उपर निर्देशला सूत्र पछी, वचमां अ‍ेक सूत्र मूकीनेस उदोष्ठ्यपूर्वस्य (७।१।१०२) अ‍ेवुं सूत्र रचीने ॠकारनी पूर्वे ओष्ठ्य वर्ण आवतो होय तेवा ऋकारान्त धातुना अंगने उकारादेशनुं विधान कर्युं छे । त्यार बाद पाणिनिअ‍े बहुलं छन्दसि (७।२।१०३) अ‍ेवुं सूत्र रचीने वैदिकप्रयोगमां ऋकारान्त धातुना अंगने ते ओष्ठ्य पूर्व होय के न होय तो पण बाहुलकथी उकारादेश थाय छे तेवुं विधान कर्युं छे । तेथी भोजदेव आ पादना ऋत इद्धातोः अ‍े सूत्र पछी आ उकारादेशनी वैदिक प्रयोगमांनी जोगवाई करवा उपर मुजबनुं अ‍ेक सूत्र आपवानुं चूकी गया छे । आ क्षति दूर करवा उपर मुजबनुं वधारानुं सूत्र भोजदेवना पाठमां जरूरी ठरे छे ।"

"Emendations essential to the Vedic Grammar of Bhojadeva"[3] नामक अपने लेख में भी वे तर्क देते हैं (पृ॰ ४७) -
"Bhojadeva has adopted (P. VII. i. 100) as B. VIII, ii, 74. However, he has forgotten to incorporate the prescription of P. VII. i. 103 in his scheme."

उनके इस तर्क से हम सहमत नहीं । पाणिनिसूत्र 'ॠत इद्धातोः' (७।१।१००) का प्रावधान स॰कं॰ के वैदिक प्रकरण (आठवें अध्याय) में नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस सूत्र का पाठ भोजसूत्र ६।४।७ में पहले ही किया जा चुका है । आठवें अध्याय में उपलब्ध सूत्रपाठ 'ॠत इद्धातोः' पाण्डुलिपि में भ्रष्ट है । इसका शुद्धपाठ 'ॠत उद्धातोः' होना चाहिए । भोजसूत्र 'उदोष्ठ्यपूर्वस्य' (६।४।९) में ओष्ठ्यपूर्व ॠदन्त को उकारादेश का विधान किया गया है, बहुल ग्रहण से अनोष्ठ्य-पूर्व तॄ गॄ के ॠ को भी उत्व होता है - मित्रावरुणौ ततुरिः (ऋ॰ १।१४५।३) । दूरे ह्यध्वा जगुरिः (ऋ॰ १०।१०८।१) । ओष्ठ्यपूर्व ॠदन्त का भी कहीं-कहीं नहीं होता - 'पप्रितमम्', 'वव्रितमम्' (क्रमशः पॄ एवं वॄ धातु से) और कहीं-कहीं होता भी है - पपुरिः (ऋ॰ १।४६।४) ।


तालिका १

सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. न प्रथमाद्विर्वचने युष्मदस्मदोरात् न प्रथमाद्विवचने युष्मदस्मदोरात्
॥८।२।७५॥ ॥८।२।७७॥

२. युष्मदस्मदोरात् न प्रथमाद्विवचने
॥८।२।७६॥ ॥८।२।७८॥

३. पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम् पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्
॥८।२।१३९॥ ॥८।२।१४६॥

४. स्तुतस्तोमादीनाम् पूर्वपदात्
॥८।२।१४०॥ ॥८।२।१४७॥

५. ये यज्ञकर्मणि ये यज्ञकर्मणि यज्ञकर्मणि याज्यान्तः
॥८।२।१२०॥ ॥८।२।१२६॥ (पाण्डुलिपि का पाठ सही है)

६. याज्यान्तः याज्यान्तः
॥८।२।१२१॥ ॥८।२।१२७॥

७. ॠत इद्धातोः ॠत इद्धातोः ॠत उद्धातोः
॥८।२।७४॥ ॥८।२।७५॥
उच्च ॥८।२।७६॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६ एवं जनवरी १९९७.
2. सिद्धान्तकौमुदी की सुबोधिनी टीका, सिद्धान्तकौमुदी, चतुर्थ खण्ड, पृ॰ ४५२, प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास ।
3. Paper submitted to the A.I.O.C., 35th Session; Hardwar, 1990.

(वेदवाणी, सितम्बर १९९७, पृ॰ २१-२५, में प्रकाशित)

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