Synopsis
In this article further four sutras of SKA dealing with the Vedic morphology are discussed whose readings are incorrect in both the editions (See the Table at the end).
इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के वैदिक प्रकरण के और ऐसे चार सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं ।
सर्वप्रथम हम कुछ अधिक भ्रष्ट भोजसूत्र ८।२।६२ पर विचार करते हैं ।
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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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वाहो वग्र्यचि ॥८।२।६२॥ वाह वाड्यचि ॥८।२।६२॥
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यह भोजसूत्र किस पाणिनिसूत्र पर आधारित है, इसका आभास शायद गुजराती संस्करण के सम्पादक महोदय को नहीं हुआ । इसलिए इस सूत्र का अर्थ करने में उन्होंने विचित्र कल्पना की है -
"सूत्रार्थः - (छन्दसि विषये) यकारपूर्वके अजन्ते चोपपदे सति वाहः स्थाने वाडित्ययमादेशो भवति । उदाहरण - हव्यवाड् जुह्वास्यः । दिव्यवाड्वयो विराट् छन्दर्यः । प्रष्ठवाट् । अहीं वैदिक प्रयोगोमां हव्य+वाह् अने दित्य+वाह् मां यकारपूर्वक पद उपपद छे, अने प्रष्ठ+वाह् मां अजन्त पद उपपद छे तेथी तेनी पछी आवता वाह् ने स्थाने वाट् आदेश थइने अनुक्रमें हव्यवाट्, दित्यवाट् अने प्रष्ठवाट् अेम प्रातिपदिको सिद्ध थयां छे ।"
उन्होंने सप्तमी निर्दिष्ट पद 'यचि' से उपपद की कल्पना की है । भोजसूत्र 'कृद्विधौ सप्तमीस्थमुपपदम्' (१।१।२६) के अनुसार कृत्यप्रत्यय का विधान करने वाले सूत्र में सप्तमी निर्दिष्ट पद की उपपद संज्ञा होती है । 'वाह वाड्यचि' सूत्र किसी कृत्यप्रत्यय का विधान नहीं करता । इसलिए इस सूत्र में 'यचि' पद यकारपूर्वक या अजन्त उपपद का द्योतक नहीं है । 'वाह वाड्यचि' सूत्र की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त उदाहरणों में प्रस्तुत 'हव्यवाट्', 'दित्यवाट्', 'प्रष्ठवाट्' शब्दों की सिद्धि 'वहश्च' (८।१।२८) से हो जाती है । उन्होंने इसकी वृत्ति में लिखा है -
"सूत्रार्थः - (छन्दसि) सुप्युपपदे वहधातोर्ण्विः प्रत्ययो भवति । उदाहरण - दि॒त्य॒वाट् (यजु॰सं॰ १४।१०) । अहीं 'दित्यं वहति' अे अर्थमां 'दित्य+वह्' मां धातुने ण्वि प्रत्यय लागतां ढकार, जश्त्व, अने चर्त्व थइने रूपसिद्धि थइ छे । अे ज रीते 'प्रष्ठं वहति=प्रष्ठवाह्' बने छे ।"
ण्वि प्रत्यय के णित् होने से उपर्युक्त उदाहरणों में 'वह्' की उपधा अकार की वृद्धि निम्नलिखित भोजसूत्र से होती है -
ञ्णिति (७।१।९), अतः उपधायाः, वृद्धि, प्रकृतेः ।
पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह भोजसूत्र ८।२।६२ निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है-
वाह ऊठ् ॥६।४।१३२॥ सम्प्रसारणम्, भस्य, अङ्गस्य ।
इस पर काशिकावृत्ति है - 'वाहः' इत्येवमन्तस्य भस्य ऊठ् इत्येतत्सम्प्रसारणं भवति । प्रष्ठौहः । प्रष्ठौहा । प्रष्ठौहे । दित्यौहः । दित्यौहे । 'एत्येधत्यूठ्सु' (६।१।८९) इति वृद्धिः ।
भोज ने अष्टाध्यायी की भ-संज्ञा [यचि भम् (पा॰ १।४।१८)] का परित्याग कर पाणिनिसूत्र 'भस्य' (६।४।१२९) का सङ्गत सूत्र 'यचि स्वादावशिसुटि' (६।३।१२८) का निर्माण किया है । अतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्धपाठ कुछ इस प्रकार होना चाहिए -
वाहो व ऊड् यचि स्वादावशिसुटि ॥८।२।६२॥
पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ को देखने से प्रतीत होता है कि 'स्वादावशिसुटि' इतना अंश इस सूत्र में नहीं है । इतना अंश अगर हटाया जाता है तो प्रसङ्ग के अनुसार इसकी उपस्थिति लेनी पड़ेगी ।
स॰कं॰ सूत्रों से 'प्रष्ठौहः' की सिद्धि-
प्रष्ठ+वह्+ण्विः+ङस् --> प्रष्ठ + वाह् + ङस् --> प्रष्ठ+ऊठ्+आह्+अस् --> प्रष्ठ+ऊठ्+ह्+अस् --> प्रष्ठौहः ।
भोजसूत्र 'वहश्च' (८।१।२८) से 'प्रष्ठ' उपपद रहते 'वह्' धातु से ण्वि प्रत्यय आकर 'प्रष्ठ-वाह्+ङस्' । 'ङस्' (=अस्) के 'शि' और 'सुट्' को छोड़ अन्य अजादि स्वादि प्रत्यय होने से 'वाह्' के वकार को ऊठ् आदेश । वकार (=यण्) के स्थान में आदेश होने से ऊठ् (=इक्) की 'इग्यणः सम्प्रसारणम्' (१।१।८०) से सम्प्रसारण संज्ञा । 'संप्रसारणात्' (६।१।१२९) से 'ऊठ्' एवं 'आ' का पूर्वरूप एकादेश होकर सिर्फ ऊठ् । 'ऊठि' (६।१।१००) से 'प्रष्ठ' के अन्तिम 'अकार' और 'ऊठ् का वृद्धि एकादेश होकर 'प्रष्ठौहः' । इसी प्रकार 'टा' विभक्ति से 'प्रष्ठौहा' और 'ङे' से प्रष्ठौहे बनता है । अशिसुटीति किम् ? हव्यवाहं पुरुप्रियम् (ऋ॰ १।१२।२) ।
अब हम भोजसूत्र ८।१।३९ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।
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मद्रास संस्करण एवं पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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दंशेस्नुः ॥८।१।३९॥ दंशेः क्स्नुः ॥८।१।३९॥
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डॉ॰ कंसारा ने स्नु प्रत्यय को कित् पढ़ा है, किन्तु कित् होने से भोजसूत्र 'हलोऽनिदितः क्ङित्युपधायाः' (६।३।२०) से दंश् धातु का जो अनुनासिक लोप प्राप्त होता है, उसके निराकरण की चर्चा नहीं की । शायद उन्होंने काशिका की सहायता से ऐसा सूत्रपाठ दिया है । काशिका में पाणिनिसूत्र 'ग्लाजिस्थश्च क्स्नुः' (पा॰ ३।२।१३९) पर निम्नलिखित वार्त्तिक मिलता है -
दंशेश्छन्दस्युपसंख्यानम् । दंक्ष्णवः पशवः (वा॰सं॰ १५।३) ॥
इस पर न्यासकार लिखते हैं- "दंक्ष्णव इति । व्रश्चादिना षत्वम्, 'षढोः कः सि' इति कत्वम् । 'अनिदिताम्॰' (पा॰ ६।४।२४) इत्यनुसासिकलोपो न भवति, क्स्नोर्गित्त्वात् ।" पदमञ्जरीकार भी लिखते हैं - "दंक्ष्णवः पशव इति । क्स्नोर्गित्त्वादुपधालोपाभावः ।" परन्तु डॉ॰ कंसारा ने 'क्स्नु' प्रत्यय को कित् ही माना है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए हम महाभाष्य की सहायता लेते हैं । पाणिनिसूत्र 'ग्लाजिस्थश्च क्स्नुः' (३।२।१३९) पर भाष्यकार लिखते हैं -
"स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेधः ॥१॥
स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेधो वक्तव्यः । स्थास्नुरिति । घुमास्थागापाजहातिसां हलि (६।४।६६) इतीत्त्वं प्राप्नोति । एवं तर्हि न कित्करिष्यते ।
अकिति गुणप्रतिषेधः ॥२॥
यद्यकिद्गुणप्रतिषेधो वक्तव्यः । जिष्णुरिति ॥
भुव इट्प्रतिषेधश्च ॥३॥
भुव इट्प्रतिषेधश्च वक्तव्यः । किं चान्यत् । गुणप्रतिषेधश्च । भूष्णुरिति । अस्तु तर्हि कित् । ननु चोक्तं स्नोः कित्त्वे स्थ ईकार प्रतिषेध इति । नैष दोषः ।
स्थादंशिभ्यां स्नुश्छन्दसि ॥४॥
स्थादंशिभ्यां स्नुश्छन्दसि वक्तव्यः । स्थास्नु जङ्गमम् । दङ्क्ष्णवः पशव इति ॥ स इदानीं स्थोऽविशेषेण विधास्यते । सूत्रं तर्हि भिद्यते ।
यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेध इति । एवं तर्हि गित्करिष्यते ।"
इस वार्त्तिक ४ के भाष्य में प्राप्त दो समाधानों में पाणिनीतर व्याकरणों में जैनेन्द्र (महावृत्ति) एवं जैनेन्द्र (शब्दार्णवचन्द्रिका) को छोड़कर बाकी ने प्रथम समाधान को अपनाया अर्थात् पाणिनिसूत्र को तोड़ दिया जैसा कि निम्नलिखित तुलना से स्पष्ट होता है2 -
1. पाणिनि : ग्लाजिस्थाश्च क्स्नुः ॥३।२।१३९॥
2. कातन्त्र : जि भुवोः स्नुक् ॥४।४।१८॥ ग्ला-म्ला-स्था-क्षि-पचि-परिमृजां स्नुः ॥४।४।१९॥
3. चान्द्र : जिग्लश्च क्स्नुः ॥१।२।९४॥ स्थास्नुः ॥१।२।९५॥
4. जैनेन्द्र (म॰) : ग्ला-भू-जि-स्थः क्स्नुः ॥२।२।११५॥
5. शाकटायन : भूजेः स्नुक् ॥४।३।२२४॥ ग्ला-स्थः स्नुः ॥४।३।२२५॥
6. जैनेन्द्र (श॰) : ग्ला-भू-जि-स्थो ग्स्नुः ॥२।२।१२७॥
7. भोज : जयतेश्च क्स्नुः ॥१।४।१९४॥ ग्ला-म्ला-स्था-क्षि-पचि-परिमृजिभ्यः स्नुः ॥१।४।१९५॥
8. हैम : भू-जेः ष्णुक् ॥५।२।३०॥ स्था-ग्ला-म्ला-पचि-परिमृजि-क्षेः स्नुः ॥५।२।३१॥
9. मलयगिरि : भू-जेःष्णुक् ॥४।४।९॥ ग्ला-स्थः स्नुः ॥४।४।१०॥
काशिकाकार एवं जैनेन्द्रमहावृत्तिकार दोनों ने क्स्नु प्रत्यय को गित् माना है जबकि शब्दार्णव चन्द्रिका में स्पष्ट रूप से 'ग्स्नु' प्रत्यय का विधान है । भोज ने 'क्स्नु' प्रत्यय को गित् मानने के बजाय पाणिनि सूत्र को तोड़कर काम चलाया हे । अतः 'दंशेस्नुः' का शुद्धपाठ 'दंशेः स्नुः' ही होना चाहिए ।
अब हम भोजसूत्र ८।१।६७ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।
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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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झस्य तुट ॥८।१।६७॥ झस्य रुट् ॥८।१।६५॥
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समान प्रसङ्ग में प्रयुक्त पाणिनिसूत्रों एवं भोजसूत्रों की तुलना करने से उपर्युक्त सूत्र के शुद्ध पाठ ज्ञात करने में आसानी होगी । अतः तुलना नीचे दी जाती है ।
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पाणिनि सूत्र भोज सूत्र
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झोऽन्तः ॥७।१।३॥ झोऽन्तः ॥३।१।३॥
अदभ्यस्तात् ॥७।१।४॥ अदभ्यस्तात् ॥३।१।४॥
आत्मनेपदेष्वनतः ॥७।१।५॥ आत्मनेपदेऽनतः ॥३।१।५॥
शीङो रुट् ॥७।१।६॥ शीङो रत् ॥३।१।६॥
वेत्तेर्विभाषा ॥७।१।७॥ वेत्तेर्वा ॥३।१।७॥
बहुलं छन्दसि ॥७।१।८॥ झस्य तुट् ॥८।१।६७॥
अनु॰ - रुट्, अत्, झ, अनु॰ - बहुलं छन्दसि
अङ्गस्य
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पाणिनिसूत्र 'शीङो रुट्' का सङ्गत सूत्र कुछ पाणिनीतर व्याकरणों में देखें -
चान्द्र व्याकरण - शीङो रत् (१।४।७) वृत्ति - शीङः परस्य झकारस्य रदादेशो भवति । शेरते, शेरताम्, अशेरत ।
शाकटायन व्याकरण - शीङो रत् (१।४।९१) - अमोघावृत्ति - शीङः परस्य तङो झकारस्य रत् इत्ययमादेशो भवति । शेरते । शेरताम् । अशेरत ।
जैनेन्द्र (श॰) - शीङो रत् (५।१।६) वृत्ति - शीङः परस्य झो रद् भवति । शेरते । शेरतां । अशेरत ।
सुपद्म व्याकरण - शीङो रत् (३।२।९५) वृत्ति - शीङः परस्यान्तस्थाने रद् भवति । शेरते, शेरताम्, अशेरत ।
स॰कं॰ पर दण्डनाथ वृत्ति - शीङः परस्यात्मनेपदझकारस्य रदादेशो भवति । शेरते, अशेरत ।
अष्टाध्यायी सूत्र ७।१।४ में तिङ् प्रत्यय 'झ' को 'अत्' जो आदेश किया गया है उसका 'शीङ्' धातु के बाद रुट् का आगम होता है अर्थात् रुट्+अत्= र्+अत्=रत् । चन्द्रादि आचार्यों ने 'झ' को हुए आदेश 'अत्' को रुट् आगम करने के बजाय 'झ' को सीधा 'रत्' आदेश किया है । भोजदेव ने इसे ही अपनाकर ‘शीङो रत्' ऐसा ही सूत्र बनाया है । अतः अष्टम अध्याय में भी रुट् आगम के बदले सीधा 'झ' को 'रत्' आदेश होना चाहिए । इसलिए 'झस्य रत्' (८।१।६७) ऐसा शुद्ध पाठ होगा ।
अब हम भोजसूत्र ८।२।५९ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।
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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अङिश्च ॥८।२।५९॥ अङितश्च ॥८।२।६०॥
यह भोजसूत्र पाणिनि के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित है -
अङितश्च ॥६।४।५०३॥ छन्दसि, हेर्धिः ।
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इसका अर्थ है - "अङित् 'हि' को भी 'धि' आदेश होता है, वेद विषय में ।" किस दशा में 'हि' अङित् होता है, यह निम्नलिखित पाणिनिसूत्रों से स्पष्ट होता है -
सेर्ह्यपिच्च ॥३।४।८७॥ लोटः
वा छन्दसि ॥३।४।८८॥ सेर्हि, अपित्, लोटः
सार्वधातुकमपित् ॥१।२।४॥ ङित्
तिङ्-शित्-सार्वधातुकम् ॥३।४।११३॥
पाणिनि सूत्र 'सेर्ह्यपिच्च' का सङ्गत भोजसूत्र 'सेर्हिङ्' (३।१।१७) है । यहाँ 'सिप्' जो पित् है, को 'हिङ्' आदेश किया गया है अर्थात् अपित् कहने के बजाय सीधा 'हि' को ङित्' कहा गया है । अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र १-२६ में आये ङित् एवं कित् प्रकरण का स॰कं॰ में परित्याग किया गया है । अतः पाणिनि सूत्र 'सार्वधातुकमपित्' का सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में नहीं पाया जाता । डॉ॰ कंसारा 'अङितश्च' (८।२।६०) की वृत्ति में लिखते हैं -
"सूत्रार्थ : (छन्दसि विषये) अङितश्च हिकारस्य धिकार आदेशो भवति ।
उदा॰ - सोम रारन्धि नो ह्यदि ............. । 'हि' प्रत्यय विकल्प अपिद् होवाथी ते सार्वधातुक पक्षमां ङिद्वत् थशे अने पित् पक्षमां अङित् रहेशे । आ सूत्रमां आवा अङित् 'हि' प्रत्ययनो निर्देश छे ।
कंसारा जी को यहाँ भ्रम हुआ है । इस प्रसङ्ग को छोड़कर स॰कं॰ में अन्य कहीं भी अङित् 'हि' का जिक्र नहीं है । उपर्युक्त वृत्ति में वे हि प्रत्यय के वैकल्पिक अपित् की चर्चा करते हैं जिसके लिए स॰कं॰ में कोई जगह ही नहीं है । वृत्ति में उन्होंने पाणिनिसूत्र १।२।४ का आधार लिया है । उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्ध पाठ 'अङिच्च' होना चाहिए जिसमें 'छन्दसि' और 'हेर्धिः' की अनुवृत्ति क्रमशः सूत्र 'बहुलं छन्दसि' (८।१।१) और 'श्रुशृणुपॄकृवृभ्यो हेर्धिः' (८।२।५८) से आती है । इस सूत्र का अर्थ है - " 'हि' को जो 'धि' आदेश होता है वह वेद-विषय में अङित् भी होता है और चकार से ङित् भी ।" सेर्हिङ् (३।१।१७) से 'सि' को हिङ् अर्थात् ङित् हि आदेश होता है, फिर ङित् हि के स्थान में आदेश होने से 'धि' भी ङित् होगा जिसे उपर्युक्त सूत्र से वैकल्पिक अङित्त्व प्राप्त होता है । 'धि' के अङित् होने से 'युयोधि' में गुण होता है और 'रारन्धि' में नकार का लोप नहीं होता ।
तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. वाहो वग्र्यचि ॥८।२।६२॥ वाह वाड् यचि ॥८।२।६३॥ वाहो व ऊड् यचि
(स्वादावशिसुटि) ।
२. दंशेस्नुः ॥८।२।३९॥ दंशेः क्स्नुः ॥८।१।३९॥ दंशेः स्नुः ।
३. झस्य तुट् ॥८।१।६७॥ झस्य रुट् ॥८।१।६५॥ झस्य रत् ।
४. अङिश्च ॥८।२।५९॥ अङितश्च ॥८।२।६०॥ अङिच्च ।
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७ एवं सितम्बर १९९७.
2. प्रकृत लेखक द्वारा तैयार किया हुआ 'नव-संस्कृतव्याकरणानां सूत्रानुक्रमणिका (Concordance of nine Sanskrit grammars)' (अप्रकाशित) ।
(वेदवाणी, मई १९९८, पृ॰ १७-२२, में प्रकाशित)
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