Thursday, April 17, 2008

7. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (५)

(स्वर एवं वैदिक प्रकरण)

Synopsis

Four corrupted sutras from Ch. VIII of SKA, three dealing with the accent rules and one with the Vedic morphology, are discussed. All these four sutras are incorrect in both the editions (See the Table at the end.)

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के चार सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं । इन चार सूत्रों में से तीन स्वरसूत्र हैं जबकि एक वैदिक रूपविधान सम्बन्धी सूत्र ।

सर्वप्रथम हम अतिभ्रष्ट स्वरसूत्र ८।३।६ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि / म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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अवित्ताया अतोत्रे नाशोऽन्वादेशे इदमस्तृतीयादावशन्वादेशे ॥८।३।६॥
॥८।३।६॥ एतदस्त्रतसोस्त्रतसौ च ॥८।३।७॥
द्वितीया टौस्स्वेनः ॥८।३।८॥
एनच्च ॥८।३।९॥
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गु॰सं॰ के उपर्युक्त चार सूत्र क्रमशः पाणिनिसूत्र 'इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ' (२।४।३२), 'इतदस्त्रतसोसत्रतसौ चानुदात्तौ' (२।४।३३), 'द्वितीया टौस्स्वेनः' (२।४।३४) एवं इस अन्तिम सूत्र पर कात्यायन वार्त्तिक 'एनदिति नपुंसकैकवचने ॥१॥' पर आधारित हैं । अष्टाध्यायी में 'इदम्' और 'एतद्' का पाठ वार्त्तिक के रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है जैसा कि स्वर-सिद्धान्त चन्द्रिकाकार ने लिखा है - 'स्वमोर्नपुंसकात्' इति स्वमोर्लुक् । एनादेशे तु सति एनम् इति स्यात् । अर्थात् इदम् और एतद् - इन दोनों का सर्वास्थानी 'एन' के अकारान्त होने से 'अतोऽम्' (७।१।२४) से द्वितीया एकवचन में 'अम्' लगने से 'एनम्' होगा न कि 'एनद्' ।

सरस्वतीकण्ठाभरण में स्वरविधायक सूत्र आठवें अध्याय में रखे गये हैं लेकिन 'अश्' और 'एन' नामक आदेश लौकिक व्याकरण के अन्तर्गत आने से इनका प्रावधान छठे अध्याय में ही किया गया है ।

एतस्य चान्वादेशे द्वितीयायां चैनः ॥६।४।८०॥ अनु॰-इदमः, टौसोः ।
तृतीयादावश् ॥६।४।८१॥ अनु॰-इदमः, एतस्य च, अन्वादेशे ।

यहाँ 'इदमः' की अनुवृत्ति सूत्र 'इदमः स्त्रीपुंसयोरियमयमौ' (६।४।७६) एवं 'टौसोः' की अनुवृत्ति 'टौसोरनः' (६।४।७९) से आती है । यहाँ दो बातें ध्यान देने लायक हैं -

(१) पाणिनिसूत्र में 'एतद्' में षष्ठी एकवचन की विभक्ति लगाकर 'एतदः' पाठ किया गया है जबकि स॰कं॰ में 'एत' शब्द का षष्ठ्यन्त रूप 'एतस्य' का प्रयोग किया गया है । अतः अष्टाध्यायी के अनुसार समूचे 'एतद्' शब्द के स्थान में 'एन' आदेश होता है, परन्तु स॰कं॰ के अनुसार केवल 'एत' के स्थान में 'एन' आदेश होता है अर्थात् 'एतद्' के स्थान में 'एनद्' होता है ।' 'स्वमोर्नपुंसकात्' (स॰कं॰ ३।१।१७८) से द्वितीया एकवचन की अम् विभक्ति के लोप होने पर फिर'त्यदादीनां तसादिषु चाद्वेरः' (स॰कं॰ ६।४।७०) से 'एनद्' के दकार का अकार नहीं होगा, क्योंकि यह सूत्र सुप् विभक्ति या तसादि प्रत्यय परे रहने पर ही लागू होता है । यहाँ शंका उठ सकती है कि सुप् विभक्ति 'अम्', जो प्रत्यय भी है, के लोप होने पर भी 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' (स॰कं॰ १।२।५८) से एनद् के दकार का अकार हो जाना चाहिये । इसका समाधान यह है कि भोजसूत्र ६।४।७० में 'प्रकृतेः' (६।३।१) की अनुवृत्ति आती है और यहाँ लुवाली प्रकृति (क्योंकि 'अम्' का लुक् कहकर अदर्शन होता है) होने में 'न लुमता प्रकृतेः' (१।२।५९) से प्रत्ययलक्षण कार्य का निषेध हो जाता है । इसलिए द्वितीया एकवचन में 'एनद्' रूप ही प्राप्त होता है, अष्टाध्यायी की तरह 'एनम्' नहीं । अतः गु॰सं॰ में जो 'एनच्च' सूत्र रखा गया है, वह व्यर्थ है । भोजसूत्र ६।४।८० की दण्डनाथ वृत्ति में भी 'एनत्' उदाहरण मिलता है - "एतत् कुण्डमानय, अथो एनत् परिवर्त्तय ।" यह सूत्र चान्द्रसूत्र ५।४।७६ से अपरिवर्त्तित रूप में लिया गया है जिस पर चान्द्रवृत्ति इस प्रकार है -
"एतच्छब्दस्य य एत शब्दस्तस्येदमश्च कथितानुकथनाविषये द्वितीयायां विभक्तौ टौसि च परत एनादेशो भवति । एतं छात्रं वेदमध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय । एतत् कुण्डमानय, अथो एनत् परिवर्त्तय । ............. एवमिदमोऽपि योज्यम् । अयं तु विशेषः । इदं कुण्डमानय, अथो एनं परिवर्त्तयेति मकारान्त एव भवति ।" [2]

(२) पाणिनिसूत्र २।४।३३ के किसी भी अंश का प्रावधान स॰कं॰ में सातवें अध्याय तक नहीं किया गया है । अतः इसका प्रावधान आठवें अध्याय में ही अपेक्षित है ।
पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका तैयार करते समय हमने अष्टाध्यायी के सूत्र 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' (३।१।४) का कहीं साक्षात् प्रावधान स॰कं॰ में नहीं पाया । पाण्डुलिपि में 'अ' और 'सु' अक्षरों में बहुत साम्य पाया जाता है । साथ ही 'व' और 'प' के बीच अकसर भ्रम होता है । उपर्युक्त सभी चर्चाओं के बाद हम स॰कं॰ के उपर्युक्त भ्रष्ट सूत्र का निम्नलिखित संशोधित रूप प्रस्तावित करते हैं -
सुप्पितौ ॥८।३।६॥ अतोऽत्रैनाशोऽन्वादेशे ॥८।३।७॥

इन दोनों सूत्रों में 'अनुदात्तम्' की अनुवृत्ति सूत्र 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (८।१।५) से आती है । प्रस्तावित सूत्र ८।३।७ का अर्थ है -
"अन्वादेश में 'अतः', 'अत्र' तथा ('इदम्' और 'एत' के स्थान में किये गये आदेश) 'एन' एवं 'अश्' अनुदात्त होते हैं ।"

सामान्य रूप से 'अतः' और 'अत्र' को अनुदात्त कहने से अन्वादेश में ये सर्वानुदात्त होंगे । एतस्मिन् ग्रामे सुखं वसामः, अतोऽत्र युक्ता अधीमहे । एतस्माच्छात्राच्छन्दोऽधीष्व, अथातो व्याकरणमपि अधीष्व । इह 'अत्र', 'अतः' इति पदद्वयं सर्वानुदात्तम् । [3] अन्वादेश से अन्यत्र 'अत्र' शब्द त्रल प्रत्ययान्त होने से लित् स्वर से आद्युदात्त होगा एवम् 'अतः' के तस् प्रत्ययान्तहोने से सूत्र 'किं सर्वनामबहूनामद्व्यादीनां तसि' (८।३।७०) से आद्युदात्त होगा ।

अत्र पितरो यथाभागं मन्दध्वम् (तै॰ सं॰ १।८।५।१) ।
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वे (तै॰ आ॰ १०।१२।१) ।

पाण्डुलिपि एवं मद्रास संस्करण में भ्रष्ट सूत्र अवित्ताया॰ (८।३।६) के बाद का सूत्र है - 'आगमश्च' (८।३।७) । इसका अर्थ है - "आगम भी अनुदात्त होता है ।" यह सूत्र पाणिनिसूत्र ३।१।३ के वा॰ ५-६ एवं सूत्र ३।४।१०३ के वा॰ ३ पर आधारित है । गु॰सं॰ में 'आगमश्च' सूत्र को निकाल दिया गया है । ऐसा किसलिए किया गया यह हमारी समझ के बाहर है ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।४९-५० की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ॥८।३।४९॥ ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ॥८।३।५१॥
नाववर्णात् ॥८।३।५०॥ न त्रिपूर्वात् ॥८।३।५२॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - ह्रस्वरेनुड्भ्यो त्रमतुप् । नाववर्णात् ।

पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ को देखते हुए भोजसूत्र ८।३।४९ का शुद्धपाठ 'ह्रस्वरेनुड्भ्योऽत्रेर्मतुप्' होना चाहिए । यह सूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र एवं सङ्गत कात्यायन वार्त्तिकों पर आधारित है -
ह्रस्वनुड्भ्यां मतुप् ॥६।१।१७६॥
मतुबुदात्तत्वे रेग्रहणम् ॥१॥ त्रिप्रतिषेधश्च ॥२॥

मतुप् के उदात्त प्रतिषेध के लिए अगले सूत्र 'नाववर्णात्', जो स्पष्टतः भ्रष्ट है और जिसका शुद्ध पाठ 'न' साववर्णात् होना चाहिये, को गु॰सं॰ में कोई स्थान नहीं दिया गया है । प्रतीत होता है कि सम्पादक महोदय ने इस सूत्र की इस स्थिति को गलत समझकर इसको सात सूत्रों के आगे खिसकाकर 'साववर्णात्' (८।३।५९) बनाया है जिसमें 'न' की अनुवृत्ति उसके ठीक पहले के सूत्र 'न गोश्वन्राडङ्क्रुङ्कृद्भ्यः' (८।३।५८) से आती है । पाण्डुलिपि और मद्रास संस्करण में 'न गोश्वन्॰' (८।३।५६) के बाद 'साववर्णात्' जैसा कोई सूत्र नहीं है । गु॰सं॰ में सूत्र 'साववर्णात्' की वृत्ति इस प्रकार है -

"(छन्दसि स्वरविषये) सौ (प्रथमैकवचनप्रत्यये) परतो यदवर्णान्तं तस्मात् परा विभक्ति उदात्ता न भवति । उदा॰ - येभ्यः । केभ्यः ।"

इस सूत्र की यहाँ जरूरत ही नहीं है, क्योंकि इसका प्रावधान पूर्वत्र सूत्र 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' (८।३।३८, गु॰सं॰ में ८।३।४०) में ही कर दिया गया है । इस सूत्र की वृत्ति में सम्पादक महोदय लिखते हैं -

"(स्वरविषये) सुपि विभक्तौ परतः यः एकाच् शब्दरूपं तस्मात् परा टादयः (तृतीयैकवचन-प्रभृतिप्रत्ययाः) उदात्ता भवन्ति अनात् (=नकारान्तात् वर्जयित्वा) ।"

गुजराती वृत्ति में उन्होंने 'सुप्' का अर्थ सुप् (=सप्तमी ब॰ व॰) दिया है जो सही है । परन्तु 'अनात्' को उन्होंने 'अ+नात्' समझकर अर्थ लगाया है और गुजराती व्याख्या में लिखा है - "पण हरिन्, राजन् वगेरे अन् अंतवाळा शब्दोने लागनारी तृतीया वगेरे विभक्तिओ अनुदात्त होय छे । तेथी राज्ञा राज्ञे वगेरे रूपो आद्युदात्त छे ।" यहाँ पर वे भ्रमित हुए हैं । हरिन्, राजन् सप्तमी बहुवचन सुप् विभक्ति परे रहते एकाच् होते ही नहीं । इसलिए तृतीयादि विभक्ति के उदात्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । फिर उसके प्रतिषेध की जरूरत ही कहाँ पड़ती है ? 'अनात्' का वास्तविक अर्थ 'अन्+आत्' से मिलता है - अर्थात् अवर्णान्त को छोड़कर । 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' का सूत्रार्थ कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है -

"यस्य प्रातिपदिकस्य शब्दरूपं सुपि विभक्तौ परतः एकाच् भवति तस्मात् प्रातिपदिकात् परा टादयः विभक्तयः उदात्ता भवन्ति, परन्तु यत् प्रातिपदिकं सुप्यवर्णान्तं कदाचित् तस्मात् प्रातिपदिकात् वर्जयित्वा ।"

यह अर्थ हमने स्वरसिद्धान्त चन्द्रिका के ढर्रे पर किया है । देखें - पाणिनि सूत्र 'न गोश्वन्॰' (६।१।१८२) के 'साववर्ण' भाग का अर्थ, पृष्ठ ९७ ।

पाणिनिसूत्र 'न गोश्वन्॰' के 'साववर्ण' भाग को भोज द्वारा इस सूत्र से हटाकर उपर्युक्त परिवर्त्तन किये जाने का आधार इस प्रकार है । सूत्र 'न गोश्वन्॰' किस स्वर का प्रतिषेध करता है, इसकी विस्तृत चर्चा महाभाष्य में सूत्र 'चौ' (६।१।२२२) के वार्त्तिक 'चोरतद्धिते' के अन्तर्गत की गई है । इसका सारांश इस प्रकार है -

(i) तृतीयादिविभक्तिस्वर का प्रतिषेध – 'सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः' (६।१।१६८) इत्यादि सूत्र से प्राप्त स्वर का ।
(ii) येन केनचिल्लक्षणेन प्राप्त विभक्ति स्वर का प्रतिषेध - 'अञचेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्' (६।१।१७०) इत्यादि सूत्र से प्राप्त स्वर का ।
(iii) मतुप् स्वर का प्रतिषेध - 'ह्रस्वनुड्भ्यां मतुप्' (६।१।१७६) से प्राप्त स्वर का ।
(iv) उदात्त निवृत्तिस्वर का प्रतिषेध - 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' (६।१।१६१) से प्राप्त स्वर का ।

'न गोश्वन्॰' उदात्तनिवृत्तिस्वर का प्रतिषेध नहीं कर सकता, क्योंकि इससे 'कुमारी' में प्राप्त ङीप् के उदात्त स्वर का भी प्रतिषेध हो जायगा । अतः उपर्युक्त चार चर्चित सम्भावनाओं में अन्तिम का महाभाष्यकार ने खण्डन किया है ।

सरस्वतीकण्ठाभरण में पाणिनिसूत्र 'न गोश्वन्॰' के सिर्फ 'साववर्ण' भाग को अलग किया गया है जिसके लिए तृतीयादि विभक्ति स्वर और मतुप् स्वर का प्रतिषेध लागू होता है, शेष में अवर्णान्त के अभाव से । जहाँ तक तृतीयादि विभक्तिस्वर के प्रतिषेध का प्रश्न है, इसका प्रावधान भोजसूत्र 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' (८।३।३८) में कर दिया गया है । शेष मतुप् स्वर प्रतिषेध रहता है जिसका प्रावधान 'न साववर्णात्' (८।३।५०) में किया गया है ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।८८ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि एवं म॰सं॰ में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा ॥८।२।८८॥ अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा लघूपधस्य
॥८।२।९०॥
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यह भोजसूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र के काशिका-वार्त्तिक पर आधारित है -

नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातुके ॥७।३।८७॥ अनु॰-लघूपधस्य, गुणः, अङ्गस्य ।
बहुलं छन्दसीति वक्तव्यम् । जुजोषत् (ऋ॰ १।१७३।४) इति यथा स्यात् ।

पाणिनिसूत्र ७।३।८७ का सङ्गत भोजसूत्र निम्नलिखित है -
नाभ्यस्तस्याचि सार्वधातुके ॥७।२।६॥ लघोरुपधायाः, गुणः, प्रकृतेः ।

इसके बाद का सूत्र है -
अपिति ॥७।२।८७॥ न, सार्वधातुके, लघोरुपधायाः, गुणः, प्रकृतेः ।

भोजसूत्र ७।२।७ सामान्य रूप से अपित् सार्वधातुक प्रत्यय परक प्रकृति का गुण निषेध करता है । इसलिए यह निषेध अभ्यस्त प्रकृति के लिए भी लागू होता है । अतः सूत्र ७।२।६ में साक्षात् 'पिति' शब्द अनुक्त रहते हुए भी परोक्ष रूप से 'पिति' आता है । इस प्रकार भोजसूत्र ७।२।६ का अर्थ होगा -
"अभ्यस्त-संज्ञक प्रकृति की लघु उपधा इक् को अजादि पित् सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते गुण नहीं होता ।"

भोजसूत्र 'इको गुणवृद्धी' (१।२।४१) से गुण उपधा के इक् को होगा । परन्तु काशिका वार्त्तिक के अनुसार वेद-विषय में यह गुण-निषेध वैकल्पिक होगा अर्थात् अभ्यस्त संज्ञक प्रकृति की लघु उपधा इक् को अजादि पित् सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते विकल्प से गुण होगा । इस प्रकार का अर्थ तभी होगा जब भोजसूत्र इस प्रकार होगा -

अभ्यस्तस्य पिति गुणो वा ॥८।२।८८॥

प्रसङ्ग के अनुसार सूत्र ७।२।६ से निम्नलिखित अनुवृत्तियाँ लेनी पड़ेगी -
अचि, सार्वधातुके, लघोरुपधायाः, प्रकृतेः ।

गु॰सं॰ में 'अपिति' लिया गया है और वृत्ति में 'अचि' का नामो-निशान नहीं है, परन्तु उदाहरण के रूप में 'जुजोषत्' प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अजादि पित् सार्वधातुक [लेट् लकार का 'तिप्' जिसे अट् आगम होने से तिप् अजादि हो जाता है, फिर 'इतो लोपः परस्मैपदेषु' (८।१।६३) से 'अत्' बचता है ] परक प्रकृति का गुण किया गया है ।

अगला भोजसूत्र 'ह्रस्वश्चोपधायाः' (८।२।८९) है जिसे गु॰सं॰ में 'ह्रस्वश्चोपधाया अचि पिति' (८।२।९१) कर दिया गया है । 'अचि' और 'पिति' की अनुवृत्ति पूर्व सूत्र से आयेगी । अतः मद्रास संस्करण का सूत्र ८।२।८९ सही है ।

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. अभ्यस्तस्यापिति अभ्यस्तस्यापिति गुणो अभ्यस्तस्य पिति
गुणो वा॥८।२।८८॥ वा लघूपधस्य॥८।२।९०॥ गुणो वा ।

२. अवित्ताया अतोत्रे इदमस्तृतीयादावशन्वादेशे सुप्पितौ ।
नाशोऽन्वादेशे ॥८।३।६॥ अतोऽत्रैनाशोऽन्वादेशे ।
॥८।३।६॥ एतदस्त्रतसोस्त्रतसौ च
॥८।३।७॥
द्वितीया टौस्स्वेनः
॥८।३।८॥
एनच्च ॥८।३।९॥

३. ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ह्रस्वरेनुड्भ्योऽत्रेर्मतुप् ।
॥८।३।४९॥ ॥८।३।५१॥
न त्रिपूर्वात् ॥८।३।५२॥

४. नाववर्णात् ॥८।३।५०॥ ------ न साववर्णात् ।
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७ एवं मई १९९८.
2. इस पर डॉ॰ क्षितीशचन्द्र चटर्जी टिप्पणी देते हैं - "This is extremely doubtful. नपुंसकैकवचन एनदिति वार्त्तिकम् (ii ४।३४।१) ।" डॉ॰ चटर्जी ने भ्रम में पड़कर ऐसी टिप्पणी दी है । उपर्युक्त वृत्ति सूत्रपाठ के अनुसार सही है । यह सूत्रपाठ चन्द्राचार्य में कातन्त्र सूत्र 'उतस्य चान्वादेशे द्वितीयायाञ्चैनः' (२।३।३७) से अपरिवर्त्तित रूप में ग्रहण किया है । उपर्युक्त भ्रम का निराकरण हैमशब्दानुशासन के सूत्र 'इदमः' (२।१।३४) की निम्नलिखित बृहद्वृत्ति से हो जाता है -
"केचित् तु - इदम आदेशम् 'एनम्' इति मकारान्त द्वितीयैकवचने आहुः, तन्मते-इदं कुण्डमानयाथो एनं परिवर्त्तयेत्येव भवति ।"
3. स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका (स॰ शिवरामकृष्ण शास्त्री), पृष्ठ २९१.

(वेदवाणी, फरवरी १९९९, पृ॰ १०-१५, में प्रकाशित)

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