Sunday, April 20, 2008

10. गुजराती संस्करण में परिवर्तित आठ स्वरसूत्रों पर विचार

Synopsis
In this article eight such sutras of SKA dealing with the accent rules are discussed, whose readings are perfectly correct in the Madras edition, but which have been blunderingly modified in the Gujarati edition. The reading of all these sutras from both the editions are listed in the Table at the end.

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय के स्वर प्रकरण के ऐसे आठ सूत्रों की चर्चा की जायगी जिनके पाठ मद्रास संस्करण में बिलकुल सही हैं, किन्तु गुजराती संस्करण में इन सूत्रों के रूप बदल देने से अशुद्धियाँ आ गयी हैं । इसके बारे में पूर्व सूचना वेदवाणी के जुलाई १९९६ अङ्क के पृष्ठ ९ पर दी गयी थी ।

सर्वप्रथम हम भोजसूत्र 'हियासामः' (८।३।११) पर विचार करते हैं । इसे बदलकर गु॰सं॰ में 'हिमारण्याभ्याम्' (८।३।१३) कर दिया गया है जिसकी वृत्ति इस प्रकार दी गयी है -

"सूत्रार्थः (स्वरविषये) हिम अरण्य इत्येताभ्यां परतः ङीप् प्रत्यय उदात्तो भवति ।
अर्थः - हिम अने अरण्य शब्दनो लागतो ङीष् प्रत्यय उदात्त बने छे; आ प्रत्ययनी पहेलां आनुक् (= आन्) आगम लागे छे ।"

सूत्रार्थ में 'ङीप्' छपा है जबकि गुजराती अर्थ में 'ङीष्' । 'ङीप्' छपाई सम्बन्धी अशुद्धि है । भोजसूत्र 'हिमारण्याभ्यां महत्त्वे' (३।४।८७) पर दण्डनाथवृत्ति में ङीष् प्रत्यय का ही विधान पाया जाता है । ङीष् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए 'हिमारण्याभ्याम्' जैसे सूत्र की जरुरत नहीं है, क्योंकि प्रत्ययस्वर से ही ङीष् उदात्त हो जायगा ।

पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका तैयार करते समय जब हम पाणिनिसूत्र 'यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च' (पा॰ ३।४।१०३), अनु॰ – लिङः’, के सङ्गत भोजसूत्र की जाँच कर रहे थे तो एक सूत्र तो यह मिला -
लिङो यासुट् ङिच्च ॥३।१।२८॥, अनु॰ - परस्मैपदानाम् ।

पाणिनि सूत्र ३।४।१०३ में जो यासुट् (=यास्) को उदात्त कहा गया है उसका विधान सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय में हमें केवल 'हियासामः' (=हि+यास् +आम्+जस्) में मिला ।

अब इस बात पर विचार करें कि भोज ने 'हि' ('सिप्' के स्थान पर लोट् लकार में प्रयुक्त एवं 'हि' के स्थान पर प्रयुक्त होने से 'धि' भी) को उदात्त बनाने के लिए जो प्रावधान किया है वह जरूरी है क्या ? इसके बारे में महाभाष्य, काशिका, न्यास या पदमञ्जरी में कोई उल्लेख नहीं पाया जाता । परन्तु अष्टाध्यायी के अपने जर्मन अनुवाद 'Panini's Grammatik' में बोटलिंक महोदय सूत्र ६।४।१०३ के अन्तर्गत लिखते हैं -

"अङितश्च ॥१०३॥
Aber auch dann, wenn diese Personalendung kein Stummes ङ् hat.
रारन्धि, यन्धि, युयोधि. Nach 3.4.88 kann हि in Veda auch पित् sien; ist es पित्, so ist es nach 1.2.4 nicht ङित्. Da es in den angeführten Beispielen nicht ङित् ist, erfahrt die Wurzel keine Schwachung, wird sogar verstärkt. Trotz पित् Oxytona !"

यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि बोटलिंक ने उपर्युक्त उदाहरणों में 'हि' के पित् होते हुए भी इसे उदात्त (Oxytone)कैसे माना है । जब तक स्पष्ट रूप से इस बात का प्रावधान नहीं किया जाता कि 'हि' पित् होते हुए भी उदात्त होगा, तब तक सूत्र 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' (पा॰ ३।१।४) लागू होगा । प्रतीत होता है कि उन्होंने उपर्युक्त वचन वैदिक साहित्य में प्राप्त स्वर के आधार पर दिया है । इस बात के स्पष्टीकरण एवं विशेष चर्चा के लिए मैंने वैदिक विशेषज्ञ डॉ॰ रविप्रकाश आर्य, रोहतक को पत्र लिखा । उन्होंने १६ जून १९९८ के पत्र में जवाब दिया -

"You are correct in your observations........ Bohtlingk's inference of oxytone पित् is based on examples and not that he could understand Panini. In the present case the accent rule has to be supplemented in order to be more specific and precise."

'आम्' का प्रावधान अष्टाध्यायी एवं सरस्वतीकण्ठाभरण में निम्नलिखित स्थलों पर प्राप्त होता है –

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पाणिनि सूत्रपाठ सरस्वतीकण्ठाभरण सूत्रपाठ
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कास्प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि अनेकाचो लिट आङ्कृभ्वस्तीनां च लिट्यनुप्रयोगः
(३।१।३५) (१।३।६९)

आमेतः (३।४।९०) आमेतः (३।१।२०)

स्वौ ...... ङसोसाम् प्रातिपादिकात् स्वौ..... ङ्सोसां.....
(४।१।२) (३।१।१५६)

किमेत्तिङव्ययघादाम्वद्रव्यप्रकर्षे किमेत्तिङव्ययेभ्यः आभ्यामामद्रव्ये
(५।४।११) (५।३।७८)

चतुरनडुहोरामुदात्तः (७।१।९८) आमनडुहो वा (६।४।४९)
हियासामः (८।३।११)

ङेराम् नद्याम्नीभ्यः (७।३।११६) ङेरामाडादिभ्यः (७।२।५६)
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इन भिन्न स्थलों पर प्रयुक्त 'आम्' में से पा॰ ७।१।९८ में स्पष्टरूप से 'आम्' को उदात्त कहा गया है । अतः सङ्गत स॰कं॰ सूत्र ६।४।४९ में प्रयुक्त 'आम्' को उदात्त करने के लिए आठवें अध्याय में एक सूत्र की जरूरत है जो 'हियासामः' से प्राप्त होता है । कुछ अन्य स्थलों में प्रयुक्त आम् की स्वरसिद्धि नहीं हो पाती जिसका उल्लेख महाभाष्य में पाया जाता है ।

सूत्र 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (पा॰ ६।२।१३९) के सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में 'पथ्युपपदकारकेभ्यः' एवं 'उत्कृत्योवाश्रमः' (८।४।१५५-१५६) हैं । ये दोनों सूत्र भ्रष्ट प्रतीत होते हैं । अगर पूर्वोक्त पा॰ सूत्र के सङ्गत सूत्र को 'गत्युपपदकारकेभ्यः कृत्' स्वीकार किया जाय तो महाभाष्य की निम्नलिखित टिप्पणी लागू होगी ।

"यदि कृद्‌ग्रहणं क्रियते आमन्ते स्वरो न प्राप्नोति । प्र॒प॒च॒ति॒तराम् । प्र॒ज॒ल्प॒ति॒त॒राम् ।" कृद्‌ग्रहण से आमन्त को अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता अर्थात् यह तद्धित प्रत्यय 'आम्' उदात्त नहीं हो पाता है । स्वरसिद्धान्तचन्द्रिकाकार लिखते हैं -

"कृद्‌ग्रहणे 'प्रपचतितराम्' इत्यादौ आमन्तेन गतिसमासे तस्य अकृदन्तत्वाद् अयं स्वरो न स्यात् । ततश्च अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरेण आद्युदात्तत्वप्रसंगः ।" परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः अगर कृद् ग्रहण किया गया तो 'प्रपचतितराम्' इत्यादि में 'आम्' को उदात्त सिद्ध करने के लिए अलग सूत्र की जरूरत है । [2] स॰कं॰ में यह सूत्र 'हियासामः' से प्राप्त हो जायगा ।

'प्रपचतितराम्' इत्यादि में 'प्र' के निघात (अनुदात्त) के लिए भी 'आम्' को उदात्त बनाने की जरूरत है । सूत्र 'तिङि चोदात्तवति' (पा॰ ८।१।७१), जिसका सङ्गत भोजसूत्र 'तिङ्युदात्तवति' (८।३।२४७) है, पर भाष्यकार लिखते हें - "यदि तिङ्ग्रहणं क्रियते, आमन्ते न प्राप्नोति । प्रपचतितराम्, प्रजल्पतितराम् ।" आमन्त के साथ गतिसमास करने पर यदि तिङ्ग्रहण न किया जाय तो भी गतिनिघात (अर्थात् 'प्र' को अनुदात्त) प्राप्त नहीं होता है जैसा कि काशिकाकार स्पष्ट करते हैं - "आमन्ते तर्हि न प्राप्नोति - प्रपचतितराम्, प्रपचतितमाम् । अत्र केचिदामन्तेन गतेः समासं कुर्वन्ति । तेषामव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वे सत्यक्रियमाणेऽपि तिङ्ग्रहणे परमनुदात्तवद् भवतीति गतिनिघातो नैव सिध्यति ।" अतः आमन्त के साथ गतिसमास करने पर गतिनिघात प्राप्त हो, इसके लिए 'आम्' को उदात्त बनाने की जरूरत है ।

लिट् या अन्य लकार परे रहते जो 'आम्' प्रत्यय आता है वह उदात्त होता है - यत्प्र॑कार॒याञ्च॑कार । चक्षु॑ष्कामं याज॒याञ्च॑कार । अभ्युत्साद॒या॑म॒कः (म॰सं॰ १।६।५) । पा॒व॒यांक्रिया॒त् (मै॰सं॰ २।१।३) । वि॒दाम॑क्र॒न् (तै॰सं॰ ३।५।१०) । पर इस 'आम्' की उदात्तत्व-सिद्धि के लिए अलग से सूत्र की जरूरत नहीं । अन्य स्वरसूत्रों से भी काम चल जायगा - देखें 'आमः' (पा॰ २।४।८१) पर महाभाष्य एवं अधिक स्पष्टीकरण के लिए प॰ युधिष्ठिर मीमांसक कृत हिन्दी व्याख्या ।

सुप् 'आम्' (षष्ठी बहुवचन) उदात्त भी होता है (सुप्येकाचोऽनाट्टादयः ८।३।३८) और अनुदात्त भी (सुप्पितौ ८।३।६) । अतः इसमें 'हियासामः' लागू नहीं होता ।

अब हम भोजसूत्र 'असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप्' (८।३।१२) पर विचार करते हैं । इसे गु॰सं॰ में बदलकर 'बहुव्रीहेः संख्यादेरूधसो ङीप्' (८।३।१४) के लिए भोज ने लौकिक भाग में एक ही सूत्र 'ऊधसो नश्च (३।४।२३), अनु॰ - बहुव्रीहेः, ङीप्, स्त्रियाम् ।' बनाया है । पाणिनि सूत्र ४।१।२५-२६ से स्पष्ट है कि पाणिनि मुनि संख्या और अव्यय आदि में न होने पर ही 'ऊधस्' से ङीष् (अर्थात् उदात्त) प्रत्यय का विधान करते हैं । भोजसूत्र ३।४।२३ सामान्य रूप से ऊधस् को ङीप् (अर्थात् अनुदात्त) प्रत्यय विधान करता है । अतः उपर्युक्त दशाओं में जहाँ पाणिनि सूत्र ङीष् प्रत्यय का विधान करके अन्तोदात्त करता है, वहाँ भी स॰कं॰ ३।४।२३ से ङीप् के अनुदात्त होने से अन्तानुदात्त प्राप्त होगा । इसलिए संख्या और अव्यय जहाँ आदि में नहीं हो, ऐसे ऊधस् से बने बहुव्रीहि समास में ङीप् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए स॰कं॰ में अलग सूत्र की जरूरत है । भोज ने इसके लिए आठवें अध्याय में निम्नलिखित सूत्र का विधान किया है –
असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१२॥ उदात्तः ।

यहाँ 'बहुव्रीहेः' शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं है । प्रसङ्गवश यह स्पष्ट है । अब देखिए गु॰सं॰ में सङ्गत सूत्रपाठ एवम् उसकी व्याख्या -

"बहुव्रीहेः सख्यादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१४॥
सूत्रार्थः - (स्वरविषये) संख्यादेः अव्ययादेः ऊधस्शब्दान्तात् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीप् प्रत्यय उदात्तो भवति ।"

स्पष्ट है कि गु॰सं॰ का सूत्र पाणिनिसूत्र के ठीक विपरीत कार्य का विधान करता है ।

अब हम भोजसूत्र 'स्त्रियां क्यपः' (८।३।२६) पर विचार करते हैं जिसे गु॰सं॰ में बदल कर 'व्रजयजोः स्त्रियां क्यपः' (८।३।२६) कर दिया गया है । पाणिनि सूत्र 'व्रजयजोर्भावे क्यप्', 'संज्ञायाम् समज-निषद-निपद-मन-विद-षुञ्-शीङ्-भृञिणः', 'कृञः श च' (पा॰ ३।३।९८-१००) में 'स्त्रियाम्' एवम् 'उदात्तः' की अनुवृत्ति क्रमशः सूत्र ९४ एवं ९६ से आती है । 'क्यप्' की अनुवृत्ति सूत्र संख्या १०० तक जाती है । अतः क्यप् प्रत्यय इन तीनों सूत्रों में उदात्त है, न कि केवल सूत्र ९८ के लिए । भोज ने सङ्गत क्यप् प्रत्यय का प्रावधान सूत्र २।४।१२६-१३१ में किया है । इन सभी सूत्रों में आये हुए क्यप् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए भोज ने 'स्त्रियां क्यपः' सूत्र बनाया है ।

पाणिनिसूत्र 'भवतष्ठक्छसौ' (पा॰ ४।२।११५) के अनुसार भवत् (त्यदादिगण में पठित) से शैषिक ठक् प्रत्यय होता है । ‘कितः’ (पा॰ ६।१।१६५) से ठक् प्रत्ययान्त शब्द 'भावत्कः' अन्तोदात्त होता है । भोजसूत्र 'भवतो दश्च', 'ठञ् च' (४।३।४२-४३) से 'भावत्कः' ठञ्प्रत्ययान्त हो जाता है और 'ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति' (८।३।७६) से आद्युदात्त प्राप्त होता है, परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः इसके लिए अलग सूत्र की आवश्यकता है । अगर भोज ने 'ठक् च' (४।३।४३) सूत्र बनाया होता तो 'भवतष्ठकः' जैसे सूत्र की जरूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि भोजसूत्र 'तद्धितस्य कितः' (८।३।३०) से ही 'भावत्कः' अन्तोदात्त हो जाता है । अतः मद्रास संस्करण का सूत्र 'भवतष्ठञः' (८।३।३२) सही है ।

अब हम भोजसूत्र 'तसादिश्चेदमः' (८।३।४४), अनु॰ - अशिसुट्, उदात्तः’ पर विचार करते हैं । यह निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है -
ऊडिदंपदाद्यप्पुम्रैद्युभ्यः ॥६।१।१७१॥ असर्वनामस्थानम्, विभक्तिः, उदात्तः ।

पाणिनि मुनि ने विभक्ति की परिभाषा दो सूत्रों से दी है -
विभक्तिश्च ॥१।४।१०३॥ सुपः, तिङः ।
प्राग्दिशो विभक्तिः ॥५।३।१॥

इस दूसरे सूत्र पर निम्नलिखित भाष्य पाया जाता है -
"विभक्तित्वे किं प्रयोजनम् ।............
इदमो विभक्तिस्वरश्च ॥३॥
इदमो विभक्तिस्वरश्च प्रयोजनम् । इतः । इह । इदमस्तृतीयादिर्विभक्तिरुदात्ता भवतीत्येष स्वरः (पा॰ ६।१।१७१) सिद्धो भवति ।"

स॰कं॰ में पा॰सू॰ १।४।१०३ का सङ्गत सूत्र 'तिङ् सुपो विभक्तिः' (१।१।१९) है, किन्तु पा॰सू॰ ५।३।१ का परित्याग किया गया है । अतः अष्टाध्यायी में सूत्र ५।३।१ के बाद 'दिक्' शब्द के पहले-पहले तक जो तासिलादि प्रत्ययों की भी विभक्ति संज्ञा की गई है, उसका उपर्युक्त वार्त्तिक में प्राप्त भाष्य के अनुसार इदम् के विभक्ति-स्वर का प्रावधान स॰कं॰ में न केवल तृतीयादि सुप् विभक्ति को बल्कि तसादि (स॰कं॰ में 'तसिल्' के बदले 'तस्' प्रत्यय पठित है) प्रत्ययों को भी उदात्त स्वर प्राप्त कराने के लिए भोज ने 'तसादिश्चेदमः' सूत्र रचा है । चकार से 'शि' और 'सुट्' के अतिरिक्त सुप् विभक्ति को भी उदात्त प्राप्त होगा । गु॰सं॰ में इस सूत्र को बदलकर 'शसादिश्चे-दमः' कर दिया गया है । 'अशिसुट्' की अनुवृत्ति आने से 'शसादि' कहने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि 'सुट्' को छोड़कर अन्य 'शसादि' ही बचते हैं ।

अब भोजसूत्र 'सोदरद्यत्' (८।३।१०१) पर विचार करें । गु॰सं॰ में इसे बदलकर 'सोदराद् यः' (८।३।१०५) कर दिया गया है जिसकी वृत्ति इस प्रकार है –
'(स्वरविषये) सोदरशब्दात् (सप्तमीसमर्थात् शयित इत्यर्थे) यः प्रत्यय उदात्तो भवति ।'

यदि भोज ने 'सोदर' शब्द से 'यः' प्रत्यय का प्रावधान किया होता तो स्वरसिद्धि के लिए अलग से आठवें अध्याय में सूत्र की जरूरत ही नहीं पड़ती; प्रत्ययस्वर से ही 'सोदर्यः' शब्द अन्तोदात्त हो जाता । परन्तु स॰कं॰ में 'सोदर' से यत् प्रत्यय निम्नलिखित सूत्रों से प्राप्त होता है -

समानोदरे शयिते यत् ॥४।४।१८०॥
उदरे वा ॥६।२।१२४॥ ये, समानस्य, सः, उत्तरपदे ।

इस दूसरे सूत्र पर दण्डनाथवृत्ति इस प्रकार है -
"उदरशब्दे यत्प्रत्ययान्त उत्तरपदे परतः समानशब्दस्य सादेशो वा भवति । समानोदरे शयितः सोदर्यः समानोदर्यः । 'समानोदरे शयित' इति यत् ।"

'तित् स्वरितम्' (स॰कं॰ ८।३।५९) से यत् प्रत्यय को स्वरित होता है, परन्तु यहाँ उदात्त इष्ट है । इसलिए 'सोदर्यः' की स्वरसिद्धि के लिए 'सोदराद् यत्' जैसे सूत्र की जरूरत है । स्पष्ट है कि गु॰सं॰ में पाणिनिसूत्र 'सोदराद्यः' (४।४।१०९) को जबरदस्ती थोपा गया है ।

अब हम भोजसूत्र 'अपूतक्रतोर्ङ्यामैत्' (८।३।१०२), अनु॰ - उदात्तः, पर विचार करते हैं । यह सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्रों पर आधारित है -

पूतक्रतोरै च ॥४।१।३६॥ अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।
वृषाकप्यग्नि-कुसित-कुसीदानामुदात्तः ॥४।१।३७॥ ऐ, अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।
मनोरौ वा ॥४।१।३८॥ उदात्तः, ऐ, अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।

इन पाणिनिसूत्रों में पूतक्रतु, वृषाकपि, अग्नि, कुसित, कुसीद एवं विकल्प से मनु को ऐकारादेश कहा है, किन्तु उदात्त ऐ 'पूतक्रतु' को छोड़कर बाकी सभी में कहा है । भोज ने स॰कं॰ के लौकिक भाग में उपर्युक्त पाणिनिसूत्रों के लिए निम्नलिखित सूत्र दिये हैं -

पूतक्रतु-वृषाकप्यग्नि-कुसित-कुसीदानामै च ॥३।४।८१॥
मनोरौ च वा ॥३।४।८२॥

'ऐ' को उदात्त बनाने के लिए भोज ने आठवें अध्याय में उपर्युक्त सूत्र दिया है जो सही है । गु॰सं॰ में इसे बदलकर 'पूतक्रतोर्ङ्यामैत्' (८।३।१०६) कर दिया गया हे, इसका सूत्रार्थ एवं व्याख्या निम्नलिखित हैं -

"(स्वरविषये) पूतक्रतुशब्दस्य ङीप्रत्यये परतः स्त्रियां य ऐकार अन्तादेश स उदात्तो भवति ।
उदा॰ - पूतक्रतायी, पूतक्रतायै । अहीं पूतक्रतु शब्दने पूतक्रतोः स्त्री अे अर्थमां ङीप् प्रत्यय लागतां पूतक्रतायी शब्द बने छे, अने अे प्रत्ययना स्थाने ऐकारादेश थतां पूतक्रतायै शब्द बने छे ।"

न केवल उपर्युक्त सूत्र के मामले में बल्कि 'पूतक्रतायै' की रूपसिद्धि में भी सम्पादक महोदय भ्रान्त प्रतीत होते हैं । 'पूतक्रतायै' शब्द 'पूतक्रता' से बनता है, न कि 'पूतक्रतायी' से । सूत्र में जो ऐकारादेश कहा गया है वह भोजसूत्र 'षष्ठयान्तस्य' (१।२।३०) से 'पूतक्रतु' के अन्तिम अल् 'उ' के स्थान में होता है, न कि प्रत्यय के ।

भोजसूत्र 'अनिविभ्यामन्तः' (८।४।२०४) को समझने के लिए पाणिनिसूत्र और भोजसूत्र को हम साथ-साथ रखते हैं ।
 
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पा॰ सू॰ स॰ कं॰ सू॰
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वनं समासे ॥६।२।१७८॥ वनं समासे ॥८।४।२०२॥
अन्तः ॥६।२।१७९॥ अन्तरश्च ॥८।४।२०३॥

अन्तश्च ॥६।२।१८०॥ अनिविभ्यामन्तः ॥८।४।२०४॥
न निविभ्याम् ॥६।२।१८१॥
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पाणिनिसूत्र ६।२।१८०-१८१ पर काशिकावृत्ति इस प्रकार है -

"अन्तश्च (६।२।१८०) - अन्तश्शब्दश्चोत्तरपदमुपसर्गादन्तोदात्तं भवति ।
प्रा॒न्तः । पर्यन्तः । बहुव्रीहिरयं प्रादिसमासो वा ।
न निविभ्याम् (६।२।१८१) - नि वि इत्येताभ्यामुत्तरोऽन्तश्शब्दो नान्तोदात्तो भवति । न्य॑न्तः । व्य॑न्तः ।"

भोज ने एक ही सूत्र ८।४।२०४ में पाणिनि के दोनों सूत्रों ६।२।१८०-१८१ को समा लिया है । डॉ॰ कंसारा के भोजसूत्र ८।४।२०४ को पाणिनिसूत्र ६।२।१८१ जैसा बना दिया है, जिससे पा॰ सू॰ ६।२।१८० का सङ्गत सूत्र गु॰ सं॰ से गायब हो गया है ।
भोजसूत्र 'अनिविभ्यामन्तः' का अर्थ है - 'नि' और 'वि' को छोड़कर अन्य उपसर्ग से उत्तरपद में आये अन्तशब्द को अन्तोदात्त होता है । उदा॰ - प्रा॒न्तः । प॒र्य॒न्तः ।
अनिविभ्यामिति किम् ? न्य॑न्तः । व्य॑न्तः ।

तालिकाः मद्रास संस्करण के शुद्ध स्वर सूत्र जो गुजराती
संस्करण में परिवर्त्तित एवम् अशुद्ध हैं ।
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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१. हियासामः ॥८।३।११॥ हिमारण्याभ्याम् ॥८।३।१३॥
२. असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप् बहुव्रीहेः संख्यादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१४॥
॥८।३।१२॥
३. स्त्रियां क्यपः ॥८।३।२६॥ व्रजयजोः स्त्रियां भावे क्यपः ॥८।३।२६॥
४. भवतष्ठञः ॥८।३।३२॥ भवतष्ठकः ॥८।३।३४॥
५. तसादिश्चेदमः ॥८।३।४४॥ शसादिश्चेदमः ॥८।३।४६॥
६. सोदराद्यत् ॥८।३।१०१॥ सोदराद् यः ॥८।३।१०५॥
७. अपूतक्रतोर्ङ्यामैत् ॥८।३।१०२॥ पूतक्रतोर्ङ्यामैत् ॥८।३।१०६॥
८. अनिविभ्यामन्तः ॥८।४।२०४॥ न निविभ्यामन्तः ॥८।४।२०८॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८, फरवरी १९९९, अगस्त १९९९ एवं जनवरी २०००.
2. कुछ लोग आमन्त के साथ गतिसमास न कर तरबन्त या तमबन्त के साथ समास करके बाद में आम् प्रत्यय का विधान करते हैं और कहते हैं कि सतिशिष्टस्वर से 'आम्' को उदात्त स्वर प्राप्त हो जाता है । इस स्थल पर हरदत्तमिश्र ने भाष्यकार का आशय स्पष्ट किया है और कहा है - "प्रशब्दस्यामन्तेन समासोऽङ्गीकर्त्तव्यः, न तरबन्तेन ।" देखें, स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका भी, पृष्ठ १८४.

(वेदवाणी, जून २०००, पृ॰ १२-१८, में प्रकाशित)

Friday, April 18, 2008

9. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (७)

Synopsis

In this concluding article on the correction of सूत्रपाठ of ch. VIII of SKA, thirty-three further such sutras are presented, whose readings are incorrect in both the editions. These published sutras are divided into the following five groups (see Tables 1-5):
1. Sutras which are incompatible with the style of Bhoja.
2. Sutras related to गणपाठ.
3. Sutras containing the नदीसंज्ञा. Bhoja has rejected this संज्ञा (technical term).
4. Sutras which are perfectly correct in the manuscript, but both the editors have unnecessarily modified them to Panini sutras.
5. Sutras with errors of mixed type.

सरस्वतीकण्ठाभरण के दोनों संस्करणों में आठवें अध्याय के अशुद्ध सूत्रपाठ की शुद्धि सम्बन्धी इस अन्तिम लेख में कुल ३३ सूत्र प्रस्तुत किये गये हैं । इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है (देखें तालिका १-५) । अधिकतर स्थलों में स्पष्टीकरण की जरूरत नहीं पड़ेगी, ऐसी हम आशा करते हैं । अतः कुछ चुने हुए सूत्रों के बारे में ही चर्चा की जा रही है ।
शैली सम्बन्धी अशुद्धिवाले सूत्रपाठ
भोजदेव की यह शैली है कि वे अपने सूत्रों में एकत्वबोधक के लिए एकवचन, द्वित्व बोधक के लिए द्विवचन एवं बहुत्व के लिए बहुवचन का ही प्रयोग करते हैं ।
सूत्र 'अश्वाघस्यात्' में 'अश्व' और 'अघ' का जहाँ समाहार द्वन्द्व और इसलिए एकवचन पाणिनिसूत्र ७।४।३७ में प्राप्त होता है, वहाँ भोजसूत्र शैली के अनुसार द्वित्वबोधक होने से द्विवचन का ही प्रयोग होना चाहिये । सूत्र 'कृत्योकेष्णुचः' (८।४।१७२) में प्रथमा बहुवचन का प्रयोग उचित है । बहुत्व बोधक होते हुए भी दोनों संस्करणों में एकवचन का रूप रखा गया हे जो भोज की शैली के विरुद्ध है । पाण्डुलिपि में इस सूत्र का पाठ 'कृत्योकेष्णु च' है, न कि 'कृत्योतेष्णु च' जैसा कि म॰सं॰ में छपा है । सूत्र 'तृन्नन्नतीक्ष्णुशुचिनि वा' में बहुत्व बोधक के लिए भी (सप्तमी) एकवचन का प्रयोग अटपटा लगता है । भोजसूत्र की शैली के अनुसार यहाँ सप्तमी विभक्ति नहीं, बल्कि प्रथमा का प्रयोग अभीष्ट है । अतः मूल सूत्रपाठ में 'तृन्न.... शुचीनि वा' ऐसा पाठ रहा होगा । भोजसूत्र ८।४।१८० में 'प्रथमपूरणे' को गुजराती संस्करण में पाणिनिसूत्र थोपकर 'प्रथमपूरणयोः' कर दिया गया हे, जबकि पाण्डुलिपि में सही पाठ 'प्रथमपूरणे' (प्रथमा विभक्ति द्विवचन) है । भोजसूत्र ८।४।१९० का पाण्डुलिपि में पाठ 'वा जातः' है, जिसकी जगह दोनों संस्करणों में पाणिनिसूत्र थोपकर 'वा जाते' कर दिया गया है । यहाँ प्रथमा विभक्ति में प्रयुक्त 'जातः' भोज शैली के अनुसार सही है । सूत्र ८।४।२०५ में पाण्डुलिपि में प्रथमा द्विवचन का प्रयोग सही है जबकि इसकी जगह गु॰सं॰ में पाणिनिसूत्र थोपा गया है । पाण्डुलिपि में प्राप्त सूत्रपाठ 'अहन् राजानोछन्दसि॰' को बिना सोचे-समझे बदलकर गु॰सं॰ में काशिका का गणसूत्र 'राजाह्नोश्छन्दसि' रख दिया गया है जहाँ प्रथमा के बदले षष्ठी का प्रयोग है । मद्रास संस्करण में 'राजानोऽच्छन्दसि' में अवग्रह चिह्न सम्पादक महोदय की मेहरबानी है । यहाँ भोज की सूत्र शैली के अनुसार 'अहन्-राजानौ छन्दसि' पाठ अभीष्ट है ।

गणपाठ से सम्बन्धित अशुद्ध सूत्रपाठ
सूत्र ८।४।६६ दोनों संस्करणों में एक सूत्र के रूप में पठित है । थोड़ा ध्यान से देखा जाय तो स्पष्ट हो जायेगा कि वस्तुतः यहाँ एक नहीं बल्कि दो सूत्र हैं । पाण्डुलिपि में 'कपिवैलौश्यापर्णेये' पाठ प्राप्त होता है जिसे म॰सं॰ में 'कपिपैलश्यापर्णेये' कर दिया गया है । इसका सही पाठ 'कपिपैलौ श्यापर्णये' होना चाहिये ।
सूत्र ८।४।९२ के लिए दोनों संस्करणों में 'युक्तारोही' ऐसा पाठ पाया जाता है । परन्तु पाण्डुलिपि में 'युक्त आरोहणी' पाठ मिलता है । अतः इसका शुद्ध पाठ 'युक्त आरोहिणि' ही होना चाहिये ।

पाण्डुलिपि में शुद्ध परन्तु दोनों संस्करणों में परिवर्तित सूत्र
भोजसूत्र ८।१।११७ पाणिनिसूत्र 'अग्राद् यत् । घच्छौ च ।' (पा॰ ४।४।११६-११७) पर आधारित है । अष्टाध्यायी में 'प्राग्घिताद् यत्' (पा॰ ४।४।७५) में 'यत्' का अधिकार 'तस्मै हितम्' (पा॰ ५।१।५) से पहले-पहले तक जाता है । अतः सूत्र 'अग्राद् यत्' (पा॰ ४।४।११६) की वृत्ति में काशिकाकार टिप्पणी करते हैं - "किमर्थमिदं यावता सामान्येन यद् विहित एव ? 'घच्छौ च' (४।४।११७) इति वक्ष्यति, ताभ्यां बाधा मा भूदिति पुनर्विधीयते ।" भोज ने अन्य समाधान ही निकाला है । 'प्राक् परिमाणाद् यत्' (स॰कं॰ ८।१।११२) से 'यत्' का अधिकार आता है । पाणिनि सूत्र ४।४।११६-११७ का सङ्गत भोजसूत्र 'अग्राद् घच्छौ वा' है, जिसका अर्थ है - "अग्र शब्द से 'घच्' और 'छ' प्रत्यय विकल्प से होते हैं, 'तत्र भवः' इस अर्थ में ।" जब ये प्रत्यय नहीं होंगे तो यथाप्राप्त 'यत्' प्रत्यय होगा ।
पाणिनिसूत्र 'नदी बन्धुनि' (६।२।१०९) का सङ्गत भोजसूत्र 'ङी बन्धुनि' है । भोज ने नदी संज्ञा का परित्याग किया है, इसका ध्यान दोनों में से किसी सम्पादक महोदय को नहीं रहा । अतः दोनों ने पाणिनिसूत्र ही थोपा है । यह सत्य है कि ङी-प्रत्ययान्त शब्द की अपेक्षा नदीसंज्ञक शब्द में ज्यादा व्यापकता है । परन्तु काशिका, महाभाष्य, स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका इत्यादि में ङी-प्रत्ययान्त को छोड़कर कोई अन्य उदाहरण उपर्युक्त सूत्र के सन्दर्भ में मिलता ही नहीं है ।
भोजसूत्र ८।४।१६९ पाणिनिसूत्र 'ऊनार्थकलहं तृतीयायाः' (६।२।१५३) पर आधारित है जिसका अर्थ है - तृतीयान्त से परे ऊनार्थवाची एवं कलह शब्द उत्तरपद को अन्दोदात्त होता है । इस सूत्र पर काशिकाकार टिप्पणी करते हैं - "अत्र केचिदर्थ इति स्वरूपग्रहणमिच्छन्ति । धान्येनार्थो धा॒न्या॒र्थः ।" काशिकाकार के इस वचन को भोज ने शामिल करके 'अर्थोनार्थकलहास्तृतीयायाः' सूत्र का निर्माण किया है ।

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सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ प्रस्तावित शुद्धपाठ
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तालिका १ : शैली सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. अश्वाघस्यात् अश्वाघस्यात् अश्वाघयोरात् ।
॥८।२।९५॥ ॥८।२।९८॥

२. कृत्योकेष्णुच् कृत्योकेष्णुच् कृत्योकेष्णुचः ।
॥८।४।१७२॥ ॥८।४।१७८॥

३. अहन् ॥८।४।१७६॥ राजाह्नोश्छन्दसि अहन्‌राजानौ छन्दसि ।
॥८।४।१८२॥
४. राजानोऽच्छन्दसि
॥८।४।१७७॥

५. तृन्नन्नतीक्ष्णशुचिनि तृन्नन्नतीक्ष्णशुचिनि तृन्नन्नतीक्ष्णशुचीनि वा ।
वा॥८।४।१७९॥ वा ॥८।४।१८४॥

६. बहुव्रीहविदमेतत्तद्भ्यः बहुव्रीहाविदमेतत्तद्भ्यः बहुव्रीहाविदमेतत्तद्भ्यः
प्रथमपूरणे क्रियागणने प्रथमपूरणयोः प्रथमपूरणे क्रियागणने ।
॥८।४।१८०॥ क्रियागणने
॥८।४।१८५॥

७. वा जाते ॥८।४।१९०॥ वा जाते ॥८।४।१९५॥ वा जातः ।

८. परिरभितो भाविमण्डले परेरभितोभावि परेरभितोभावि मण्डले ।
॥८।४।२०५॥ मण्डलम् ॥८।४।२०५॥
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तालिका २ : गणपाठ सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. कार्तकौजप... कार्तकौजप... कार्तकौजप...
स्त्रीकुमारेषु कपि स्त्रीकुमारकपिपैल- स्त्रीकुमारेषु ।
पैलश्यापर्णेये श्यापर्णेयेषु कपिपैलौ श्यापर्णेये ।
॥८।४।६६॥ ॥८।४।६८॥

२. युक्तारोही योधि युक्तारोही ॥८।४।९१॥ युक्त आरोहिणि ।
प्रहारिषु चागतः रोहियोधिप्रहारिषु योधि-वञ्चि-नर्दि-
॥८।४।९२॥ चागतः ॥८।४।९२॥ प्रहारिषु चागतः ।

३. चारुसाधु... चारुसाधु... चारुसाधु...
पदान्यकस्मात् वदान्याकस्मात् वदान्याकस्माद्
॥८।४।१७३॥ ॥८।४।१७९॥ गृहपतिगृहपतिकाः ।

४. गृहपति गृहपतिकाः गृहपतिगृहपतिकौ
॥८।४।१७४॥ ॥८।४।१८०॥
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तालिका ३ : नदी संज्ञा (भोज द्वारा बहिष्कृत) सम्बन्धी अशुद्धि वाले सूत्रपाठ
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१. सम्बुद्धौ द्यूदम्बार्थानाम् सम्बुद्धौ नद्यम्बार्थानाम् सम्बुद्धौ ङ्यम्बार्थानाम् ।
॥८।२।९०॥ ॥८।२।९२॥

२. शतुरौ मेङ्यजादि शतुरनुमो नद्यजादी शतुरनमो ङ्यजादी ।
॥८।३।४५॥ ॥८।४।४७॥
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तालिका ४ : पाण्डुलिपि में शुद्ध परन्तु प्रकाशन में परिवर्तित सूत्रपाठ
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१. अग्राद्यद्घच्छौ वा अग्राद् यत् अग्राद् घच्छौ वा ।
॥८।१।११७॥ ॥८।१।११५॥
घच्छौ च ॥८।३।११६॥

२. हेति क्षियायाम् हेति क्षियायाम् हेन क्षियायाम् ।
॥८।३।२३४॥ ॥८।३।२३७॥

३. अहेति विनियोगे अहेति विनियोगे च अहेन विनियोगे च ।
च ॥८।३।२३५॥ ॥८।३।२३८॥

४. नदी बन्धुनि नदी बन्धुनि ङी बन्धुनि ।
॥८।४।१२१॥ ॥८।४।१२५॥

५. ऊनार्थकलहास्तृ- ऊनार्थकलहाः ऊर्थोनार्थकलहास्तृतीयायाः ।
तीयाः तृतीयायाः
॥८।४।१६९॥ ॥८।४।१७५॥
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तालिका ५ : अन्य अशुद्ध सूत्रपाठ
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१. नः संख्याया नः संख्याया नः संख्याया असंख्यादेः
असंख्यादेः असंख्यादेर्डटो मट् पूरणे थड् वा ।
॥८।१।१४८॥ ॥८।४।१४८॥
पूरणे थड् वा
॥८।१।१४९॥
२. पूरणे थड् वा परिपन्थिपरिपरिणौ परिपन्थिपरिपरिणौ
परिपन्थपरिपणौ पर्यवस्थातरि पर्यवस्थातरि ।
पर्यवस्थातरि ॥८।१।१५०॥
॥८।१।१४९॥


३. इवार्थे प्रत्नपूर्व- इवार्थे प्रत्नपूर्व- इवार्थे प्रत्न-
विश्वेभ्यस्थाल् विश्वेमाभ्यस्थाल् पूर्वविश्वेमेभ्यस्थाल् ।
॥८।१।१५९॥ ॥८।१।१६०॥

४. सहे क्त्वासाढ्वै सहेः क्त्वात् साढ्वै सहेः क्त्वास्साढ्यै
साद्वातृस्साढा साढ्वा तृचि साढा साढ्वा तृचस्साढा ।
॥८।२।३६॥ निगमे ॥८।२।३६॥

५. श्रु-शृणु-पॄ-कृ- श्रु-शृणु-पृ-कृ- श्रु-शृणु-पॄ-कृ-
वृभ्यो हेद्धिः वृभ्यो हेर्धिः वृभ्यो हेर्धिः ।
॥८।२।५८॥ ॥८।२।५९॥

६. ऋभ्यां मतोर्वः इऋभ्यां मतोर्वः इर्भ्यां मतोर्वः ।
॥८।२।१०७॥ ॥८।२।१११॥

७. उदस्कन्देर्लोपः उदस्कन्देर्लोपः उदस्स्कन्देर्लोपः ।
॥८।२।१४७॥ ॥८।२।१५४॥

८. धातुस्थोरुभ्यो हनः धातुस्थोरुषुभ्यो नः धातुस्थोरुषुभ्यो नसः ।
॥८।२।१४९॥ ॥८।२।१५६॥

९. उत्तरोत्तरशश्वत्तमाः उत्तमशश्वत्तमौ उत्तरोत्तमशश्वत्तमाः ।
॥८।३।२३॥ ॥८।३।२६॥

१०. लोट् यत् लोटा च लोट् च ।
॥८।३।२२६॥ ॥८।३।२२९॥

११. शीलिकामिभक्ष्या- शीलिकामिभिक्ष्या- शीलिकामिभक्ष्या-
चरिभ्यो णो चरिभ्यो णः चरीक्षिक्षमिभ्यो णः ।
वर्णोनेते ॥८।४।५॥ ॥८।४।५॥
वर्णो वर्णेष्वनेते वर्णो वर्णेष्वनेते ।
॥८।४।६॥

१२. कूलतीर.... कूलतीर.... कूलतीर....
सामान्याव्ययीभावे समाव्ययीभावे समान्यव्ययीभावे ।
॥८।४।१३४॥ ॥८।४।१३८॥

१३. थाथघञ्क्ताजबि- अतः ॥८।४।१६१॥ थाथघञ्क्ताजबित्रकाणामन्तः ।
त्राकाणाम् थाथघञ्क्ताजबित्र-
॥८।४।१५७॥ काणाम् ॥८।४।१६२॥

१४. प्रश्नान्ताभिपूज- प्रश्नान्ताभिपूजि- प्रश्नान्ताभिपूजि-
विदास्वनुदात्तः तोपरिस्वदासीत्स्वनुदात्तः तचिदुपरिस्विदासीत्स्वनुदात्तः ।
॥८।४।२२६॥ ॥८।४।२२९॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८, फरवरी १९९९ एवम् अगस्त १९९९.

(वेदवाणी, जनवरी २०००, पृ॰ १७-२१, में प्रकाशित)

8. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (६)

(स्वर एवं वैदिक प्रकरण)

Synopsis

A comparative study of Panini and Bhoja sutras2 indicates that the sutras corresponding to P(anini) 6.2.156-159 are missing in SKA. In this article it is shown with proof that the original SKA did contain the sutras parallel to P.6.2.156-159. It is due to the careless omission by the copyist of complete one line of सूत्रपाठ that the available SKA Ms reads 'नञः स्वार्थनिषेधे-शोभ्यर्हयां च' as one sutra 8.4.171. But actually there is a gap between 'र्ह' and 'यां' i.e. 'नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्ह ................ यां च ।' Along with this, another three corrupted sutras from ch. VIII of SKA are also discussed whose readings are incorrect in both the editions (see the Table at the end).

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के चार अन्य सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ दोनों संस्करण में अशुद्ध हैं ।

सर्वप्रथम हम सूत्र ८।४।१७१ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि/मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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नञः स्वार्थनिषेधेशोभ्यर्हयां च नञो निषेधे स्वार्थेशोभ्यर्हार्थाश्च
॥८।४।१७१॥ ॥८।४।१७७॥
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पाणिनि और भोजसूत्रों के तुलनात्मक अध्ययन3 से पता चलता है कि स॰कं॰ में पाणिनि सूत्र ६।२।१५६-१५९ (ययतोश्चातदर्थ । अच्कावशक्तौ । आक्रोशे च । संज्ञायाम् ।) में सङ्गत सूत्र नहीं हैं । पाणिनिसूत्र 'नञो गुणप्रतिषेधे संपाद्यर्हहितालमर्थास्तद्धिताः' (६।२।१५५) का 'हितालमर्थास्तद्धिताः' अंश भी स॰कं॰ सूत्र ८।४।१७१ में लुप्त है । हमारा विचार है कि इस भोजसूत्र में 'र्ह' और 'यां' के बीच रिक्तता है - 'नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्ह ........ यां च ।' यह रिक्तता प्रतिलिपिकर्ता के द्वारा प्रतिलिपि करते समय मूल सूत्रपाठ की एक पूरी पंक्ति अनवधानतावश छूट जाने के कारण उत्पन्न हुई है । ऐसी अनवधानता अस्वाभाविक नहीं है । डॉ॰ भीमसेन शास्त्री ने भी 'न्यास पर्यालोचन' में इसका एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है4 - "वस्तुतः यहाँ पर न्यासकार का कोई दोष नहीं । प्राच्यसंस्करण के कम्पोजीटरों ने राजशाही संस्करण को सामने रखकर कम्पोज करते समय अनवधानतावश पूरी एक पंक्ति ही छोड़ दी, सम्पादक मण्डल ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया ।" स॰कं॰ में उपर्युक्त रिक्तता के बारे में हम निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत करते हैं -

१. भोजसूत्र 'दाञ्धाञोर्वा' (१।३।२१६) की दण्डनाथवृत्ति में लिखा है - "दद्दधोरचा सिद्धे दाधोः श-विधानम् 'अच्कावशक्तम्' इत्यन्तोदात्तत्त्वबाधनार्थम् । तेन अददः, अदध इति नञ्स्वर एव भवति।"5 इससे सिद्ध होता है कि पाणिनिसूत्र ६।२।१५७ का संगत सूत्र स॰कं॰ में अवश्य था जो उपलब्ध संस्करण में नहीं है ।

२. सूत्र ८।४।१७१ के अन्त में 'शोभ्यर्हायां च' नहीं, बल्कि 'शोभ्यर्हयां च' प्राप्त होता है । इससे भी शङ्का उत्पन्न होती है कि - 'शोभ्यर्ह' और 'यां च' के बीच कुछ रिक्तता है । अगर 'शोभ्यर्हायां च' पाठ माना जाय तो भी बात नहीं बनती, क्योंकि द्वित्वबोधक ('शोभि' और 'अर्हा') में सप्तमी एकवचन का प्रयोग अटपटा लगता है । भोजसूत्र की शैली ऐसी है कि वे एकत्वबोधक के लिए एकवचन, द्वित्वबोधक के लिए द्विवचन एवं बहुत्व के लिए बहुवचन का ही प्रयोग करते हैं ।
पाणिनि के 'गुणप्रतिषेधे' में 'गुण' शब्द की व्याख्या काशिकावृत्ति में इस प्रकार है - "गुण इति तद्धितार्थप्रवृत्तिनिमित्तं सम्पादित्वाद्युच्यते ।" 'गुणप्रतिषेधे' के लिए भोज ने और स्पष्ट शब्द 'स्वार्थनिषेधे' का प्रयोग किया है । गु॰सं॰ के इस समस्त शब्द को तोड़कर एवं उलटकर लिखा गया है । ऐसा करने से सूत्रार्थ स्पष्ट होने के बजाय और भी क्लिष्ट एवं भ्रामक होगा जैसा कि डॉ॰ कंसारा द्वारा दिये गये सूत्रार्थ से ही पता चलता है -

"(स्वरविषये) स्वार्थ (= सम्पादि, हित), ईश (= अलम्), अर्ह इत्येवमर्था ये ......... ।"

उन्होंने 'अलम्' अर्थ को 'स्वार्थ' के अन्तर्गत न समझकर इसके लिए अलग से 'ईश' शब्द की कल्पना की है । पाणिनिसूत्र 'सम्पादिनि' (५।१।९९) का सङ्गत भोजसूत्र 'शोभते' (५।१।१०३) है । कात्यायन-वार्त्तिक 'इक्श्तिपौ धातुनिर्देशे' का सङ्गत भोजसूत्र 'इकिश्तिपः स्वरूपे' (२।४।१८१) है । 'शुभ दीप्तौ' में 'इ' प्रत्यय लगाने से बना 'शोभि' शब्द धातु का स्वरूप निरूपित करता है । अतः पा॰ ६।२।१५५ के 'सम्पाद्यर्ह' अंश के लिए स॰कं॰ में 'शोभ्यर्ह' का प्रयोग उचित है ।
उपर्युक्त विवेचन के बाद एवं भोज की सूत्रशैली का ध्यान रखते हुए हम सूत्र ८।४।१७१ के निम्नलिखित शुद्धरुप प्रस्तावित करते हैं -
"नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्हहितालमर्थास्तद्धिताः । य-यतौ चातदर्थे । अच्कावशक्तौ । आक्रोशे च । संज्ञायां च ।"

इसके बाद हम अन्य भ्रष्ट सूत्र ८।४।१९९ पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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कन्वेकाचिबहोर्नञ्समानाधिकरणे कप्येकाचि बहोर्नञ् समानाधिकरणे
॥८।४।१९९॥ ॥८।४।२०३॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “कण्वेकाचि. बहोर्नत्समानाधिकरणे.”

दोनों प्रकाशित संस्करणों में इन दो सूत्रों को एक सूत्र के रूप में रखा गया है । हमारे मत में इन दो सूत्रों के सही पाठ क्रमशः 'कबेकाचि' एवं 'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' हैं जिनकी व्याख्या नीचे दी जाती है ।

'कबेकाचि ॥८।४।१९९॥ अनु॰ - नञ्सुभ्याम्, ह्रस्वान्ते, कपि, उदात्तः ।'
सूत्रार्थः - नञ्सुभ्यां परे कपि परतः ह्रस्वान्ते एकाचि उत्तरपदे कबेव उदात्तो भवति । अ॒ज्ञ॒कः । सु॒ज्ञ॒कः । 'कपि' इति पृथग् ग्रहणात् तद्व्यतिरिक्तमेव उत्तरपदं गृह्यते ।6 यहाँ नञ् (='अ') एवं 'सु' के परे 'ज्ञ' यह ह्रस्वान्त एकाच् उत्तरपद है जिसके आगे कप् प्रत्यय है । यह सूत्र 'ह्रस्वान्तेऽन्त्यात्पूर्वम्' (पा॰ ६।२।१७४) की काशिकावृत्ति पर आधारित है - "पूर्वमिति वर्त्तमाने पुनः पूर्वग्रहणम् प्रवृत्तिभेदेन नियमप्रतिपत्त्यर्थम् ह्रस्वान्तेऽन्त्यादेव पूर्वमुदात्तं भवति, न कपिपूर्वमिति । तेन अ॒ज्ञ॒कः, सु॒ज्ञ॒कः इत्यत्र कबन्तस्यैवान्तोदात्तत्वं भवति ।"

'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' पाणिनिसूत्र 'बहोर्नञ्वदुत्तरपदभूम्नि' (६।२।१७५) पर आधारित है जिसका अर्थ है - उत्तरपदार्थ के भूम्नि (=बहुत्व) को कहने में वर्त्तमान जो बहु शब्द उससे नञ् के समान स्वर होता है । नञ्सुभ्याम् (पा॰ ६।२।१७२) इत्युक्तम्, बहोरपि तथा भवति – ब॒हु॒य॒वो देशः (बहवः यवाः यस्मिन् सः) । उत्तरपदभूम्नोति किम् ? बहुषु मनोऽस्य ब॒हुम॑ना अयम् । अत्रोत्तरपदबहुत्वे बहुशब्दो न वर्तते ।

भोज ने 'उत्तरपदभूम्नि' के बदले और स्पष्ट रूप से 'समानाधिकरणे' का प्रयोग किया है । इस सूत्र का अर्थ है - बहुब्रीहि समास में समानाधिकरण में आये उत्तरपद के रहते 'बहु' शब्द को नञ् के समान स्वर होता है । 'ब॒हु॒य॒वो देशः' में 'बहु' और 'यव' दोनों पद समानाधिकरण में है । 'बहुमना अयम्' में 'बहु' और 'मनः' के समानाधिकरण में नहीं होने से नञ् के समान स्वर अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता ।

पाण्डुलिपि में 'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' के बदले 'बहोर्नत्समानाधिकरणे' पाठ है जिसका बिना उल्लेख किये मद्रास संस्करण में 'नत्' के बदले 'नञ्' कर दिया गया है । गु॰सं॰ में 'कप्येकाचि बहोर्नञ्समानाधिकरणे' का सूत्रार्थ इस प्रकार है -
"(स्वरविषये) नञ्समानाधिकरणे सति बहुशब्दस्य कपि एकाचि उत्तरपदे परतः अन्त्यात् पूर्वमुदात्तं भवति । बहुकुमारिकः । बहुयवकः ।"

यह विचित्र सूत्रार्थ है । सूत्रार्थ में उत्तरपद के एकाच् होने की बात कही गयी है जबकि उदाहरणों में अनेकाच् पद दिये गये हैं । गुजराती अर्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है - "नञ् साथे समानाधिकरणमां रहेला बहु शब्द ............. ।" 'बहु' शब्द का समानाधिकरण 'नञ्' के साथ नहीं बल्कि उत्तरपद के साथ अभिप्रेत है ।


अब हम सूत्र ८।४।२१७ पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अतेरकृत्पदे ॥८।४।२१७॥ अतेरकृत्पदम् ॥८।४।२२१॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “अतद्धापे” ।

यह भोत्रसूत्र पाणिनिसूत्र 'अतेरकृत्पदे' (६।२।१९१) पर आधारित है जिस पर कात्यायन वार्त्तिक है - "अतेर्धातुलोपे ॥१॥" इस पा॰ सू॰ का अर्थ करने में महाभाष्य और काशिका के बीच मतभेद पाया जाता है । उपर्युक्त वार्त्तिक पर भाष्य इस प्रकार है -
"अतेर्धातुलोपे इति वक्तव्यम् । अकृत्पदे इति ह्युच्यमान इह च प्रसज्येत शोभनो गार्ग्यः अतिगार्ग्यः । इह च न स्यात् अ॒ति॒का॒र॒कः अ॒ति॒प॒दा शक्वरी ।"
परन्तु पा॰ सू॰ ६।२।१९१ पर काशिकावृत्ति है - "अतेः परमकृदन्तं पदशब्दश्चान्तोदात्तो भवति । अ॒त्य॒ङ्कुशो नागः । अ॒ति॒कशोऽश्चः । पदशब्दः खल्वपि - अतिपदा शक्वरी ।"

महाभाष्य के अनुसार 'अकृत्पदे' कहने पर 'अतिपदा' को अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता है, परन्तु काशिका के अनुसार 'अतिपदा' को अन्तोदात्त प्राप्त होता है । इसी वैमत्य के बारे में सिद्धान्त-कौमुदी की शेखरटीका में लिखा है - "अतेर । अकृदन्तं पदशब्दश्चेति । अयञ्चार्थो वृत्तौ । भाष्यात्तु अतेरुत्तरपदमन्तोदात्तम्, कृदन्तं पदशब्दञ्च वर्जयित्वेत्यर्थः प्रतीयते ।"
भट्टोजिदीक्षित एवं स्वरसिद्धान्तचन्द्रिकाकार ने काशिकावृत्ति का अनुसरण किया है । 'अकृत्पदे' का जो भी अर्थ लिया जाय, काशिकाकार भी इस बात से सहमत हैं कि 'अतेर्धातुलोपे इति वक्तव्यम् । इह मा भूत् - शोभनो गार्ग्यः अतिगार्ग्यः । इह च यथा स्यात् - अतिक्रान्तः कारकाद् अतिकारक इति ।' सिद्धान्तचन्द्रिकाकार लिखते हैं -

"अतेः परस्य अकृदन्तस्य पदशब्दस्य अन्त उदात्तः । अत्यङ्कुशो नागः । अतिपदा शक्वरी । इह अव्याप्त्यतिव्याप्तिपरिहाराय 'अकृत्पदम्' इत्यपनीय 'अतेर्धातुलोपे' इति व्यक्तव्यम्' इति वार्त्तिकम् । यथान्यासे तु कारकमतिक्रान्तः 'अतिकारकः' इत्यत्र अव्याप्तिः । शोभनो गार्ग्यः 'अतिगार्ग्यः' इत्यत्र अतिव्याप्तिश्च । अत्यङ्कुशादौ वृत्तिविषये अतिशब्दोऽतिक्रान्तार्थवृत्तिरिति क्रमेरप्रयोग एव लोपः ।" उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भोजसूत्र ८।४।२१७ का शुद्धपाठ 'अतेर्धातुलोपे' ही होना चाहिये ।

अन्त में हम सूत्र ८।२।१२२ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि/मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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एचः प्रश्नान्तादिवत् ॥८।२।१२२॥ एचः प्रश्नान्तादिवत् पूर्वस्यार्धस्यादु-
त्तरस्येदुतौ ॥८।२।१२८॥
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यह सूत्र पा॰ 'एचो॰' (८।२।१०७) के निम्नलिखित कात्यायन वार्त्तिक पर आधारित है -

आमन्त्रिते छन्दस्युपसंख्यानम् ॥३॥
अग्ना ३ इ पत्नी वा ३ : सजूर्देवेन त्वष्ट्रा सोमं पिब (तै॰ सं॰ १।४।२७।१) । स॰कं॰ के किसी भी संस्करण में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है । गु॰ सं॰ में जो कुछ कहा गया है, उसका प्रावधान स॰कं॰ के लौकिक भाग में सूत्र 'एचोऽप्रगृह्यस्य प्रश्नान्ताभिपूजितं विचारप्रत्यभिवादेष्वादिदुत्परः पदान्ते' (७।३।१४९) के अन्तर्गत पहले ही किया जा चुका है । अतः उपर्युक्त सूत्र का शुद्ध रूप कुछ इस प्रकार होगा -
एच आमन्त्रिते प्रश्नान्तादिवत् ॥८।२।१२२॥

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. एचः प्रश्नान्तादिवत् एचः प्रश्नान्तादिवत् एच आमन्त्रिते
॥८।२।१२२॥ पूर्वस्यार्धस्यादु- प्रश्नान्तादिवत् ।
त्तरस्येदुतौ॥८।२।१२०॥

२. नञः स्वार्थनिषेधे- नञो निषेधे स्वार्थे- नञः स्वार्थनिषेधे-
शोभ्यर्हयां च शोभ्यर्हार्थाश्च शोभ्यर्हहितालमर्था-
॥८।४।१७१॥ ॥८।४।१७७॥ स्तद्धिताः ।
य-यतौ चातदर्थे ।
अच्कावशक्तौ ।
आक्रोशे च ।
संज्ञायां च ।

३. कण्वेकाचि बहोर्नञ्- कप्येकाचि बहोर्नञ्- कबेकाचि ।
समानाधिकरणे समानाधिकरणे बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे ।
॥८।४।१९९॥ ॥८।४।२०३॥

४. अतेरकृत्पदे अतेरकृत्पदम् अतेर्धातुलोपे ।
॥८।४।२१७॥ ॥८।४।२२१॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८ एवं फरवरी १९९९.
2. "Concordance of Nine Sanskrit Garmmars" (नवसंस्कृतव्याकरणानां सूत्रानुक्रमणिका) - prepared by the present author (unpublished).
3. वही ।
4. न्यास पर्यालोचन, पृष्ठ ४०१.
5. न्यास पर्यालोचन, पृष्ठ १२४.
6. स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका, पृष्ठ १६४.

(वेदवाणी, अगस्त १९९९, पृ॰ ५-९, में प्रकाशित)

Thursday, April 17, 2008

7. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (५)

(स्वर एवं वैदिक प्रकरण)

Synopsis

Four corrupted sutras from Ch. VIII of SKA, three dealing with the accent rules and one with the Vedic morphology, are discussed. All these four sutras are incorrect in both the editions (See the Table at the end.)

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के चार सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं । इन चार सूत्रों में से तीन स्वरसूत्र हैं जबकि एक वैदिक रूपविधान सम्बन्धी सूत्र ।

सर्वप्रथम हम अतिभ्रष्ट स्वरसूत्र ८।३।६ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि / म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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अवित्ताया अतोत्रे नाशोऽन्वादेशे इदमस्तृतीयादावशन्वादेशे ॥८।३।६॥
॥८।३।६॥ एतदस्त्रतसोस्त्रतसौ च ॥८।३।७॥
द्वितीया टौस्स्वेनः ॥८।३।८॥
एनच्च ॥८।३।९॥
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गु॰सं॰ के उपर्युक्त चार सूत्र क्रमशः पाणिनिसूत्र 'इदमोऽन्वादेशेऽशनुदात्तस्तृतीयादौ' (२।४।३२), 'इतदस्त्रतसोसत्रतसौ चानुदात्तौ' (२।४।३३), 'द्वितीया टौस्स्वेनः' (२।४।३४) एवं इस अन्तिम सूत्र पर कात्यायन वार्त्तिक 'एनदिति नपुंसकैकवचने ॥१॥' पर आधारित हैं । अष्टाध्यायी में 'इदम्' और 'एतद्' का पाठ वार्त्तिक के रूप में पढ़ा जाना आवश्यक है जैसा कि स्वर-सिद्धान्त चन्द्रिकाकार ने लिखा है - 'स्वमोर्नपुंसकात्' इति स्वमोर्लुक् । एनादेशे तु सति एनम् इति स्यात् । अर्थात् इदम् और एतद् - इन दोनों का सर्वास्थानी 'एन' के अकारान्त होने से 'अतोऽम्' (७।१।२४) से द्वितीया एकवचन में 'अम्' लगने से 'एनम्' होगा न कि 'एनद्' ।

सरस्वतीकण्ठाभरण में स्वरविधायक सूत्र आठवें अध्याय में रखे गये हैं लेकिन 'अश्' और 'एन' नामक आदेश लौकिक व्याकरण के अन्तर्गत आने से इनका प्रावधान छठे अध्याय में ही किया गया है ।

एतस्य चान्वादेशे द्वितीयायां चैनः ॥६।४।८०॥ अनु॰-इदमः, टौसोः ।
तृतीयादावश् ॥६।४।८१॥ अनु॰-इदमः, एतस्य च, अन्वादेशे ।

यहाँ 'इदमः' की अनुवृत्ति सूत्र 'इदमः स्त्रीपुंसयोरियमयमौ' (६।४।७६) एवं 'टौसोः' की अनुवृत्ति 'टौसोरनः' (६।४।७९) से आती है । यहाँ दो बातें ध्यान देने लायक हैं -

(१) पाणिनिसूत्र में 'एतद्' में षष्ठी एकवचन की विभक्ति लगाकर 'एतदः' पाठ किया गया है जबकि स॰कं॰ में 'एत' शब्द का षष्ठ्यन्त रूप 'एतस्य' का प्रयोग किया गया है । अतः अष्टाध्यायी के अनुसार समूचे 'एतद्' शब्द के स्थान में 'एन' आदेश होता है, परन्तु स॰कं॰ के अनुसार केवल 'एत' के स्थान में 'एन' आदेश होता है अर्थात् 'एतद्' के स्थान में 'एनद्' होता है ।' 'स्वमोर्नपुंसकात्' (स॰कं॰ ३।१।१७८) से द्वितीया एकवचन की अम् विभक्ति के लोप होने पर फिर'त्यदादीनां तसादिषु चाद्वेरः' (स॰कं॰ ६।४।७०) से 'एनद्' के दकार का अकार नहीं होगा, क्योंकि यह सूत्र सुप् विभक्ति या तसादि प्रत्यय परे रहने पर ही लागू होता है । यहाँ शंका उठ सकती है कि सुप् विभक्ति 'अम्', जो प्रत्यय भी है, के लोप होने पर भी 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' (स॰कं॰ १।२।५८) से एनद् के दकार का अकार हो जाना चाहिये । इसका समाधान यह है कि भोजसूत्र ६।४।७० में 'प्रकृतेः' (६।३।१) की अनुवृत्ति आती है और यहाँ लुवाली प्रकृति (क्योंकि 'अम्' का लुक् कहकर अदर्शन होता है) होने में 'न लुमता प्रकृतेः' (१।२।५९) से प्रत्ययलक्षण कार्य का निषेध हो जाता है । इसलिए द्वितीया एकवचन में 'एनद्' रूप ही प्राप्त होता है, अष्टाध्यायी की तरह 'एनम्' नहीं । अतः गु॰सं॰ में जो 'एनच्च' सूत्र रखा गया है, वह व्यर्थ है । भोजसूत्र ६।४।८० की दण्डनाथ वृत्ति में भी 'एनत्' उदाहरण मिलता है - "एतत् कुण्डमानय, अथो एनत् परिवर्त्तय ।" यह सूत्र चान्द्रसूत्र ५।४।७६ से अपरिवर्त्तित रूप में लिया गया है जिस पर चान्द्रवृत्ति इस प्रकार है -
"एतच्छब्दस्य य एत शब्दस्तस्येदमश्च कथितानुकथनाविषये द्वितीयायां विभक्तौ टौसि च परत एनादेशो भवति । एतं छात्रं वेदमध्यापय, अथो एनं व्याकरणमध्यापय । एतत् कुण्डमानय, अथो एनत् परिवर्त्तय । ............. एवमिदमोऽपि योज्यम् । अयं तु विशेषः । इदं कुण्डमानय, अथो एनं परिवर्त्तयेति मकारान्त एव भवति ।" [2]

(२) पाणिनिसूत्र २।४।३३ के किसी भी अंश का प्रावधान स॰कं॰ में सातवें अध्याय तक नहीं किया गया है । अतः इसका प्रावधान आठवें अध्याय में ही अपेक्षित है ।
पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका तैयार करते समय हमने अष्टाध्यायी के सूत्र 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' (३।१।४) का कहीं साक्षात् प्रावधान स॰कं॰ में नहीं पाया । पाण्डुलिपि में 'अ' और 'सु' अक्षरों में बहुत साम्य पाया जाता है । साथ ही 'व' और 'प' के बीच अकसर भ्रम होता है । उपर्युक्त सभी चर्चाओं के बाद हम स॰कं॰ के उपर्युक्त भ्रष्ट सूत्र का निम्नलिखित संशोधित रूप प्रस्तावित करते हैं -
सुप्पितौ ॥८।३।६॥ अतोऽत्रैनाशोऽन्वादेशे ॥८।३।७॥

इन दोनों सूत्रों में 'अनुदात्तम्' की अनुवृत्ति सूत्र 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (८।१।५) से आती है । प्रस्तावित सूत्र ८।३।७ का अर्थ है -
"अन्वादेश में 'अतः', 'अत्र' तथा ('इदम्' और 'एत' के स्थान में किये गये आदेश) 'एन' एवं 'अश्' अनुदात्त होते हैं ।"

सामान्य रूप से 'अतः' और 'अत्र' को अनुदात्त कहने से अन्वादेश में ये सर्वानुदात्त होंगे । एतस्मिन् ग्रामे सुखं वसामः, अतोऽत्र युक्ता अधीमहे । एतस्माच्छात्राच्छन्दोऽधीष्व, अथातो व्याकरणमपि अधीष्व । इह 'अत्र', 'अतः' इति पदद्वयं सर्वानुदात्तम् । [3] अन्वादेश से अन्यत्र 'अत्र' शब्द त्रल प्रत्ययान्त होने से लित् स्वर से आद्युदात्त होगा एवम् 'अतः' के तस् प्रत्ययान्तहोने से सूत्र 'किं सर्वनामबहूनामद्व्यादीनां तसि' (८।३।७०) से आद्युदात्त होगा ।

अत्र पितरो यथाभागं मन्दध्वम् (तै॰ सं॰ १।८।५।१) ।
अतः समुद्रा गिरयश्च सर्वे (तै॰ आ॰ १०।१२।१) ।

पाण्डुलिपि एवं मद्रास संस्करण में भ्रष्ट सूत्र अवित्ताया॰ (८।३।६) के बाद का सूत्र है - 'आगमश्च' (८।३।७) । इसका अर्थ है - "आगम भी अनुदात्त होता है ।" यह सूत्र पाणिनिसूत्र ३।१।३ के वा॰ ५-६ एवं सूत्र ३।४।१०३ के वा॰ ३ पर आधारित है । गु॰सं॰ में 'आगमश्च' सूत्र को निकाल दिया गया है । ऐसा किसलिए किया गया यह हमारी समझ के बाहर है ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।४९-५० की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ॥८।३।४९॥ ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ॥८।३।५१॥
नाववर्णात् ॥८।३।५०॥ न त्रिपूर्वात् ॥८।३।५२॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - ह्रस्वरेनुड्भ्यो त्रमतुप् । नाववर्णात् ।

पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ को देखते हुए भोजसूत्र ८।३।४९ का शुद्धपाठ 'ह्रस्वरेनुड्भ्योऽत्रेर्मतुप्' होना चाहिए । यह सूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र एवं सङ्गत कात्यायन वार्त्तिकों पर आधारित है -
ह्रस्वनुड्भ्यां मतुप् ॥६।१।१७६॥
मतुबुदात्तत्वे रेग्रहणम् ॥१॥ त्रिप्रतिषेधश्च ॥२॥

मतुप् के उदात्त प्रतिषेध के लिए अगले सूत्र 'नाववर्णात्', जो स्पष्टतः भ्रष्ट है और जिसका शुद्ध पाठ 'न' साववर्णात् होना चाहिये, को गु॰सं॰ में कोई स्थान नहीं दिया गया है । प्रतीत होता है कि सम्पादक महोदय ने इस सूत्र की इस स्थिति को गलत समझकर इसको सात सूत्रों के आगे खिसकाकर 'साववर्णात्' (८।३।५९) बनाया है जिसमें 'न' की अनुवृत्ति उसके ठीक पहले के सूत्र 'न गोश्वन्राडङ्क्रुङ्कृद्भ्यः' (८।३।५८) से आती है । पाण्डुलिपि और मद्रास संस्करण में 'न गोश्वन्॰' (८।३।५६) के बाद 'साववर्णात्' जैसा कोई सूत्र नहीं है । गु॰सं॰ में सूत्र 'साववर्णात्' की वृत्ति इस प्रकार है -

"(छन्दसि स्वरविषये) सौ (प्रथमैकवचनप्रत्यये) परतो यदवर्णान्तं तस्मात् परा विभक्ति उदात्ता न भवति । उदा॰ - येभ्यः । केभ्यः ।"

इस सूत्र की यहाँ जरूरत ही नहीं है, क्योंकि इसका प्रावधान पूर्वत्र सूत्र 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' (८।३।३८, गु॰सं॰ में ८।३।४०) में ही कर दिया गया है । इस सूत्र की वृत्ति में सम्पादक महोदय लिखते हैं -

"(स्वरविषये) सुपि विभक्तौ परतः यः एकाच् शब्दरूपं तस्मात् परा टादयः (तृतीयैकवचन-प्रभृतिप्रत्ययाः) उदात्ता भवन्ति अनात् (=नकारान्तात् वर्जयित्वा) ।"

गुजराती वृत्ति में उन्होंने 'सुप्' का अर्थ सुप् (=सप्तमी ब॰ व॰) दिया है जो सही है । परन्तु 'अनात्' को उन्होंने 'अ+नात्' समझकर अर्थ लगाया है और गुजराती व्याख्या में लिखा है - "पण हरिन्, राजन् वगेरे अन् अंतवाळा शब्दोने लागनारी तृतीया वगेरे विभक्तिओ अनुदात्त होय छे । तेथी राज्ञा राज्ञे वगेरे रूपो आद्युदात्त छे ।" यहाँ पर वे भ्रमित हुए हैं । हरिन्, राजन् सप्तमी बहुवचन सुप् विभक्ति परे रहते एकाच् होते ही नहीं । इसलिए तृतीयादि विभक्ति के उदात्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता । फिर उसके प्रतिषेध की जरूरत ही कहाँ पड़ती है ? 'अनात्' का वास्तविक अर्थ 'अन्+आत्' से मिलता है - अर्थात् अवर्णान्त को छोड़कर । 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' का सूत्रार्थ कुछ इस प्रकार दिया जा सकता है -

"यस्य प्रातिपदिकस्य शब्दरूपं सुपि विभक्तौ परतः एकाच् भवति तस्मात् प्रातिपदिकात् परा टादयः विभक्तयः उदात्ता भवन्ति, परन्तु यत् प्रातिपदिकं सुप्यवर्णान्तं कदाचित् तस्मात् प्रातिपदिकात् वर्जयित्वा ।"

यह अर्थ हमने स्वरसिद्धान्त चन्द्रिका के ढर्रे पर किया है । देखें - पाणिनि सूत्र 'न गोश्वन्॰' (६।१।१८२) के 'साववर्ण' भाग का अर्थ, पृष्ठ ९७ ।

पाणिनिसूत्र 'न गोश्वन्॰' के 'साववर्ण' भाग को भोज द्वारा इस सूत्र से हटाकर उपर्युक्त परिवर्त्तन किये जाने का आधार इस प्रकार है । सूत्र 'न गोश्वन्॰' किस स्वर का प्रतिषेध करता है, इसकी विस्तृत चर्चा महाभाष्य में सूत्र 'चौ' (६।१।२२२) के वार्त्तिक 'चोरतद्धिते' के अन्तर्गत की गई है । इसका सारांश इस प्रकार है -

(i) तृतीयादिविभक्तिस्वर का प्रतिषेध – 'सावेकाचस्तृतीयादिर्विभक्तिः' (६।१।१६८) इत्यादि सूत्र से प्राप्त स्वर का ।
(ii) येन केनचिल्लक्षणेन प्राप्त विभक्ति स्वर का प्रतिषेध - 'अञचेश्छन्दस्यसर्वनामस्थानम्' (६।१।१७०) इत्यादि सूत्र से प्राप्त स्वर का ।
(iii) मतुप् स्वर का प्रतिषेध - 'ह्रस्वनुड्भ्यां मतुप्' (६।१।१७६) से प्राप्त स्वर का ।
(iv) उदात्त निवृत्तिस्वर का प्रतिषेध - 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोपः' (६।१।१६१) से प्राप्त स्वर का ।

'न गोश्वन्॰' उदात्तनिवृत्तिस्वर का प्रतिषेध नहीं कर सकता, क्योंकि इससे 'कुमारी' में प्राप्त ङीप् के उदात्त स्वर का भी प्रतिषेध हो जायगा । अतः उपर्युक्त चार चर्चित सम्भावनाओं में अन्तिम का महाभाष्यकार ने खण्डन किया है ।

सरस्वतीकण्ठाभरण में पाणिनिसूत्र 'न गोश्वन्॰' के सिर्फ 'साववर्ण' भाग को अलग किया गया है जिसके लिए तृतीयादि विभक्ति स्वर और मतुप् स्वर का प्रतिषेध लागू होता है, शेष में अवर्णान्त के अभाव से । जहाँ तक तृतीयादि विभक्तिस्वर के प्रतिषेध का प्रश्न है, इसका प्रावधान भोजसूत्र 'सुप्येकाचोऽनाट्टादयः' (८।३।३८) में कर दिया गया है । शेष मतुप् स्वर प्रतिषेध रहता है जिसका प्रावधान 'न साववर्णात्' (८।३।५०) में किया गया है ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।८८ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि एवं म॰सं॰ में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा ॥८।२।८८॥ अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा लघूपधस्य
॥८।२।९०॥
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यह भोजसूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र के काशिका-वार्त्तिक पर आधारित है -

नाभ्यस्तस्याचि पिति सार्वधातुके ॥७।३।८७॥ अनु॰-लघूपधस्य, गुणः, अङ्गस्य ।
बहुलं छन्दसीति वक्तव्यम् । जुजोषत् (ऋ॰ १।१७३।४) इति यथा स्यात् ।

पाणिनिसूत्र ७।३।८७ का सङ्गत भोजसूत्र निम्नलिखित है -
नाभ्यस्तस्याचि सार्वधातुके ॥७।२।६॥ लघोरुपधायाः, गुणः, प्रकृतेः ।

इसके बाद का सूत्र है -
अपिति ॥७।२।८७॥ न, सार्वधातुके, लघोरुपधायाः, गुणः, प्रकृतेः ।

भोजसूत्र ७।२।७ सामान्य रूप से अपित् सार्वधातुक प्रत्यय परक प्रकृति का गुण निषेध करता है । इसलिए यह निषेध अभ्यस्त प्रकृति के लिए भी लागू होता है । अतः सूत्र ७।२।६ में साक्षात् 'पिति' शब्द अनुक्त रहते हुए भी परोक्ष रूप से 'पिति' आता है । इस प्रकार भोजसूत्र ७।२।६ का अर्थ होगा -
"अभ्यस्त-संज्ञक प्रकृति की लघु उपधा इक् को अजादि पित् सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते गुण नहीं होता ।"

भोजसूत्र 'इको गुणवृद्धी' (१।२।४१) से गुण उपधा के इक् को होगा । परन्तु काशिका वार्त्तिक के अनुसार वेद-विषय में यह गुण-निषेध वैकल्पिक होगा अर्थात् अभ्यस्त संज्ञक प्रकृति की लघु उपधा इक् को अजादि पित् सार्वधातुक प्रत्यय परे रहते विकल्प से गुण होगा । इस प्रकार का अर्थ तभी होगा जब भोजसूत्र इस प्रकार होगा -

अभ्यस्तस्य पिति गुणो वा ॥८।२।८८॥

प्रसङ्ग के अनुसार सूत्र ७।२।६ से निम्नलिखित अनुवृत्तियाँ लेनी पड़ेगी -
अचि, सार्वधातुके, लघोरुपधायाः, प्रकृतेः ।

गु॰सं॰ में 'अपिति' लिया गया है और वृत्ति में 'अचि' का नामो-निशान नहीं है, परन्तु उदाहरण के रूप में 'जुजोषत्' प्रस्तुत किया गया है, जिसमें अजादि पित् सार्वधातुक [लेट् लकार का 'तिप्' जिसे अट् आगम होने से तिप् अजादि हो जाता है, फिर 'इतो लोपः परस्मैपदेषु' (८।१।६३) से 'अत्' बचता है ] परक प्रकृति का गुण किया गया है ।

अगला भोजसूत्र 'ह्रस्वश्चोपधायाः' (८।२।८९) है जिसे गु॰सं॰ में 'ह्रस्वश्चोपधाया अचि पिति' (८।२।९१) कर दिया गया है । 'अचि' और 'पिति' की अनुवृत्ति पूर्व सूत्र से आयेगी । अतः मद्रास संस्करण का सूत्र ८।२।८९ सही है ।

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. अभ्यस्तस्यापिति अभ्यस्तस्यापिति गुणो अभ्यस्तस्य पिति
गुणो वा॥८।२।८८॥ वा लघूपधस्य॥८।२।९०॥ गुणो वा ।

२. अवित्ताया अतोत्रे इदमस्तृतीयादावशन्वादेशे सुप्पितौ ।
नाशोऽन्वादेशे ॥८।३।६॥ अतोऽत्रैनाशोऽन्वादेशे ।
॥८।३।६॥ एतदस्त्रतसोस्त्रतसौ च
॥८।३।७॥
द्वितीया टौस्स्वेनः
॥८।३।८॥
एनच्च ॥८।३।९॥

३. ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ह्रस्वरेनुड्भ्यो मतुप् ह्रस्वरेनुड्भ्योऽत्रेर्मतुप् ।
॥८।३।४९॥ ॥८।३।५१॥
न त्रिपूर्वात् ॥८।३।५२॥

४. नाववर्णात् ॥८।३।५०॥ ------ न साववर्णात् ।
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७ एवं मई १९९८.
2. इस पर डॉ॰ क्षितीशचन्द्र चटर्जी टिप्पणी देते हैं - "This is extremely doubtful. नपुंसकैकवचन एनदिति वार्त्तिकम् (ii ४।३४।१) ।" डॉ॰ चटर्जी ने भ्रम में पड़कर ऐसी टिप्पणी दी है । उपर्युक्त वृत्ति सूत्रपाठ के अनुसार सही है । यह सूत्रपाठ चन्द्राचार्य में कातन्त्र सूत्र 'उतस्य चान्वादेशे द्वितीयायाञ्चैनः' (२।३।३७) से अपरिवर्त्तित रूप में ग्रहण किया है । उपर्युक्त भ्रम का निराकरण हैमशब्दानुशासन के सूत्र 'इदमः' (२।१।३४) की निम्नलिखित बृहद्वृत्ति से हो जाता है -
"केचित् तु - इदम आदेशम् 'एनम्' इति मकारान्त द्वितीयैकवचने आहुः, तन्मते-इदं कुण्डमानयाथो एनं परिवर्त्तयेत्येव भवति ।"
3. स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका (स॰ शिवरामकृष्ण शास्त्री), पृष्ठ २९१.

(वेदवाणी, फरवरी १९९९, पृ॰ १०-१५, में प्रकाशित)

6. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (४)

(वैदिक प्रकरण)

Synopsis

In this article further four sutras of SKA dealing with the Vedic morphology are discussed whose readings are incorrect in both the editions (See the Table at the end).

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के वैदिक प्रकरण के और ऐसे चार सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं ।

सर्वप्रथम हम कुछ अधिक भ्रष्ट भोजसूत्र ८।२।६२ पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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वाहो वग्र्यचि ॥८।२।६२॥ वाह वाड्यचि ॥८।२।६२॥
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यह भोजसूत्र किस पाणिनिसूत्र पर आधारित है, इसका आभास शायद गुजराती संस्करण के सम्पादक महोदय को नहीं हुआ । इसलिए इस सूत्र का अर्थ करने में उन्होंने विचित्र कल्पना की है -

"सूत्रार्थः - (छन्दसि विषये) यकारपूर्वके अजन्ते चोपपदे सति वाहः स्थाने वाडित्ययमादेशो भवति । उदाहरण - हव्यवाड् जुह्वास्यः । दिव्यवाड्वयो विराट् छन्दर्यः । प्रष्ठवाट् । अहीं वैदिक प्रयोगोमां हव्य+वाह् अने दित्य+वाह् मां यकारपूर्वक पद उपपद छे, अने प्रष्ठ+वाह् मां अजन्त पद उपपद छे तेथी तेनी पछी आवता वाह् ने स्थाने वाट् आदेश थइने अनुक्रमें हव्यवाट्, दित्यवाट् अने प्रष्ठवाट् अेम प्रातिपदिको सिद्ध थयां छे ।"

उन्होंने सप्तमी निर्दिष्ट पद 'यचि' से उपपद की कल्पना की है । भोजसूत्र 'कृद्विधौ सप्तमीस्थमुपपदम्' (१।१।२६) के अनुसार कृत्यप्रत्यय का विधान करने वाले सूत्र में सप्तमी निर्दिष्ट पद की उपपद संज्ञा होती है । 'वाह वाड्यचि' सूत्र किसी कृत्यप्रत्यय का विधान नहीं करता । इसलिए इस सूत्र में 'यचि' पद यकारपूर्वक या अजन्त उपपद का द्योतक नहीं है । 'वाह वाड्यचि' सूत्र की जरूरत भी नहीं है, क्योंकि उपर्युक्त उदाहरणों में प्रस्तुत 'हव्यवाट्', 'दित्यवाट्', 'प्रष्ठवाट्' शब्दों की सिद्धि 'वहश्च' (८।१।२८) से हो जाती है । उन्होंने इसकी वृत्ति में लिखा है -

"सूत्रार्थः - (छन्दसि) सुप्युपपदे वहधातोर्ण्विः प्रत्ययो भवति । उदाहरण - दि॒त्य॒वाट् (यजु॰सं॰ १४।१०) । अहीं 'दित्यं वहति' अे अर्थमां 'दित्य+वह्' मां धातुने ण्वि प्रत्यय लागतां ढकार, जश्त्व, अने चर्त्व थइने रूपसिद्धि थइ छे । अे ज रीते 'प्रष्ठं वहति=प्रष्ठवाह्' बने छे ।"

ण्वि प्रत्यय के णित् होने से उपर्युक्त उदाहरणों में 'वह्' की उपधा अकार की वृद्धि निम्नलिखित भोजसूत्र से होती है -
ञ्णिति (७।१।९), अतः उपधायाः, वृद्धि, प्रकृतेः ।

पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यह भोजसूत्र ८।२।६२ निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है-
वाह ऊठ् ॥६।४।१३२॥ सम्प्रसारणम्, भस्य, अङ्गस्य ।

इस पर काशिकावृत्ति है - 'वाहः' इत्येवमन्तस्य भस्य ऊठ् इत्येतत्सम्प्रसारणं भवति । प्रष्ठौहः । प्रष्ठौहा । प्रष्ठौहे । दित्यौहः । दित्यौहे । 'एत्येधत्यूठ्सु' (६।१।८९) इति वृद्धिः ।

भोज ने अष्टाध्यायी की भ-संज्ञा [यचि भम् (पा॰ १।४।१८)] का परित्याग कर पाणिनिसूत्र 'भस्य' (६।४।१२९) का सङ्गत सूत्र 'यचि स्वादावशिसुटि' (६।३।१२८) का निर्माण किया है । अतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्धपाठ कुछ इस प्रकार होना चाहिए -
वाहो व ऊड् यचि स्वादावशिसुटि ॥८।२।६२॥

पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ को देखने से प्रतीत होता है कि 'स्वादावशिसुटि' इतना अंश इस सूत्र में नहीं है । इतना अंश अगर हटाया जाता है तो प्रसङ्ग के अनुसार इसकी उपस्थिति लेनी पड़ेगी ।

स॰कं॰ सूत्रों से 'प्रष्ठौहः' की सिद्धि-
प्रष्ठ+वह्+ण्विः+ङस् --> प्रष्ठ + वाह् + ङस् --> प्रष्ठ+ऊठ्+आह्+अस् --> प्रष्ठ+ऊठ्+ह्+अस् --> प्रष्ठौहः ।

भोजसूत्र 'वहश्च' (८।१।२८) से 'प्रष्ठ' उपपद रहते 'वह्' धातु से ण्वि प्रत्यय आकर 'प्रष्ठ-वाह्+ङस्' । 'ङस्' (=अस्) के 'शि' और 'सुट्' को छोड़ अन्य अजादि स्वादि प्रत्यय होने से 'वाह्' के वकार को ऊठ् आदेश । वकार (=यण्) के स्थान में आदेश होने से ऊठ् (=इक्) की 'इग्यणः सम्प्रसारणम्' (१।१।८०) से सम्प्रसारण संज्ञा । 'संप्रसारणात्' (६।१।१२९) से 'ऊठ्' एवं 'आ' का पूर्वरूप एकादेश होकर सिर्फ ऊठ् । 'ऊठि' (६।१।१००) से 'प्रष्ठ' के अन्तिम 'अकार' और 'ऊठ् का वृद्धि एकादेश होकर 'प्रष्ठौहः' । इसी प्रकार 'टा' विभक्ति से 'प्रष्ठौहा' और 'ङे' से प्रष्ठौहे बनता है । अशिसुटीति किम् ? हव्यवाहं पुरुप्रियम् (ऋ॰ १।१२।२) ।

अब हम भोजसूत्र ८।१।३९ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण एवं पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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दंशेस्नुः ॥८।१।३९॥ दंशेः क्स्नुः ॥८।१।३९॥
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डॉ॰ कंसारा ने स्नु प्रत्यय को कित् पढ़ा है, किन्तु कित् होने से भोजसूत्र 'हलोऽनिदितः क्ङित्युपधायाः' (६।३।२०) से दंश् धातु का जो अनुनासिक लोप प्राप्त होता है, उसके निराकरण की चर्चा नहीं की । शायद उन्होंने काशिका की सहायता से ऐसा सूत्रपाठ दिया है । काशिका में पाणिनिसूत्र 'ग्लाजिस्थश्च क्स्नुः' (पा॰ ३।२।१३९) पर निम्नलिखित वार्त्तिक मिलता है -
दंशेश्छन्दस्युपसंख्यानम् । दंक्ष्णवः पशवः (वा॰सं॰ १५।३) ॥

इस पर न्यासकार लिखते हैं- "दंक्ष्णव इति । व्रश्चादिना षत्वम्, 'षढोः कः सि' इति कत्वम् । 'अनिदिताम्॰' (पा॰ ६।४।२४) इत्यनुसासिकलोपो न भवति, क्स्नोर्गित्त्वात् ।" पदमञ्जरीकार भी लिखते हैं - "दंक्ष्णवः पशव इति । क्स्नोर्गित्त्वादुपधालोपाभावः ।" परन्तु डॉ॰ कंसारा ने 'क्स्नु' प्रत्यय को कित् ही माना है । इस कठिनाई को दूर करने के लिए हम महाभाष्य की सहायता लेते हैं । पाणिनिसूत्र 'ग्लाजिस्थश्च क्स्नुः' (३।२।१३९) पर भाष्यकार लिखते हैं -

"स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेधः ॥१॥
स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेधो वक्तव्यः । स्थास्नुरिति । घुमास्थागापाजहातिसां हलि (६।४।६६) इतीत्त्वं प्राप्नोति । एवं तर्हि न कित्करिष्यते ।
अकिति गुणप्रतिषेधः ॥२॥
यद्यकिद्गुणप्रतिषेधो वक्तव्यः । जिष्णुरिति ॥
भुव इट्प्रतिषेधश्च ॥३॥
भुव इट्प्रतिषेधश्च वक्तव्यः । किं चान्यत् । गुणप्रतिषेधश्च । भूष्णुरिति । अस्तु तर्हि कित् । ननु चोक्तं स्नोः कित्त्वे स्थ ईकार प्रतिषेध इति । नैष दोषः ।
स्थादंशिभ्यां स्नुश्छन्दसि ॥४॥
स्थादंशिभ्यां स्नुश्छन्दसि वक्तव्यः । स्थास्नु जङ्गमम् । दङ्क्ष्णवः पशव इति ॥ स इदानीं स्थोऽविशेषेण विधास्यते । सूत्रं तर्हि भिद्यते ।
यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं स्नोः कित्त्वे स्थ ईकारप्रतिषेध इति । एवं तर्हि गित्करिष्यते ।"

इस वार्त्तिक ४ के भाष्य में प्राप्त दो समाधानों में पाणिनीतर व्याकरणों में जैनेन्द्र (महावृत्ति) एवं जैनेन्द्र (शब्दार्णवचन्द्रिका) को छोड़कर बाकी ने प्रथम समाधान को अपनाया अर्थात् पाणिनिसूत्र को तोड़ दिया जैसा कि निम्नलिखित तुलना से स्पष्ट होता है2 -
1. पाणिनि : ग्लाजिस्थाश्च क्स्नुः ॥३।२।१३९॥
2. कातन्त्र : जि भुवोः स्नुक् ॥४।४।१८॥ ग्ला-म्ला-स्था-क्षि-पचि-परिमृजां स्नुः ॥४।४।१९॥
3. चान्द्र : जिग्लश्च क्स्नुः ॥१।२।९४॥ स्थास्नुः ॥१।२।९५॥
4. जैनेन्द्र (म॰) : ग्ला-भू-जि-स्थः क्स्नुः ॥२।२।११५॥
5. शाकटायन : भूजेः स्नुक् ॥४।३।२२४॥ ग्ला-स्थः स्नुः ॥४।३।२२५॥
6. जैनेन्द्र (श॰) : ग्ला-भू-जि-स्थो ग्स्नुः ॥२।२।१२७॥
7. भोज : जयतेश्च क्स्नुः ॥१।४।१९४॥ ग्ला-म्ला-स्था-क्षि-पचि-परिमृजिभ्यः स्नुः ॥१।४।१९५॥
8. हैम : भू-जेः ष्णुक् ॥५।२।३०॥ स्था-ग्ला-म्ला-पचि-परिमृजि-क्षेः स्नुः ॥५।२।३१॥
9. मलयगिरि : भू-जेःष्णुक् ॥४।४।९॥ ग्ला-स्थः स्नुः ॥४।४।१०॥

काशिकाकार एवं जैनेन्द्रमहावृत्तिकार दोनों ने क्स्नु प्रत्यय को गित् माना है जबकि शब्दार्णव चन्द्रिका में स्पष्ट रूप से 'ग्स्नु' प्रत्यय का विधान है । भोज ने 'क्स्नु' प्रत्यय को गित् मानने के बजाय पाणिनि सूत्र को तोड़कर काम चलाया हे । अतः 'दंशेस्नुः' का शुद्धपाठ 'दंशेः स्नुः' ही होना चाहिए ।

अब हम भोजसूत्र ८।१।६७ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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झस्य तुट ॥८।१।६७॥ झस्य रुट् ॥८।१।६५॥
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समान प्रसङ्ग में प्रयुक्त पाणिनिसूत्रों एवं भोजसूत्रों की तुलना करने से उपर्युक्त सूत्र के शुद्ध पाठ ज्ञात करने में आसानी होगी । अतः तुलना नीचे दी जाती है ।

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पाणिनि सूत्र भोज सूत्र
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झोऽन्तः ॥७।१।३॥ झोऽन्तः ॥३।१।३॥
अदभ्यस्तात् ॥७।१।४॥ अदभ्यस्तात् ॥३।१।४॥
आत्मनेपदेष्वनतः ॥७।१।५॥ आत्मनेपदेऽनतः ॥३।१।५॥
शीङो रुट् ॥७।१।६॥ शीङो रत् ॥३।१।६॥
वेत्तेर्विभाषा ॥७।१।७॥ वेत्तेर्वा ॥३।१।७॥
बहुलं छन्दसि ॥७।१।८॥ झस्य तुट् ॥८।१।६७॥
अनु॰ - रुट्, अत्, झ, अनु॰ - बहुलं छन्दसि
अङ्गस्य
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पाणिनिसूत्र 'शीङो रुट्' का सङ्गत सूत्र कुछ पाणिनीतर व्याकरणों में देखें -

चान्द्र व्याकरण - शीङो रत् (१।४।७) वृत्ति - शीङः परस्य झकारस्य रदादेशो भवति । शेरते, शेरताम्, अशेरत ।
शाकटायन व्याकरण - शीङो रत् (१।४।९१) - अमोघावृत्ति - शीङः परस्य तङो झकारस्य रत् इत्ययमादेशो भवति । शेरते । शेरताम् । अशेरत ।
जैनेन्द्र (श॰) - शीङो रत् (५।१।६) वृत्ति - शीङः परस्य झो रद् भवति । शेरते । शेरतां । अशेरत ।
सुपद्म व्याकरण - शीङो रत् (३।२।९५) वृत्ति - शीङः परस्यान्तस्थाने रद् भवति । शेरते, शेरताम्, अशेरत ।
स॰कं॰ पर दण्डनाथ वृत्ति - शीङः परस्यात्मनेपदझकारस्य रदादेशो भवति । शेरते, अशेरत ।

अष्टाध्यायी सूत्र ७।१।४ में तिङ् प्रत्यय 'झ' को 'अत्' जो आदेश किया गया है उसका 'शीङ्' धातु के बाद रुट् का आगम होता है अर्थात् रुट्+अत्= र्+अत्=रत् । चन्द्रादि आचार्यों ने 'झ' को हुए आदेश 'अत्' को रुट् आगम करने के बजाय 'झ' को सीधा 'रत्' आदेश किया है । भोजदेव ने इसे ही अपनाकर ‘शीङो रत्' ऐसा ही सूत्र बनाया है । अतः अष्टम अध्याय में भी रुट् आगम के बदले सीधा 'झ' को 'रत्' आदेश होना चाहिए । इसलिए 'झस्य रत्' (८।१।६७) ऐसा शुद्ध पाठ होगा ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।५९ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अङिश्च ॥८।२।५९॥ अङितश्च ॥८।२।६०॥
यह भोजसूत्र पाणिनि के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित है -
अङितश्च ॥६।४।५०३॥ छन्दसि, हेर्धिः ।
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इसका अर्थ है - "अङित् 'हि' को भी 'धि' आदेश होता है, वेद विषय में ।" किस दशा में 'हि' अङित् होता है, यह निम्नलिखित पाणिनिसूत्रों से स्पष्ट होता है -

सेर्ह्यपिच्च ॥३।४।८७॥ लोटः
वा छन्दसि ॥३।४।८८॥ सेर्हि, अपित्, लोटः
सार्वधातुकमपित् ॥१।२।४॥ ङित्
तिङ्-शित्-सार्वधातुकम् ॥३।४।११३॥

पाणिनि सूत्र 'सेर्ह्यपिच्च' का सङ्गत भोजसूत्र 'सेर्हिङ्' (३।१।१७) है । यहाँ 'सिप्' जो पित् है, को 'हिङ्' आदेश किया गया है अर्थात् अपित् कहने के बजाय सीधा 'हि' को ङित्' कहा गया है । अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र १-२६ में आये ङित् एवं कित् प्रकरण का स॰कं॰ में परित्याग किया गया है । अतः पाणिनि सूत्र 'सार्वधातुकमपित्' का सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में नहीं पाया जाता । डॉ॰ कंसारा 'अङितश्च' (८।२।६०) की वृत्ति में लिखते हैं -

"सूत्रार्थ : (छन्दसि विषये) अङितश्च हिकारस्य धिकार आदेशो भवति ।
उदा॰ - सोम रारन्धि नो ह्यदि ............. । 'हि' प्रत्यय विकल्प अपिद् होवाथी ते सार्वधातुक पक्षमां ङिद्वत् थशे अने पित् पक्षमां अङित् रहेशे । आ सूत्रमां आवा अङित् 'हि' प्रत्ययनो निर्देश छे ।

कंसारा जी को यहाँ भ्रम हुआ है । इस प्रसङ्ग को छोड़कर स॰कं॰ में अन्य कहीं भी अङित् 'हि' का जिक्र नहीं है । उपर्युक्त वृत्ति में वे हि प्रत्यय के वैकल्पिक अपित् की चर्चा करते हैं जिसके लिए स॰कं॰ में कोई जगह ही नहीं है । वृत्ति में उन्होंने पाणिनिसूत्र १।२।४ का आधार लिया है । उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्ध पाठ 'अङिच्च' होना चाहिए जिसमें 'छन्दसि' और 'हेर्धिः' की अनुवृत्ति क्रमशः सूत्र 'बहुलं छन्दसि' (८।१।१) और 'श्रुशृणुपॄकृवृभ्यो हेर्धिः' (८।२।५८) से आती है । इस सूत्र का अर्थ है - " 'हि' को जो 'धि' आदेश होता है वह वेद-विषय में अङित् भी होता है और चकार से ङित् भी ।" सेर्हिङ् (३।१।१७) से 'सि' को हिङ् अर्थात् ङित् हि आदेश होता है, फिर ङित् हि के स्थान में आदेश होने से 'धि' भी ङित् होगा जिसे उपर्युक्त सूत्र से वैकल्पिक अङित्त्व प्राप्त होता है । 'धि' के अङित् होने से 'युयोधि' में गुण होता है और 'रारन्धि' में नकार का लोप नहीं होता ।

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. वाहो वग्र्यचि ॥८।२।६२॥ वाह वाड् यचि ॥८।२।६३॥ वाहो व ऊड् यचि
(स्वादावशिसुटि) ।
२. दंशेस्नुः ॥८।२।३९॥ दंशेः क्स्नुः ॥८।१।३९॥ दंशेः स्नुः ।
३. झस्य तुट् ॥८।१।६७॥ झस्य रुट् ॥८।१।६५॥ झस्य रत् ।
४. अङिश्च ॥८।२।५९॥ अङितश्च ॥८।२।६०॥ अङिच्च ।
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७ एवं सितम्बर १९९७.
2. प्रकृत लेखक द्वारा तैयार किया हुआ 'नव-संस्कृतव्याकरणानां सूत्रानुक्रमणिका (Concordance of nine Sanskrit grammars)' (अप्रकाशित) ।

(वेदवाणी, मई १९९८, पृ॰ १७-२२, में प्रकाशित)

Tuesday, April 8, 2008

5. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (३)

(वैदिक प्रकरण)
Synopsis

In this article seven sutras of the सरस्वतीकण्ठाभरण dealing with the Vedic morphology are discussed whose readings are incorrect in both the editions (See the Table at the end).

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवे अध्याय के वैदिक प्रकरण के सात ऐसे सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ मद्रास संस्करण एवं गुजराती संस्करण दोनों में अशुद्ध हैं ।

सर्वप्रथम हम मद्रास संस्करण के सूत्र ८।२।७५-७६ पर चर्चा करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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न प्रथमाद्विर्वचने ॥८।२।७५॥ युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७७॥
युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७६॥ न प्रथमाद्विर्वचने ॥८।२।७८॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - न प्रथमाद्विर्वचने. युष्मदस्मदोरात् ।

ये सूत्र अष्टाध्यायी के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित हैं -
प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् ॥७।२।८८॥ युष्मदस्मदोः आ विभक्तौ, अङ्गस्य ।

अष्टाध्यायी के किसी सूत्र में यदि स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया जाता कि यह सूत्र वेदविषय में लागू होता है या भाषा में तो यह सूत्र यथासम्भव दोनों में लागू होगा । स॰कं॰ में सभी वैदिक प्रकरण आठवें अध्याय के प्रथम दो पादों में रखा गया है जबकि सामान्य कथन वाले सूत्र प्रथम सात अध्यायों में । अतः इन सात अध्यायों में दिये गये सूत्र वेद के लिए भी लागू होते हैं, अष्टम अध्याय में दिये गये अपवाद सूत्रों को छोड़कर ।

अष्टाध्यायी के सूत्र "द्वितीयायां च" (७।२।८७) में सामान्य रूप से 'युष्मद्' और 'अस्मद्' को आकारादेश का विधान होने से लौकिक एवं वैदिक दोनों प्रसङ्ग में आकारादेश होगा और सूत्र ७।२।८८ में केवल भाषा में आकारादेश का विधान होने से वेद-विषय से आकारादेश प्राप्त नहीं होगा । अतः लौकिक या भाषा विषय में प्रथमा एवं द्वितीया इन दोनों के द्विवचन में युष्मद् का रूप 'युवाम्' एवं अस्मद् का रूप 'आवाम्' होगा जबकि वेद-विषय में केवल द्वितीया के द्विवचन में 'युवाम्' एवं 'आवाम्' रूप बनेंगे, प्रथमा द्विवचन में 'युवम्' एवं 'आवम्' रूप ही रहेंगे ।

स॰कं॰ में प्रथमा एवं द्वितीया के द्विवचन में युष्मद् एवं अस्मद् के लिए आकारादेश का विधान निम्नलिखित सूत्र में किया गया है -
औशसम्सु ॥६।४।५६॥ युष्मदस्मदोः, आत्, सुपि, प्रकृतेः ।

स॰कं॰ के इस सूत्र में भाषा एवं वेद-विषय दोनों में प्रथमा एवं द्वितीया के द्विवचन में युष्मद् एवं अस्मद् को आकारादेश प्राप्त होता है । प्रथमा द्विवचन में आकारादेश को रोकने के लिए अलग सूत्र की जरूरत है । अतः स॰कं॰ के उपर्युक्त सूत्रों का शुद्धपाठ होगा -
न प्रथमा द्विवचने युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७५॥

गुजराती संस्करण के सम्पादक ने सूत्रपाठ शुद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिया है (पृ॰ ४०१)
तर्क १५. युष्मदस्मदोरात् ॥८।२।७७॥
न प्रथमा द्विवचने ॥८।२।७८॥

डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां आ सूत्रनो क्रम उपर दर्शाववा करतां 'न प्रथमा द्विवचने (८।२।७५) । युष्मदस्मदोरात् (८।२।७६) ।' अ‍ेम उलटो छे । पाणिनिअ‍े अष्टाध्यायी मां 'प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् (८।२।८८)' अ‍े सूत्र रच्युं छे । जेमां पूर्वसूत्र ८६ मांथी 'युष्मदस्मदोः' अ‍े पदनी अनुवृत्ति आवे छे । आ सूत्रो युष्मद् अने अस्मद् अ‍े सर्वनामने आकारादेशनुं विधान करे छे । आ विधान लौकिक अने वैदिक बने प्रयोगोमां लागु पड़े छे । तेथी भोजदेवे आत् पद प्रयोजीने अ‍ेने पोताना सूत्रमां वणी लीधुं छे । पछी प्रथमा द्विवचननी बाबतमां आकारादेश मात्र लौकिक प्रयोग पूरतो ज मर्यादित होवाथी पाणिनिअ‍े सूत्रोमां भाषायाम् पद प्रयोज्युं छे, ज्यारे भोजदेवना सूत्रमां छन्दसि नो अधिकार आवतो होई तेमणे निषेधवाचक 'न' प्रयोज्यो छे । प्रथमा द्विवचनने लगतुं आ विधान युष्मद् अने अस्मद् सर्वनामने ज लागु पडतुं होवाथी पाणिनिनो सूत्रक्रम बराबर हतो, जेथी आ पदोनी अनुवृत्ति ते पछी प्रथमा द्विवचन अंगेना सूत्रमां आवी शकती नथी । उलटुं अ‍े पूर्व सूत्रमांना ॠकारान्त धातुओने लागु पडतां अनर्थ ज सर्जाय ! तेथी भोजदेवना सूत्रक्रममां उपर दर्शाव्या सुजब क्रम पलटावो आवश्यक ठरे छे । उपरान्त भोजदेवना पाठमांनो द्विर्वचने अ‍े पाठ भ्रष्ट होवाथी रेफ काढी नाखी पाठशुद्धि पण अपेक्षित ठरे छे ।"

डॉ॰ कंसारा ने मद्रास संस्करण के उपर्युक्त सूत्रों को पलट दिया है । परन्तु इसके चलते सूत्र 'युष्मदस्मदोरात्' व्यर्थ पड़ जाता है, क्योंकि इस सूत्र से जिस कार्य का विधान प्राप्त होता है, वह स॰कं॰ के छठे अध्याय में पहले ही कह दिया गया है । उन्होंने जिन दो समस्याओं का उल्लेख किया है, वे दोनों सूत्रों को एक साथ पढ़ने से पैदा ही नहीं होतीं ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।१३९-१४० की शुद्धि पर विचार करते हैं ।

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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ
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पूर्वपदात् ॥८।२।१३९॥ स्तुतस्तोमादीनाम् ॥८।२।१४६॥
स्तुतस्तोमादीनाम् ॥८।२।१४०॥ पूर्वपदात् ॥८।२।१४७॥
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ये सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्र पर आधारित हैं -
स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि ॥८।३।१०५॥ एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, मूर्धन्यः, संहितायाम् ।
पूर्वपदात् ॥८।३।१०६॥ छन्दसि, एकेषाम्, सः, इण्कोः, नुम्विसर्जनीयशर्व्यवायेऽपि, मूर्धन्यः, संहितायाम् ।

पाणिनिसूत्र ॥८।३।१०५॥ पर निम्नलिखित वार्त्तिक पाया जाता है –
स्तुतस्तोमयोछन्दस्यनर्थकं वचनं पूर्वपदादिति सिद्धत्वात् ॥१॥

कंसारा जी ने यहाँ भी मद्रास संस्करण के सूत्रों को पलट दिया है, परन्तु इसके लिए उन्होंने कोई तर्क नहीं दिया । इन सूत्रों को पलटकर अष्टाध्यायी के सूत्रों जैसा बनाते समय उन्होंने कात्यायन के वार्त्तिक पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया । स॰कं॰ की रचना के समय भोज ने उपर्युक्त पाणिनि सूत्रों के साथ-साथ वार्त्तिक का भी ख्याल रखा है । वस्तुतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्धपाठ 'पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्' है अर्थात् दो सूत्र नहीं बल्कि एक ही है । अष्टाध्यायी में आयी अनुवृत्तियों की सङ्गत अनुवृत्तियाँ स॰कं॰ में निम्न प्रकार से आती हैं -

तयोर्य्वावचि संहितायाम् (७।३।१५०) से 'संहितायाम्'
कुण्कुभ्यामपदान्तस्यादेशप्रत्ययस्य सष्षः (७।४।४८) से 'इण्कुभ्याम्',
बहुलं छन्दसि (८।१।१) से 'छन्दसि'
सहेः साढस्सष्षः (८।२।१३६) से 'सः', 'षः'
यजुषि वा (८।२।१३८) से 'वा' ।

गुजराती संस्करण में उपर्युक्त सूत्रों की वृत्ति में 'यजुषि' का भी प्रयोग किया गया है जो पाणिनिसूत्र 'यकुष्येकेषाम्' (८।३।१०४) एवं 'स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि' (८।३।१०५) के परिप्रेक्ष्य में सही नहीं है । यदि केवल यजुर्वेद में ही सकार का षकार अभिप्रेत होता तो सूत्र ८।३।१०५ में पाणिनि मुनि 'छन्दसि' शब्द का प्रयोग नहीं करते । भोजसूत्र 'पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्' का अर्थ बिलकुल सरल है -

पूर्व पद में स्थित इण् तथा कवर्ग से उत्तर नुम्, विसर्जनीय तथा शर् का व्यवधान होने पर भी स्तुत, स्तोम आदि के सकार का वेद-विषय में विकल्प से षकारादेश होता है । उदाहरण - त्रिभिः ष्टुतस्य, त्रिभिः स्तुतस्य । गोष्टोमम्, गोस्तोमम् । द्विषन्धिः, द्विसन्धिः । मधुष्ठानम्, मधुस्थानम् । द्विषाहस्रम्, द्विसाहस्रम् । यदिन्द्राग्नी दिविष्ठः (ऋ॰ १।१०८।११) । यूयं हि ष्ठा (ऋ॰ ६।५१।१५, ८।७।१२, ८।८३।९) । परि हि ष्मा (ऋ॰ ९।८७।६) । युवं हि स्थः स्वर्पती (ऋ॰ ९।१९।२) ।
पूर्व पदं पूर्वपदमिति सामान्यत आश्रीयते न तु समासावयव एवेति वाक्येऽपि तेनैव सिद्ध षत्वम् ।[2]

गुजराती संस्करण में 'वा' की अनुवृत्ति नहीं ली गयी है, परन्तु अष्टाध्यायी की टीकाओं में 'एकेषाम्' की अनुवृत्ति सहित वैकल्पिक षकारादेश का विधान ही प्राप्त होता है ।

अब हम भोजसूत्र ८।२।१२०-१२१ पर विचार करते हैं ।

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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।१२०॥ ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।१२६॥ यज्ञकर्मणि याज्यान्तः ।
याज्यान्तः ॥८।२।१२१॥ याज्यान्तः ॥८।२।१२७॥
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उपर्युक्त सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्र पर आधारित हैं -
ये यज्ञकर्मणि ॥८।२।८८॥ प्लुत उदात्तः, पदस्य ।
याज्यान्तः ॥८।२।९०॥ टेः, यज्ञकर्मणि, वाक्यस्य, प्लुत उदात्तः, पदस्य ।

पाण्डुलिपि का पाठ ठीक होने पर भी सरस्वतीकण्ठाभरण के दोनों सम्पादकों ने बिना सोचे-समझे पाणिनि सूत्र थोपे दिये हैं । काशिका में पाणिनि-सूत्र ८।२।८८ के लिए 'ये ३ यजामहे' उदाहरण मिलता है । स॰कं॰ के सूत्र 'ये यजामहे-ब्रूहि-प्रेष्य-श्रौषड्-वौषडावहानामादेः' (८।२।१२४) से इसकी सिद्धि हो जाती है । गुजराती संस्करण में सूत्र ८।२।१२६ और ८।२।१३० दोनों की वृत्ति में 'ये ३ यजामहे' ही मिलता है । उपर्युक्त भोजसूत्र ८।२।१२४ का सङ्गत पाणिनि सूत्र 'ब्रूहि-प्रेष्य-श्रौषड्-वौषडावहानामादेः' (८।२।०१) है ।

पाणिनिसूत्र ८।२।८८ एवं ९१ में भोज द्वारा जो परिवर्त्तन किया गया है, वह पाणिनिसूत्र 'ये यज्ञकर्मणि' (८।२।८८) पर उपलब्ध कात्यायन वार्त्तिकों पर आधारित है -
ये यज्ञकर्मणीत्यतिप्रसङ्गः ॥१॥
ये यज्ञकर्मणीत्यतिप्रसङ्गो भवति । इहापि प्राप्नोति । ये देवासो दिव्येकादश स्थ (ऋ॰ १।१३९।११) इति ।
सिद्धं तु ये यजामह इति ब्रूह्यादिषूपसंख्यानात् ॥२॥
सिद्धमेतत् । कथम् । ये यजामहे शब्दो ब्रूह्यादिषूपसंख्येयः ॥

अब हम भोजसूत्र ८।२।७४ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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ऋत इद्धातोः ॥८।२।७४॥ ॠत इद्धातोः ॥८।२।७५॥ ॠत इद्धातोः ॥८।२।७५॥
उच्च ॥८।२।७६॥
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यह भोजसूत्र निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है -
बहुलं छन्दसि ॥७।१।१०३॥ उत्, ऋतः, धातोः ।
उपर्युक्त भोजसूत्र के बारे में डॉ॰ कंसारा ने निम्नलिखित विचार प्रकट किया है (पृ॰ ४०१) –
"14. उच्च ॥८।२।७६॥
डॉ॰ चिंतामणिअ‍े अष्टाध्यायीमां ऋत इद्धातोः (७।१।१००) अ‍ेवुं सूत्र रच्युं छे जेने भोजदेवे सरस्वतीकण्ठाभरणमां पोताना सूत्र तरीके अपनावी लीधुं छे अने डॉ॰ चिंतामणिना पाठमां अ‍े क्रमांके आ सूत्र नोंध्युं छे पाणिनिअ‍े उपर निर्देशला सूत्र पछी, वचमां अ‍ेक सूत्र मूकीनेस उदोष्ठ्यपूर्वस्य (७।१।१०२) अ‍ेवुं सूत्र रचीने ॠकारनी पूर्वे ओष्ठ्य वर्ण आवतो होय तेवा ऋकारान्त धातुना अंगने उकारादेशनुं विधान कर्युं छे । त्यार बाद पाणिनिअ‍े बहुलं छन्दसि (७।२।१०३) अ‍ेवुं सूत्र रचीने वैदिकप्रयोगमां ऋकारान्त धातुना अंगने ते ओष्ठ्य पूर्व होय के न होय तो पण बाहुलकथी उकारादेश थाय छे तेवुं विधान कर्युं छे । तेथी भोजदेव आ पादना ऋत इद्धातोः अ‍े सूत्र पछी आ उकारादेशनी वैदिक प्रयोगमांनी जोगवाई करवा उपर मुजबनुं अ‍ेक सूत्र आपवानुं चूकी गया छे । आ क्षति दूर करवा उपर मुजबनुं वधारानुं सूत्र भोजदेवना पाठमां जरूरी ठरे छे ।"

"Emendations essential to the Vedic Grammar of Bhojadeva"[3] नामक अपने लेख में भी वे तर्क देते हैं (पृ॰ ४७) -
"Bhojadeva has adopted (P. VII. i. 100) as B. VIII, ii, 74. However, he has forgotten to incorporate the prescription of P. VII. i. 103 in his scheme."

उनके इस तर्क से हम सहमत नहीं । पाणिनिसूत्र 'ॠत इद्धातोः' (७।१।१००) का प्रावधान स॰कं॰ के वैदिक प्रकरण (आठवें अध्याय) में नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस सूत्र का पाठ भोजसूत्र ६।४।७ में पहले ही किया जा चुका है । आठवें अध्याय में उपलब्ध सूत्रपाठ 'ॠत इद्धातोः' पाण्डुलिपि में भ्रष्ट है । इसका शुद्धपाठ 'ॠत उद्धातोः' होना चाहिए । भोजसूत्र 'उदोष्ठ्यपूर्वस्य' (६।४।९) में ओष्ठ्यपूर्व ॠदन्त को उकारादेश का विधान किया गया है, बहुल ग्रहण से अनोष्ठ्य-पूर्व तॄ गॄ के ॠ को भी उत्व होता है - मित्रावरुणौ ततुरिः (ऋ॰ १।१४५।३) । दूरे ह्यध्वा जगुरिः (ऋ॰ १०।१०८।१) । ओष्ठ्यपूर्व ॠदन्त का भी कहीं-कहीं नहीं होता - 'पप्रितमम्', 'वव्रितमम्' (क्रमशः पॄ एवं वॄ धातु से) और कहीं-कहीं होता भी है - पपुरिः (ऋ॰ १।४६।४) ।


तालिका १

सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. न प्रथमाद्विर्वचने युष्मदस्मदोरात् न प्रथमाद्विवचने युष्मदस्मदोरात्
॥८।२।७५॥ ॥८।२।७७॥

२. युष्मदस्मदोरात् न प्रथमाद्विवचने
॥८।२।७६॥ ॥८।२।७८॥

३. पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम् पूर्वपदात् स्तुतस्तोमादीनाम्
॥८।२।१३९॥ ॥८।२।१४६॥

४. स्तुतस्तोमादीनाम् पूर्वपदात्
॥८।२।१४०॥ ॥८।२।१४७॥

५. ये यज्ञकर्मणि ये यज्ञकर्मणि यज्ञकर्मणि याज्यान्तः
॥८।२।१२०॥ ॥८।२।१२६॥ (पाण्डुलिपि का पाठ सही है)

६. याज्यान्तः याज्यान्तः
॥८।२।१२१॥ ॥८।२।१२७॥

७. ॠत इद्धातोः ॠत इद्धातोः ॠत उद्धातोः
॥८।२।७४॥ ॥८।२।७५॥
उच्च ॥८।२।७६॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६ एवं जनवरी १९९७.
2. सिद्धान्तकौमुदी की सुबोधिनी टीका, सिद्धान्तकौमुदी, चतुर्थ खण्ड, पृ॰ ४५२, प्रकाशक - मोतीलाल बनारसीदास ।
3. Paper submitted to the A.I.O.C., 35th Session; Hardwar, 1990.

(वेदवाणी, सितम्बर १९९७, पृ॰ २१-२५, में प्रकाशित)

4. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (२)

(स्वर प्रकरण)

Synopsis

In this article, further four sutras dealing with accent rules of SKA are discussed which are incorrect in both the editions (see Table 1 at the end)

स्वर प्रकरण के और चार सूत्रों की शुद्धि पर इस लेख में विचार किया जायेगा । इन सभी सूत्रों के शुद्ध पाठ तालिका १ में दिये गये हैं ।

सर्वानुदात्त निषेध प्रकरण में मद्रास संस्करण के ऐसे चार सूत्रों (स॰कं॰ ८।३।२१२-२१५) की शुद्धि पर विचार किया जा रहा है जिनका पाठ पाण्डुलिपि में सही है मगर स॰कं॰ के दोनों सम्पादकों ने बिना सोचे-समझे इन्हें पाणिनि सूत्रों के ढाँचे में ढालकर अशुद्ध कर दिया है । इन सूत्रों की शुद्धि के लिए अष्टाध्यायी के सङ्गत सूत्रों की जानकारी अत्यावश्यक है । इसलिए ये सभी सूत्र नीचे उद्धृत किये जाते हैं ।

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पाणिनिसूत्र स॰कं॰ सूत्र (म॰ सं॰)
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यावद्यथाभ्याम् ॥८।१।३६॥ पुरा च परीप्सायां वा ॥८।३।२०९॥

पूजायां नानन्तरम् ॥८।१।३७॥ अहो च ॥८।३।२१०॥

उपसर्गव्यपेतं च ॥८।१।३८॥ पूजायां नित्यम् ॥८।३।२११॥

तुपश्यपश्यता हैः पूजायाम् ॥८।१।३९॥ तुपश्यपश्यता हैः पूजायाम् ॥८।३।२१२॥

अहो च ॥८।१।४०॥ यावद्यथाभ्याम् ॥८।३।२१३॥

शेषे विभाषा ॥८।१।४१॥ उपसर्गव्यपेतम् ॥८।३।२१४॥

पुरा च परीप्सायाम् ॥८।१।४२॥ शेषे वा ॥८।३।२१५॥

(गु॰सं॰ में ८।३।२१२ से ८।३।२१८)

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स॰कं॰ की पाण्डुलिपि में सूत्र ८।३।२१२-२१५ इस प्रकार हैं -

तुपश्यपश्यताहैः ।

यावद्यथाभ्यामनुपसर्गव्यपेतम् ।

शेषे च ।

सूत्रार्थ निर्धारण में अनुवृत्तियाँ बहुत ही सहायक होंगी और इसी से उपर्युक्त सूत्रपाठों की शुद्धि की जाँच की जा सकेगी, इसलिए अनुवृत्तियाँ भी दर्शाई जा रही हैं । पाणिनिसूत्र ८।१।३६ में डॉ॰ प्रज्ञादेवी ने 'अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति' में निम्नलिखित अनुवृत्तियाँ दी हैं (सन्दर्भ १, पृ॰ ४८६) - "तिङ्, (युक्तम्,) न, अनुदातं सर्वमपादादौ, पदात्, पदस्य ।" उन्होंने 'उक्तम्' को अनुवृत्ति में नहीं दर्शाया है, किन्तु वृत्ति में 'तिङ्युक्तम्' शब्द का प्रयोग किया है । अतः 'युक्तम्' की भी अनुवृत्ति पाणिनिसूत्र 'निपातैर्यद्ययदि........................ यत्र-युक्तम्' (८।१।३०) से आती है, यह स्पष्ट है । स॰कं॰ में ये अनुवृत्तियाँ कैसे आती हैं, यह अब दर्शाया जाता है ।

तिङ्ङतिङः (८।३।२०१) से 'तिङ्'
निपातैर्यदि......... यत्र-युक्तम् (८।३।२०३) से 'युक्तम्'
न लुट् (८।३।२०२) से 'न'
शेषं सर्वमनुदात्तम् (८।३।१९६) से 'सर्वमनुदात्तम्'

वस्नसादयः (८।३।१९७) से 'वस्नसादि' को सर्वानुदात्त कहा है । परन्तु 'वस्नसादि' आदेश, सूत्र 'युष्मदस्मदोर्यु ग्विभक्त्यन्तयोर्वस्नसौ वा' (७।३।२७) से होते हैं और इस सूत्र में 'पदादपादादौ समानवाक्ये' (७।३।३६) से 'पदादपादादौ' और 'पदस्य' की अनुवृत्तियाँ 'वस्नसादयः' (८।३।१९७) में भी लागू होंगी और ये ही अनुवृत्तियाँ सूत्र ८।३।२०९-२१५ में भी आयेंगी । अतः पाणिनिसूत्र ८।१।३६ की उपर्युक्त सभी अनुवृत्तियाँ स॰कं॰ सूत्र ८।३।२०९ में भी हैं । सूत्र ८।३।२०९-२१५ तक आई अनुवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं –

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स॰कं॰ सूत्र अनुवृत्तियाँ

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८।३।२०९ तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य

८।३।२१० वा, तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य

८।३।२११ अहो, तिङ्, युक्तम्, न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य

८।३।२१२ पूजायाम्,तिङ्,युक्तम्,न,सर्वमनुदात्तम्,पदादपादादौ, पदस्य

८।३।२१३-२१४ पूजायाम्,तिङ्,युक्तम्,न, सर्वमनुदात्तम्, पदादपादादौ, पदस्य

८।३।२१५ यावद्यथाभ्याम्,तिङ्,युक्तम्,न,सर्वमनुदात्तम्,पदादपादादौ,पदस्य

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सूत्र ८।३।२१५ में 'शेष' से पूजा-विषय को छोड़कर शेष विषय विवक्षित हैं ।

अब हम एक-एक करके पाण्डुलिपि के सूत्रपाठों के औचित्य पर चर्चा करते हैं । उपर्युक्त पाणिनि सूत्रों एवं स॰कं॰ सूत्रों की तुलना करने से यह स्पष्ट है कि भोजदेव ने पाणिनि सूत्रों के क्रम को उलट-पलट दिया है और ऐसा निष्कारण नहीं किया है । पाणिनिसूत्र ८।१।३७ में दो बार 'न' के प्रयोग से सकारात्मक अर्थ होने के कारण सर्वानुदात्त (निघात) ही होता है । पाणिनिसूत्र ८।१।३९ में सूत्र ८।१।३७ से ही 'पूजायाम्' की अनुवृत्ति आने पर भी फिर 'पूजायाम्' का ग्रहण क्यों किया गया - इसकी चर्चा महाभाष्य वगैरह में की गई है । अगर यहाँ 'पूजायाम्' का ग्रहण न कर सिर्फ 'तु पश्यपश्यताहैः' इतना ही कहा जाता तो यहाँ दो-दो 'न' की अनुवृत्ति आने में तिङ्युक्त का निघात प्राप्त होता जबकि निघात-प्रतिषेध इष्ट है । अतः 'पूजायाम्' का ग्रहण किया गया है । स॰कं॰ में दो बार 'न' की अनुवृत्ति आती ही नहीं । उपर्युक्त सभी सूत्रों में निघात-प्रतिषेध का ही प्रकरण है - नित्य विधि या वैकल्पिक । अतः स॰कं॰ सूत्र 'तुपश्यपश्यताहैः पूजायाम्' (८।१।२१२, गु॰सं॰ में २१५) में जो 'पूजायाम्' रखा गया हैं, वह व्यर्थ है । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।

'यावद्यथाभ्यामनुपसर्गव्यपेतम्' - इस सूत्र का अर्थ है कि 'यावत्' एवं 'यथा' के बाद व्यवधान सहित तिङ्न्त का पूजा विषय में सर्वानुदात्त (निघात) नहीं होता है, उपसर्गव्यपेत को छोड़कर अर्थात् व्यवधान रहित 'यावत्' और 'यथा' शब्द से युक्त तिङन्त आये या इनके बीच उपसर्गमात्र का व्यवधान हुआ हो तो उस तिङन्त का पूजा विषय में निघात ही होगा । पाणिनिसूत्र ८।१।३७-३८ का भी यही अर्थ है । उदाहरणस्वरूप, उपसर्गव्यपेत तिङन्त - यावत् प्रप॒च॒ति॒ शोभनम् । यावत् प्रक॒रो॒ति॒ चारु । यथा प्रप॒च॒ति॒ शोभनम् । यथा प्रक॒रो॒ति॒ चारु । इन उदाहरणों में यावत्, यथा एवं तिङ् के मध्य में 'प्र' उपसग का व्यवधान है । शोभनम्, चारु कहने से यहाँ स्पष्ट पूजा अर्थ है ही । अतः तिङन्त को निघात हो जायगा । अनुपसर्गव्यपेत तिङन्त - यावत् देवदत्तः पच॑ति शोभनम् । यहाँ 'पचति' का निघात प्रतिषेध होने से धातोरन्तः (स॰कं॰ ८।३।१४) से 'पच्' धातु का अन्त उदात्त अर्थात् 'पच्' का 'अ' उदात्त हुआ है । अ देखिये सूत्र 'उपसर्गव्यपेतम्' (गु॰सं॰ ८।३।२१७), जिसे पाणिनिसूत्र 'उपसर्गव्यपेतं च' (८।१।३८) के समान कर दिया गया है, की गुजराती व्याख्या –

सूत्रार्थ - (स्वरविषये) यावद्यथाभ्यामनन्तरमुपसर्ग व्यवहितं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ।
उदा॰ - यच्चि॒द्धि ते॒ विशो॑ यथा॒ प्र दे॑व वरुण व्र॒तम् । मि॒नी॒मसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥ (ऋ॰ सं॰ १।२५।१) । अहीं यथा शब्द साथे संकळायेलुं अने प्र उपसर्गव्यवहित मि॒नी॒मसि क्रियापद मध्योदात्त छे; नहीं के सर्वानुदात्त ।

इस सूत्रार्थ से स्पष्ट है कि यह अष्टाध्यायी के ठीक विपरीत विधि है । उदाहरण भी बिलकुल अप्रासङ्गिक है, क्योंकि 'मिनीमसि' पादादि है जबकि 'अपादादौ' की अनुवृत्ति हे । इतना ही नहीं, यहाँ 'यथा' और तिङन्त 'मिनीमसि' के बीच सिर्फ उपसर्ग 'प्र' का ही व्यवधान नहीं, बल्कि 'देव', 'वरुण' और 'व्रतम्' का भी व्यवधान है । यह सब गड़बड़ी पाण्डुलिपि के एक ही सूत्र को दो सूत्रों में तोड़ने और इन दोनों को पाणिनि सूत्र के ढाँचे में ढालने से हुई है । आश्चर्य की बात तो यह है कि मद्रास संस्करण में फुटनोट के रूप में भी पाण्डुलिपि के असली पाठ का कोई उल्लेख नहीं है ।

अगले सूत्र 'शेषे च' को स॰कं॰ के दोनों सम्पादकों ने पाणिनिसूत्र 'शेषे विभाषा' (८।१।४१) का समतुल्य (equivalent) समझकर इसे अशुद्ध माना है और इसे सुधारकर 'शेषे वा' कर दिया है । मद्रास संस्करण में 'वा' की जगह फुटनोट प्राप्त होता है - "२. The original reads च" । गु॰सं॰ के सम्पादक ने 'शेषे वा' (८।३।२१८) पर अपनी वृत्ति में 'अहो' से युक्त तिङन्त का उदाहरण दिया है -

"सूत्रार्थ - (स्वरविषये) पूजाव्यतिरिक्ते शेषेऽर्थे पूर्वोक्तशब्दैर्युक्तं तिङन्तं विकल्पेन नानुदात्तं भवति ।
उदा॰ - ग्राममहो गमिष्यसि । आ लौकिक वाक्य असूयावचक छे, नहीं के आश्चर्यवाचक तेथी ग॒मिष्यसि॑ (sic) अ‍े मध्योदात्त छे, नहीं के सर्वानुदात्त ।"

डॉ॰ कंसारा 'पूर्वोक्तशब्दैर्युक्तं तिङन्तम्' से यह कहना चाहते हैं कि पूजा-विषय को छोड़कर अन्य विषयों में यावत्, यथा, तु, पश्य, पश्यत, अह, अहो- इन सभी शब्दों से युक्त तिङन्त का विकल्प से निघात प्रतिषेध होता है जबकि अष्टाध्यायी की टीकाओं में सिर्फ 'अहो' से युक्त तिङन्त के बारे में ही ऐसी विधि कही गयी है । जहाँ तक 'अहो' से युक्त तिङन्त का पूजा व्यतिरिक्त विषय में निघात प्रतिषेध के विकल्प का प्रश्न है, वह सूत्र 'अहो च' (स॰कं॰ ८।३।२१०, गु॰सं॰ में २१३) में पहले ही कहा जा चुका है । इसी सूत्र पर उन्होंने स्वयं वृत्ति दी है -

"सूत्रार्थ - (स्वरविषये) अहो इत्यनेन युक्तं च तिङन्तं विभाषाऽनुदात्तं न भवति ।"
'पूजायां नित्यम्' पर उनकी वृत्ति है -
"(स्वरविषये) पूजायां गम्यमानायां अहो इत्यनेन युक्तं तिङन्तं नानुदात्तं भवति ।"
अतः 'शेषे वा' सूत्र अगर अष्टाध्यायी की दृष्टि से देखा जाय तो व्यर्थ साबित होता है ।

अब हम पाण्डुलिपि के सूत्रपाठ 'शेषे च' पर विचार करते हैं । इस सूत्र का अर्थ है - 'यावत्' और 'यथा' शब्दों से युक्त तिङन्त का पूजा-विषय से शेष विषयों में भी सर्वानुदात्त (निघात) नहीं होता । उदाहरण-या॒वद॒धी॒ते । यथाधी॒ते । याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वित॒स्थुः (तै॰सं॰ ३।२।६।१) । यथा॒ त्वं दे॒वाना॒मसि (तै॰ब्रा॰ ३।१।६।२०) । यावत् देवदत्तः पच॑ति । 'युक्तम्' की अनुवृत्ति आने से 'यावद्यथाभ्याम्' में तृतीया विभक्ति है । तृतीयान्त होने से यावत् और यथा शब्द तिङन्त के बाद हों तो भी उस तिङन्त का निघात प्रतिषेध होता है । देवदत्तः पच॑ति यावत् । यही मुख्य उदाहरण है । 'याव॑च्च स॒प्त सिन्ध॑वो वित॒स्थुः' इत्यादि में 'यद्वृत्ताद्व्यवायेऽपि' (स॰कं॰ ८।३।२२२) से भी निघात प्रतिषेध की सिद्धि हो जाती है । पाणिनिसूत्र ८।१।३६ का भी उपर्युक्त अर्थ ही है ।



२. अब हम स॰कं॰ सूत्र ८।४।१०५ की शुद्धि पर विचार करते हैं ।
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म॰ सं॰/पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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दिवोदास वाध्यश्वादीनां छन्दसि॥८।४।१०५॥ दिवोदासादीनां छन्दसि ॥८।४।१०८॥
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डॉ॰ कंसारा परिशिष्ट - ३, पृष्ठ ४०७-४०८ पर इस सूत्र के बारे में अपना तर्क देते हैं -

"डॉ॰ चिन्तामणिना पाठमां दिवोदासवाध्र्यश्वादीनां छन्दसि (८।४।१०५) अ‍ेवुं सूत्र छे. पाणिनिअ‍े 'न भूताधिकसंजीवमद्राश्मकज्जलम्' (६।२।९१) अ‍े सूत्र रच्युं छे. 'तेनी उपर कात्यायने आद्युदात्तप्रकरणे दिवोदासादीनां छन्दस्युपसंख्यानम् अ‍े वार्तिक आप्यो छे. पाणिनीय सूत्रने भोजदेवे पोताना सूत्र रूपे ८।४।१०७ तरीके अपनावी लीधुं छे, अने आ सूत्रमां वार्तिके वचनने समाव्युं जणाय छे, वार्त्तिकमां स्पष्टपणे दिवोदास आदि शब्दो अद्युदात्त होवानुं विधान छे, पण भोजदेवे महाभाष्यकारना वध्र्यश्व ना उदाहरणने पण सूत्रमां समावी लीधुं छे, तेथी तेनो उल्लेख आध्र्यश्व अ‍ेम कर्यो छे. पण वेदमां वाध्र्यश्व शब्द सम्बोधन तरीके प्रयोजायो होई सर्वानुदात्त छे. ज्यारे वध्र्यश्व शब्द अन्तोदात्त ज मळे छे. अने केवळ दिवोदास शब्द ज आद्युदात्त मळे छे पतंजलिना समये कोई वैदिक ग्रंथमां कदाच वध्र्यश्व शब्द पण आद्युदात्त मळतो हशे, पण आजे अ‍ेवो कोई वैदिक ग्रन्थ मळतो नथी. तेथी सूत्रमांथी वाध्र्यश्व शब्द रद करवो आवश्यक छे."

उन्होंने मद्रास संस्करण में प्राप्त 'वाध्यश्व' पाठ को सुधारकर वाध्र्यश्व लिखा है । उनके मतानुसार कात्यायन के उपर्युक्त वार्त्तिक में भाष्यकार द्वारा दिये गये उदाहरण 'वध्र्यश्व' को भोजदेव के सूत्रपाठ में शामिल कर लिया है, जहाँ उसे बदलकर 'वाध्र्यश्व' कर दिया है । मगर उन्हें 'वाध्र्यश्व' शब्द वेद में केवल सम्बोधन रूप में प्रयुक्त सर्वानुदात्त ही मिला जबकि भोजदेव के सूत्र के अनुसार इसे आद्युदात्त होना चाहिए । और चूँकि 'वध्र्यश्व' शब्द अन्तोदात्त ही प्राप्त होता है, इस लिए उन्होंने भोजसूत्र से वाध्र्यश्व को हटाकर 'दिवोदासादीनां छन्दसि' यह सूत्रपाठ दिया है । हम उनके उपर्युक्त तर्क से सहमत नहीं । ऋग्वेद में से ही एक उदाहरण हम नीचे उद्धृत करते हैं जहाँ वाध्र्यश्व आद्युदात्त है -
प्र नु वो॑च॒ वाध्र्य॑श्वस्य॒ नाम॑ (ऋ॰सं॰ १०।६९।५)

अतः उपर्युक्त सूत्र का शुद्ध पाठ होगा -
दिवोदास-वाध्र्यश्वादीनां छन्दसि ॥८।४।१०५॥

डॉ॰ कंसारा ‘वाध्र्यश्व’ शब्द को महाभाष्यकार द्वारा दिया हुआ आद्युदात्त का उदाहरण समझते हैं मगर डॉ॰ वी॰पी॰ लिमये इसे उदाहरण नहीं मानते (सन्दर्भ २, पृ॰ ५३५-५३६) - "१३२.९-१० आद्युदात्त प्रकरणे दिवो॑दासादीनां छन्दस्युपसंख्यानं कर्तव्यम् । दिवोदासाय गायत । वध्र्यश्वाय दाशुषे ।
As usual M ought to have given two examples; but here he gives only one and that, too, in a confused manner; Kas. gives the correct one: दिवो॑दासं वध्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे॑ (RV ६.६१.१); SK gives another: दिवो॑दासाय दा॒शुषे॑ (RV ४.३०.२०)."

(संक्षिप्त शब्द - M = महाभाष्यकार, Kas = काशिका, SK = सिद्धान्तकौमुदी, RV = ऋग्वेद संहिता)


आभार
हमारे मित्र श्री पी॰ संतामरै कण्णन्, एम्॰एस्॰सी॰ (गणित) ने अपने मद्रास निवासी मित्र श्री संपत्, बी॰एस्॰सी॰ द्वारा स्पीड पोस्ट से स॰कं॰ पाण्डुलिपि की प्रतिलिपि (मद्रास संस्करण में A से निर्दिष्ट) के आठवें अध्याय की फोटोकॉपी उपलब्ध करवायी, इसके लिए इन दोनों के प्रति हम आभार प्रकट करते हैं । कुछ अशुद्ध सूत्रपाठों की शुद्धि में यह प्रतिलिपि बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई है ।

सन्दर्भ
१. डॉ॰ प्रज्ञादेवी: "अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति", तीसरा भाग, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ १९८४ ई॰ ।
२. Dr. V. P. Limaye: "Critical studies on the Mahabhasya", V.V.R.I. Hoshiyarpur, 1974, pp.xlii+2+972.

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. तु पश्यपश्यताहैः तुपश्यपश्यताहैः तुपश्यपश्यताहैः ।
पूजायाम् ॥८।३।२१२॥ पूजायाम् ॥८।३।२१५॥

२. यावद्यथाभ्याम् यावद्यथाभ्याम् यावद्यथाभ्यामनुप-
॥८।३।२१३॥ ॥८।३।२१६॥ सर्गव्यपेतम् ।

३. उपसर्गव्यपेतम् उपसर्गव्यपेतम्
॥८।३।२१४॥ ॥८।३।२१७॥

४. शेषे वा ॥८।३।२१५॥ शेषे वा ॥८।३।२१८॥ शेषे च ।
( पाण्डुलिपि का पाठ सही है । )
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(वेदवाणी, जनवरी १९९७, पृ॰ ८-१३, में प्रकाशित)

Thursday, April 3, 2008

3. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (१)

(स्वर प्रकरण)

Synopsis

Although most of the errors in the सूत्रपाठ of chapter 8 of the Madras edition of the सरस्वतीकण्ठाभरण (SKA) have been corrected in the Gujarati edition, many errors still remain in it. Besides, new errors have crept in due to rewording of not only the corrupted but also the correct sutras of the Madras edition. Some correct sutras of the manuscript have been forcibly replaced with the Panini sutras in both the editions of SKA without any care for the discussions and suggestions found in the Mahabhasya and the Kashika. The Concordance Panini-Bhoja prepared by the author has enabled him to correct some of the corrupted sutras. In this article, 12 such sutras dealing with the accent rules have been considered that are incorrect in both the editions (see Table 2 at the end).

पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका (Concordance Panini-Bhoja) तैयार करते [1] हमने पाया कि गुजराती संस्करण (सन्दर्भ 1) में भी सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के बहुत सारे सूत्र अशुद्ध हैं । यद्यपि इस संस्करण में मद्रास संस्करण के अधिकतर भ्रष्ट पाठों को शुद्ध कर दिया गया है और आठवें अध्याय पर प्रथम बार वृत्ति लिखे जाने के कारण प्रशंसा के योग्य है, तथापि इस संस्करण में बहुत सारी ऐसी अशुद्धियाँ हैं, जिन्हें नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता । इसमें ऐसी नई अशुद्धियाँ भी हैं जो मद्रास संस्करण के न केवल भ्रष्ट बल्कि शुद्ध सूत्रपाठों को भी परिवर्तित करने के कारण उत्पन्न हुई हैं । कई हालतों में पाण्डुलिपि का सूत्रपाठ सही है, पर उन पाठों की जगह दोनों संस्करणों में पाणिनि-सूत्र थोप दिये गये हैं । ऐसा करते वक्त सम्पादक महोदय ने महाभाष्य और काशिका में की गई चर्चाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया । इस लेख में स्वर प्रकरण के 12 ऐसे सूत्रों पर विचार किया जायगा जिनका पाठ दोनों संस्करणों में अशुद्ध है । ये सूत्र निम्नलिखित हैं (सूत्रसंख्या मद्रास संस्करण की है) -
८।३।२४-२५, ८।४।२०-२१, ८।४।३-४, ८।३।२८-३१, ८।३।३३, ८।३।२१८।

सूत्रपाठ-तुलना के लिए पाण्डुलिपि की उस प्रतिलिपि [2] का भी उपयोग किया जायेगा जिसे डॉ॰ चिन्तामणि ने 'A' से निर्दिष्ट किया है (सन्दर्भ 2, PREFACE, पृष्ठ ix) ।

अब हम उपर्युक्त सूत्रों की शुद्धि पर विचार करते हैं । सबसे पहले हम सूत्र ८।३।२४-२५ पर चर्चा करेंगे जिनकी शुद्धि में गुजराती संस्करण के सम्पादक डॉ॰ कंसारा को भी क्लिष्ट कल्पनाएँ करनी पड़ीं, फिर भी वे सही पाठ की तह तक नहीं पहुँच पाये ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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तोदेयकौ च ॥८।३।२४॥ तौदादिको न ॥८।३।१८॥
वार्यदशैकादशिका ॥८।३।२५॥ गर्ह्ये कुसीदिक दशैकादशिकौ ॥८।४।२७॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “तोदेयकौ च वार्यदशैकादशिकाः ।“
मद्रास संस्करण के सूत्र ८।३।२४ पर डॉ॰ कंसारा ने अपना निम्नलिखित विचार दिया है (सन्दर्भ 1, पृष्ठ 404) -



"डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां वार्यदशैकादशिकाः (८।३।२५) अ‍ेवुं सूत्र छे । पाणिनिअ‍े प्रयच्छति गर्ह्यम् (४।४।३०) अने कुसीददशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ (४।४।३१) अ‍े बे सूत्रो रच्यां छे । अहीं कुसीद अने दशैकादश अ‍े बे शब्दोने निन्दनीय लेवड देवडना अर्थमां ष्ठन् अ‍े नित् अने ठच् अ‍े चित् प्रत्ययो लागवानो विधि छे । भोजदेव गर्ह्यम् (४।४।८९) दशैकादशकुसीदाभ्यां ष्ठन् (४।४।९१) अ‍ेम बे सूत्रोमां आ विषय समावी लीधो छे, पण तेमां ष्ठच् प्रत्ययनो विधि निर्देश्यो नथी । तेथी स्वरविधि वखते ठन् प्रत्यय लागतां ते नित् होवाथी आद्युदात्त स्वर थशे, पण चित् प्रत्ययनो विधि दर्शाण्यो न होवाथी अन्तोदात्त विधि नहीं थई शके । तेथी ज तेमणे वैदिक प्रयोगमां अन्तोदात्त स्वरनुं निपातन करवा आ सूत्र आठमा अध्यायमां लीधुं छे । पण अहीं लहियाअ‍े अणसमजने लीधे गर्ह्य ने बदले वार्य समजीने त्रण शब्दो थवाथी द्विवचन ने बदले बहुवचन करी कौ ने बदले काः अ‍ेम भ्रष्ट पाठ लखी दीधो जणाय छे । तेथी उपर मुजब पाठशुद्धि आवश्यक ठरी छे ।"

डॉ॰ कंसारा के उपर्युक्त मत से हम सहमत नहीं हैं । पाठशुद्धि के चक्कर में उन्होंने लगभग शुद्ध पाठ को भी अधिक भ्रष्ट कर दिया । हमारा तर्क इस प्रकार है –

पाणिनि-सूत्र "तूदी-शलातुर-वर्मती-कुचवाराड्ढक्-छण्-ढञ्-यकः" (४।३।९४) में 'तूदी' शब्द से ढक् प्रत्यय एवं 'कूचवार' शब्द से यक् प्रत्यय का विधान किया है । दोनों में प्रत्यय के कित् होने से 'तौदेय' और 'कौचवार्य' शब्द पाणिनि-सूत्र "कितः" (६।१।१६५) से अन्तोदात्त हैं । संगत (corresponding) भोजसूत्र इस प्रकार हैं -
तूदी वर्मतीभ्यां ढञ् ॥४।३।२१५॥
शण्डिक-शङ्ख-सट-शक-सर्वकेश-सर्वसेन-रह-बोध-कुचवारेभ्यो ञ्यः ॥४।३।२११॥
अर्थात् भोज ने 'तूदी' से ढञ् प्रत्यय एवं 'कुचवार' (sic) से ञ्य प्रत्यय कहा है । इन दोनों में प्रत्यय के ञित् होने से भोज्य-सूत्र "ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति" (८।३।७६) से 'तौदेय' और 'कौचवार्य' - ये दोनों शब्द आद्युदात्त होंगे किन्तु अन्तोदात्त इष्ट हैं । इसलिए स्वरसिद्धि के लिए अलग सूत्र की आवश्यकता है ।

पाणिनि सूत्र "कुसीद-दशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ" (४।४।३१) से 'कुसीद' शब्द से ष्ठन् प्रत्यय एवं 'दशैकादश' से ष्ठच् प्रत्यय का विधान है । ष्ठन् प्रत्यय के नित् होने से पाणिनि सूत्र "ञ्नित्यादिर्नित्यम्" (६।१।१९७) से 'कुसीदिक' शब्द आद्युदात्त है और ष्ठच् प्रत्यय के चित् होने से पाणिनि सूत्र "चितः" (६।१।१६३) से 'दशैकादशिक' शब्द अन्तोदात्त । आश्चर्य की बात है कि गुजराती संस्करण में 'कुसीदिक' शब्द को 'दशैकादशिक' के साथ पाठ करके अन्तोदात्त कहा गया है, जबकि भोजसूत्र ऐसा नहीं कहता । सङ्गत भोजसूत्र इस प्रकार है -
दशैकादश-कुसीदाभ्यां ष्ठन् (४।४।९१)
'कुसीद' शब्द से ष्ठन् प्रत्यय का विधान पाणिनि सूत्र जैसा है । अतः स्वरसिद्धि के लिए इसके लिए अलग सूत्र की जरूरत नहीं । परन्तु, 'दशैकादश' से भी ष्ठन् प्रत्यय का विधान होने से 'दशैकादशिक' आद्युदात्त बन जाता है जबकि इष्ट है अन्तोदात्त । अतः 'दशैकादशिक' शब्द के अन्तोदात्तत्व के लिए अलग सूत्र की जरूरत है ।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि भोजसूत्र ८।३।२४-२५ का शूद्धपाठ इस प्रकार होगा-
तौदेय-कौचवार्य-दशैकादशिकाः ८।३।२४॥

'कौचवार्य' शब्द के तीन टुकड़े 'कौ', 'च' और 'वार्य' करके 'कौ' को 'तौदेय' के साथ कर देने और 'वार्य' को दूसरे सूत्र में मिला देने से किसी को भी भ्रान्ति हो सकती है । शब्दों के तोड़ने-जोड़ने से बहुत बड़ी भ्रान्ति का एक अच्छा उदाहरण काशिकाविवरणपञ्जिका (न्यास) में डॉ॰ भीमसेन शास्त्री ने अपनी थीसिस 'न्यासपर्यालोचन' में दिया है - देखें पाणिनि सूत्र 'आडजादीनाम्' (६।४।७२) पर न्यास के 'न तु' शब्दों की जगह 'ननु' के प्रयोग पर उनकी विस्तृत चर्चा (पृ॰ ३२०-३२३) ।

मद्रास संस्करण के सूत्र 'तोदेयकौ च' (८।३।२४) को गुजराती संस्करण में आठ सूत्र पहले घसकाकर 'तौदादिको न' करके 'कर्षात्वतो घञः' (गु॰सं॰ ८।३।१७) के ठीक बाद रखा गया है । पाणिनिसूत्र 'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' (६।१।१५९) पर निम्नलिखित काशिकावृत्ति पायी जाती है -

"कर्षतेर्धातोराकारवतश्च घञन्तस्यान्त उदात्तो भवति ।............ कर्ष इति विकृतनिर्देशः कृषते-र्निवृत्त्यर्थः । तौदादिकस्य घञन्तस्य कर्ष इत्याद्युदात्त एव भवति ।"

अर्थात् कृष् धातु के गुण सहित यानी 'कर्ष' ऐसे विकृत निर्देश से ही स्पष्ट है कि अन्तोदात्तत्व के लिए सिर्फ भौवादिक कृष् धातु विवक्षित है न कि तौदादिक । अतः 'तौदादिको न' ऐसे सूत्र की जरूरत ही नहीं है ।
अब हम भोजसूत्र ८।४।२०-२१ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अभूवाक् चिद्दिधिषु ॥८।४।२०॥ पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥
पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥ न भूवाक्चिद्दिधिषु ॥८।४।२२॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - “अभूवाक्‌चिद्दिधिषु पत्यावैश्वर्ये “.

मद्रास संस्करण के उपर्युक्त सूत्रों पर डॉ॰ कंसारा ने निम्नलिखित तर्क दिया है (सन्दर्भ १, पृष्ठ ४०७) -
"डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां अभूवाक्‌चिद्दिधिषु (८।४।२०) अने पत्यावैश्वर्ये (८।४।२१) अ‍ेम बे सूत्रो आप्या छे । पाणिनीय अष्टाध्यायीमां पत्यावैश्वर्ये (६।२।१८) अने न अभूवाक्‌चिद्दिधिषु (६।२।१९) अ‍े क्रमे बे सूत्रो जोवा मळे छे । आमांथी १९ मां सूत्रमां पूर्वना १८मा सूत्रनां बने पदोनी अनुवृत्ति आवे छे । अने १९ मुं सूत्र भू, वाक्, चित् अने दिधिषु अ‍े शब्दोनी बाबतमां प्रकृति स्वर नी निषेध करे छे । भोजदेवना पाठमां सूत्रोनो क्रम उलटो थई गयो छे तेथी आ प्रमाणेनी अनुवृत्ति न आववाथी अभीष्ट प्रयोगो सिद्ध थशे नहीं । तेथी भोजदेवना ग्रन्थमां ग्रन्थकार के लहियानी शरत-चूकथी उलट-सुलट थयेलो आ क्रम सुधारवानी पाठशुद्धि आवश्यक ठरी छे ।"


डॉ॰ कंसारा का यह कथन कि भोजदेव के पाठ में सूत्रों का क्रम उलटा हो गया है, इससे 'अभूवाक्चिद्दिधिषु' में 'पत्यावैश्वर्ये' की अनुवृत्ति नहीं आने से अभीष्ट प्रयोग सिद्ध नहीं होते, सही नहीं है । मद्रास संस्करण में अशुद्धि यह है कि उपर्युक्त सूत्र एकत्र लिखने के बजाय दो सूत्र लिखे गये हैं । हमारे मत में पाण्डुलिपि का पाठ सही है । भोजदेव की इस प्रकार की सूत्र शैली के कई उदाहरण स॰कं॰ के अन्य अध्यायों में भी प्राप्त होते हैं । कुछ ऐसे सूत्र दण्डनाथवृत्ति सहित नीचे दिये जाते हैं ।

(i) अविभक्तिशस्तसादौ तुस्माः ॥१।२।१०॥
दण्डनाथवृत्ति - हलन्त्यमित्यविशेषेण प्राप्तमित्वं तुस्मानामनेन नियम्यते । विभक्तिशस्तसादिभ्योऽन्यत्रैव तवर्ग सकार मकार इतो भवन्ति । 'अचो यत्' । पेयम् । ...............
(ii) अमत्यर्थाद्यधिकरणे निष्ठायाम् ॥३।१।२९६॥
दण्डनाथवृत्ति - मतिबुद्धिपूजार्थेभ्योऽधिकरणे च या निष्ठा ततोऽन्यस्यां प्रयुज्यमानायां कर्मणि षष्ठी विभक्तिर्न भवति । भुक्त ओदनो देवदत्तेन । गतो ग्रामं देवदत्तः ।..................
(iii) अजागृणिश्वीनां सिचि परस्मैपदेषु ॥७।१।३॥
दण्डनाथवृत्ति - परस्मैपदपरे सिचि परत इगन्तायाः जागृ-णि-श्वि-वर्जितायाः प्रकृतेर्वृद्धिर्भवति अन्तरतम्यात् । अकार्षीत् । अचैषीत् । .............. अजागृणिश्वीनामिति किम् । अजागरीत् । ............
(iv) अस्त्रीशूद्रप्रत्यभिवादे नामगोत्रयोः ॥७।३।१३५॥
दण्डनाथवृत्ति - यदभिवाद्यमानो गुरुः कुशलानुयोगेनाशिषा वा युक्तं वाक्यं प्रयुङ्क्ते स प्रत्यभिवादः । तस्मिन्नस्त्रीशूद्रविषये नाम्नो गोत्रस्य च सम्बन्धिनो वाक्यस्य टेः प्लुतो भवति । अभिवादये देवदत्तोऽहम् । ........... स्त्रीशूद्रपर्युदासः किम् ? ............. ।

अब हम भोजसूत्र (८।४।३-४) की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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द्वितीया तृतीया तुल्यार्थोपमान- तत्पुरुषे द्वितीया तृतीया तुल्यार्थोपमान-
कृत्या नञ् ॥८।४।३॥ कृत्याः ॥८।४।३॥
कुप्रादयस्तत्पुरुषे ॥८।४।४॥ अव्यये नञ्कुचादयः ॥८।४।४॥
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स॰कं॰ के ये सूत्र पाणिनि के सूत्र "तत्पुरुषे तुल्यार्थ-तृतीया-सप्तम्युपमानाव्यय-द्वितीया-कृत्याः" (६।२।२) पर आधारित हैं । पाणिनि के इस सूत्र पर निम्नलिखित वार्त्तिक है -
अव्यये नञ्कुनिपातानाम् ॥३॥

पाणिनि मुनि ने तत्पुरुष समास में अव्यय को प्रकृति स्वर कहा है । सामान्य रूप से अव्यय कहने से अतिव्याप्ति दोष आता है, क्योंकि पाणिनि सूत्र स्वरादिनिपातमव्ययम्, तद्धितश्चासर्वविभक्तिः, कृन्मेजन्तः, क्त्वा-तोसुन्-कसुनः, अव्ययीभावश्च (१।१।३७-४१) से अव्यय की गिनती में ये सभी आयेंगे । मगर 'स्नात्वाकालकः' वगैरह में इष्ट नहीं है । इस अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए कात्यायन मुनि ने उपर्युक्त वार्त्तिक पढ़ा है । इससे प्रकृतिस्वर के लिए अव्यय में सिर्फ 'नञ्', 'कु' और निपातों का ही ग्रहण होता है । निपात अव्ययों की संख्या भी बहुत बड़ी है । पाणिनिसूत्र प्राग्रीश्वरान्निपाताः, चादयोऽसत्त्वे, प्रादयः, .............. अधिरीश्वरे (१।४।५६-९७) में निपातों की गिनती की गई है । इसी में चादिगण और प्रादिगण भी पढ़े गये हैं । न्यासकार पाणिनिसूत्र ६।२।२ पर लिखते हैं (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९१) -
"नञ्कुशब्दयोः 'चादयोऽसत्त्वे' इति चादिषु पाठान्निपातत्त्वम्, निरतिशब्दयोस्तु 'प्रादयः' इति, तयोः प्रादिषु पाठात् ।"

पदमञ्जरीकार हरदत्तमिश्र का कहना है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९२) -
"कुग्रहणं तु चादिषु पाठाभावात्, पठितव्यस्त्वसौ, अन्यथाऽव्ययसंज्ञा न स्यात्; स्वरादिष्वपि पाठाभावात् ।"
डॉ॰ सुमित्र मंगेश कत्रे द्वारा सम्पादित "Dictionary of Panini: Ganapatha" में 'कु' का स्वरादिगण में पाठ मिलता है ।
अब हम कात्यायन मुनि के उपर्युक्त वार्त्तिक पर आते हैं । यहाँ एक समस्या यह उपस्थित होती है कि अगर 'नञ्' और 'कु' का पाठ चादिगण में किया ही गया तो ये दोनों निपात हैं और अगर ये दोनों निपात हैं तो 'नञ्' और 'कु' के अलग से पाठ करने की जरूरत ही क्या है, सीधे 'निपातानाम्' क्यों नहीं कहा गया ? [3] इस समस्या का कोई उल्लेख न्यास में नहीं मिलता, पर पदमञ्जरी में इसका उल्लेख मिलता है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९१) –

"निपातत्वादेव सिद्धे नञ्ग्रहणम् अकरणिरित्यादौ परस्यापि कृत्स्वरस्य बाधनार्थम् । तथा चाव्यथीत्वत्रापि कृता सह निर्दिष्टो यत्र नञ्, तत्रापि नञ एवं स्वरो भवति, तथा विभक्तिस्वरान्नञ् स्वरो बलीयान् भवति ।"

परन्तु पदमञ्जरीकार हरदत्तमिश्र के इस समाधान में कोई दम नहीं है । अगर यह मान लिया जाय कि निपातत्व से ही सिद्ध होने पर नञ् का ग्रहण इसलिए किया गया है ताकि 'अकरणिर्ह ते वृषल' इत्यादि में कृत्स्वर का बोध हो जाए; 'अव्यथी' - इस शब्द में भी, जहाँ कृत् के साथ निर्दिष्ट नञ् है, नञ् स्वर ही हो जाये और विभक्ति स्वर से नञ् स्वर बलवान् हो जाय तो दूसरी समस्या यह खड़ी होती है कि कात्यायन मुनि ने पाणिनिसूत्र "अनुदात्तं पदमेकवर्जम्" (६।१।१५८) पर निम्नलिखित वार्त्तिकों का पाठ क्यों किया ?

विभक्तिस्वरान्नञ्स्वरो बलीयान् ॥१३॥
यच्चोपपदं कृति नञ् ॥१५॥
सहनिर्दिष्टस्य च ॥१६॥

महाभाष्य में भी इस समस्या का कोई समाधान नहीं प्राप्त होता । महाभाष्य के टीकाकार कैयट उपाध्याय अपनी प्रदीप टीका में लिखते हैं (सन्दर्भ ४, भाग ६) -

"नञ्कुनिपातानामिति । निपातत्वादेव सिद्धे नञ्ग्रहणं विस्पष्टार्थम्, अकरणिरित्यादौ कृत्स्वरादि बाधनार्थं वा । तेन 'यच्चोपपदं कृति नञ् तस्य च स्वरो बलीयान् भवति' 'सहनिर्दिष्टस्य च नञ्स्वरो बलीयान् भवती' ति न वक्तव्यं भवति ।"

इस पर अन्नंभट्ट अपनी उद्योतनम् नामक व्याख्या में लिखते हैं (सन्दर्भ ५, पृष्ठ १६७) - "अस्मिन् वार्त्तिके नञ्ग्रहणेनैव सिद्धे वार्त्तिकद्वयं न कर्त्तव्यमित्याह - तेनेति ।"

अर्थात् कैयट और अन्नंभट्ट के मत में कात्यायन के पूर्वोक्त वार्त्तिक १५-१६ व्यर्थ हैं । हमारे मत में ये वार्त्तिक व्यर्थ नहीं हैं । हमें उपर्युक्त समस्या का निम्नलिखित समाधान प्रतीत होता है -

'नञ्' का चादिगण में पाठ है । अतः पाणिनिसूत्र चादयोऽसत्त्वे (१।४।५७) से यह निपात है । निपातत्व से ही सिद्ध होने पर आचार्य (कात्यायन) द्वारा नञ् ग्रहण अन्य चादियों की निवृत्ति के लिए है ।


निपातों में चादिगण के बाद प्रादिगण का पाठ है । अतः अगर उपर्युक्त वार्त्तिक को कुछ इस तरह पढ़ा जाय - 'अव्यये नञ्कुप्रादीनाम्' तो कोई द्विविधा नहीं रहेगी और महाभाष्य, काशिका वगैरह में अव्यय में तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर के लिए जितने भी उदाहरण मिलते हैं, सभी की सिद्धि इससे हो जाती है । लगता है, भोजदेव ने इस समस्या का पूरा ध्यान रखा था, इसलिए अपने सूत्र में 'नञ्कुनिपाताः' के बदले 'नञ्कुप्रादयः' का पाठ किया है ।

उपर्युक्त विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भोजसूत्र ८।४।३-४ का शुद्ध पाठ इस प्रकार होगा - "द्वितीया-तृतीया-तुल्यार्थोपमान-कृत्य-नञ्-कु-प्रादयस्तत्पुरुषे ।" कात्यायन मुनि ने 'अव्यय' शब्द के प्रयोग से अतिव्याप्ति दोष दूर कर 'निपात' तक सीमित किया और 'निपात' में भी अतिव्याप्ति दोष देखकर भोज ने इसे 'प्रादिगण' तक सीमित कर दिया ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।२८ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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उत्यादीनामज्ञप्ते ॥८।३।२८॥ ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तीनाम् ॥८।३।३०॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “ऊत्यादीनामज्ञप्ते ।“
यह सूत्र अष्टाध्यायी के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित है -
ऊति-यूति-जूति-साति-हेति-कीर्तयश्च ॥३।३।९७॥

ऊत्यादि अष्टाध्यायी और स॰कं॰ दोनों में क्तिन् प्रत्ययान्त निपातित किये गये हैं । स॰कं॰ के दूसरे अध्याय में इस सूत्र का पाठ इस प्रकार है -
ऊति-यूति-जूति-साति[4]-हेति-ज्ञप्ति-कीर्तयश्च ॥२।४।१२४॥

परन्तु अष्टाध्यायी में "मन्त्रे वृषेष-पच-मन-विद-भू-वी-रा उदात्तः" (३।३।९६) से उदात्त की अनुवृत्ति आने से ऊत्यादि अन्तोदात्त निपातित हैं अन्यथा “ञ्नित्यादिर्नित्यम्” (पा॰ ६।१।१९७) से ये शब्द आद्युदात्त होते । भोजदेव ने स्वर प्रकरण का अनुशासन आठवें अध्याय में किया है । इसलिए ऊत्यादि का पाठ आठवें अध्याय में भी करना पड़ा । परन्तु, ऊत्यादि में स॰कं॰ सूत्र में 'ज्ञप्ति' शब्द को भी पढ़ा गया है । यह शब्द भी अन्तोदात्त न हो जाय, इसलिए इसका पर्युदास करना भी जरूरी है । ऊत्यादि शब्दों का पाठ दूसरे अध्याय में कर दिये जाने के कारण आठवें अध्याय में सभी शब्दों का पाठ करना लाघव के ख्याल से उचित नहीं है । अतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्ध पाठ इस प्रकार होगा -
ऊत्यादीनामज्ञप्तेः ॥८।३।२८॥

यहाँ पर प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर डॉ॰ कंसारा ने ऊत्यादि शब्दों का पूरा पाठ क्यों किया ? शायद वे स॰कं॰ के आठवें अध्याय पर आधारित वैदिक व्याकरण को एक स्वतन्त्र कृति के रूप में देखना चाहते थे जैसा कि उनकी प्रस्तावना से आभास मिलता है (सन्दर्भ १, प्रस्तावना का अन्तिम पृष्ठ) -
"आशा छे के अमारा आ प्रयासथी पाणिनीय वैदिकी प्रक्रिया अने स्वरप्रक्रियाना अभ्यासनी आज सुधी थती आवेली उपेक्षानो हवे अन्त आवशे अने वैदिक व्याकरणना गुजराती भाषी साचा जिज्ञासुओ माटे आ ग्रंथना परिशिष्ट १ मां आपेलां मात्र आठसो ओगणत्रीस सूत्रो कण्ठस्थ करीने तेमने सांगोपांग समजी लईने वैदिक व्याकरणना पारंगत थवानो सहेलो उपाय सुलभ बनशे ।"

अगर 'ऊत्यादीनामज्ञप्तेः' ऐसा पाठ किया जाय तो मात्र ८२९ सूत्रों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि ऊत्यादि में किन-किन शब्दों का पाठ है, यह जानने के लिए दूसरे अध्याय का सहारा लेना पड़ेगा । परन्तु इतने से ही अन्य अध्यायों से छुटकारा नहीं मिल सकता । मद्रास संस्करण के भ्रष्ट सूत्र "संबुध्यादिषु गुणादयः प्राग्लिटः नित्यमुरुत्" (८।२।९२) को शुद्ध कर उन्होंने निम्नलिखित पाठ दिये हैं -
सम्बुद्ध्यादिषु गुणादयो ह्रस्वस्य प्राग्लिटः ॥८।२।९४॥; नित्यमुर्ऋत् ॥८।२।९५॥

'सम्बुद्ध्यादि', 'गुणादि' और 'प्राग्लिटः' - ये शब्द अन्य अनेक सूत्रों की ओर ईशारा करते हैं और वे हैं सप्तम अध्याय के सूत्र "सम्बुद्धौ च" (७।२।४१) से लेकर "ऋतो ङिसुटोर्गुणः" (७।२।६१) तक, क्योंकि इसके बाद का सूत्र है - "संयोगादेर्लिटि" (७।२।६२) । भोजसूत्र ८।२।९२ अष्टाध्यायी के सूत्र "जसि च" (७।३।१०९) पर कात्यायन मुनि के निम्नलिखित वार्त्तिक पर आधारित है -
"जसादिषु च्छन्दसि वा वचनं प्राङ् णौ चङ्युपधायाः ॥१॥"

भोजसूत्र ८।२।९२ में 'वा' की अनुवृत्ति सूत्र 'अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा' (८।२।८८) से आती है ।

अब हम भोजसूत्र (८।३।३३) की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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मातृदघ्न द्वयसानाम् ॥८।३।३३॥ मात्रदघ्नज्द्वयसचाम् ॥८।३।३५॥
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गुजराती संस्करण में निम्नलिखित वृत्ति पायी जाती है –
"(स्वरविषये) मात्रच्, दघ्नच्, द्वयसच् इत्येतेषां प्रत्ययान्तानां शब्दानामन्त उदात्तो भवति ।"

अगर स॰कं॰ में मात्रच्, दघ्नच् एवं द्वयसच् - इन तीन चित् प्रत्ययों का पाठ होता तो आठवें अध्याय में इस पाठ की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि "चितः" (८।३।२९, गु॰कं॰ ८।३।३१) से ही अन्तोदात्तत्व सिद्ध हो जाता । अगर हम पाणिनिसूत्र ४।१।१५ की तुलना स॰कं॰ के सङ्गत सूत्रों से करते हैं तो मामला बिलकुल साफ हो जाता है ।


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पाणिनिसूत्र स॰कं॰ सूत्र
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टिड्-ढाणञ-द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्- टिड्-ढाणञ्-ठक्-ठञ्-नञ्-स्नञ्-कञ्-
तयप्-ठक्-ठञ्-कञ्-क्वरप्- क्वरप्-ख्युनः ॥३।४।३१॥
ख्युनाम ॥४।१।१५॥ मानान्मात्रट् ॥५।२।५९॥
ऊर्ध्वं दघ्नट् द्वयसट् च ॥५।२।६२॥
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पाणिनि ने टित् आदि प्रत्ययान्त अदन्त अनुपसर्जन प्रातिपादिकों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय का विधान किया है । चूँकि द्वयसच्, दघ्नच् एवं मात्रच् - ये चित् प्रत्यय हैं, मगर इन प्रत्ययों के बाद भी स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय इष्ट हैं, इसलिए इन तीनों का टित् आदि प्रत्ययों में पाठ किया गया है । स॰कं॰ में यह बात नहीं है । भोज ने मात्रट्, दघ्नट् एवं द्वयसट् - अर्थात् टित् प्रत्यय का विधान किया है । टित् होने से सूत्र ३।४।३१ में इन्हें पढ़ने की जरूरत नहीं, टित् होने के कारण ऐसे ही ङीप् प्रत्यय हो जायगा । परन्तु स्वरसिद्धि नहीं होगी, क्योंकि भोजसूत्र "प्रत्ययस्यादिः" (८।३।१३) से मात्रट्, दघ्नट् एवं द्वयसट् आद्युदात्त होंगे, जबकि इष्ट है इनका अन्तोदात्त होना । अतः स्वर की सिद्धि के लिए अलग से स्वरविधायक सूत्र की जरूरत है । मद्रास संस्करण के स॰कं॰ सूत्र से स्पष्ट है कि भोज ने इस सूत्र में प्रत्ययों को अनुबन्ध रहित पढ़ा है । यहाँ अनुबन्धसहित पढ़ने की जरूरत भी नहीं है । पाण्डुलिपि एवं मद्रास संस्करण में थोड़ी-सी अशुद्धि है जहाँ 'मात्र' के बदले 'मातृ' पाठ मिलता है । उपर्युक्त विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस भोजसूत्र का शुद्ध पाठ निम्नलिखित होगा –
मात्र-दघ्न-द्वयसानाम् ॥८।३।३३॥

अब हम स॰कं॰ के ऐसे चार सूत्रों पर विचार करते हैं जिनका पाठ पाण्डुलिपि में सही है, परन्तु मद्रास संस्करण और गुजराती संस्करण के सम्पादकों ने महाभाष्य और काशिका में की गई चर्चाओं का बिना कुछ ख्याल किये अष्टाध्यायी का सूत्र थोप दिया । भोज ने स॰कं॰ की सूत्ररचना के समय पूर्वाचार्यों के सभी सुझावों का ख्याल रखा । एक-एक करके इन सूत्रों पर विचार करें ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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चितः ॥८।३।२९॥ चितः ॥८।३।३१॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “चित्वतः ।“
यह भोजसूत्र अष्टाध्यायी के सूत्र "चितः" (६।१।१६३) पर आधारित है जिस पर कात्यायन मुनि का निम्नलिखित वार्त्तिक प्राप्त होता है -
चितः सप्रकृतेर्बह्वकजर्थम् ॥१॥
काशिकाकार अपनी वृत्ति में लिखते हैं (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २३१) -

"चिति प्रत्यये प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्यान्त उदात्त इष्यते । बहुपटवः उच्चकैः ॥" अर्थात् चित् प्रत्यय में प्रकृति और प्रत्यय समुदाय का अन्त उदात्त इष्ट है (केवल प्रत्यय का नहीं) । अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः (पा॰ ५।३।७१) से 'उच्चकैः' में अकच् चित् प्रत्यय होता है जो 'उच्चैः' की टि 'ऐः' के पहले यानी 'उच्च्+अक+ऐः' इस प्रकार आता है । विभाषा सुपो बहुच् परस्तात्तु (पा॰ ५।३।६८) से बहुच् चित् प्रत्यय पूर्व में लगकर 'बहुपटवः' शब्द सिद्ध होता है । इसमें प्रकृति प्रत्यय-समुदाय अन्तोदात्त हो जाता है ।
भाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने उपर्युक्त वार्त्तिक का खण्डन किया है । अपने भाष्य में वे लिखते हैं –

"चितः सप्रकृतेरिति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् ? बह्वकजर्थम् । बह्वर्थमकजर्थं च बह्वर्थं तावत् - बहुभुक्तम् । बहुकृतम् । अकजर्थम् - सर्वकैः । विश्वकैः । उच्चकैः । नीचकैः ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् । मतुब्लोपोऽत्र द्रष्टव्यः । तद्यथा । पुष्पका एषां पुष्पकाः । कालका एषां कालकाः । अथवाऽकारो मत्वर्थीयः । तद्यथा - तुन्दः घाट इति । पूर्वसूत्रनिर्देशश्च । चित्वान् चित इति ॥" भाष्यकार के मतानुसार 'चितः' इसमें मतुप् का लोप समझना चाहिए - चित् अस्य अस्ति इति चित्वान् [5] समुदायः, तस्य=चित्वतः । मतुप् का लोप होने से - चित् अस्य अस्ति इति चित् समुदायः, तस्य=चितः । अर्थात् चितः=चित्वतः ।

अतः भाष्यकार के मत में 'चितः' सूत्र का अर्थ होगा - "चित् है जिस समुदित शब्द में उस शब्द को अन्तोदात्त होता है ।" भोज ने मतुप् लोप सम्बन्धी आवश्यक माथापच्ची से बचने के लिए स्पष्ट रूप से मतुप् सहित चित् का पाठ किया है । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।

अगर भाष्यकार के दूसरे समाधान के अनुसारः 'चितः' को मत्वर्थीय अकार प्रत्ययान्त [अर्श आदिभ्योऽच्' (पा॰ ५।२।१२७) से अच्प्रत्ययान्त] माना जाय तो षष्ठी के अर्थ में प्रथमा का प्रयोग स्वीकार करना पड़ेगा जैसा कि भाष्यकार ने कहा है- पूर्वसूत्रनिर्देशश्च अर्थात् पाणिनि से पूर्व व्याकरणों में कार्यों का प्रथमान्त निर्देश होता था वैसे ही यहाँ समझना चाहिए । परन्तु भोज ने एकरूपता (uniformity) के ख्याल से भाष्यकार के पहले समाधान का ही आश्रयण कर 'चित्वतः' ऐसा सूत्र बनाया है ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।३०-३१ पर विचार करते हैं ।


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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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तद्धितस्य ॥८।३।३०॥ तद्धितस्य ॥८।३।३२॥ तद्धितस्य कितः ।
कितः ॥८।३।३१॥ कितः ॥८।३।३३॥
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अष्टाध्यायी के अद्यतन सूत्र 'तद्धितस्य' (६।१।१६५) एवं 'कितः' (६।१।१६६) का मूल पाठ 'तद्धितस्य कितः' ही था, अन्यथा भाष्यकार योगविभाग की बात ही नहीं उठाते और यह योगविभाग केवल एक प्रत्यय 'च्फञ्' की स्वरसिद्धि के लिए करना पड़ा । 'गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ्' (पा॰ ४।१।९८) में च्फञ् प्रत्यय का विधान है । च्फञ् के चित् एवं ञित् दोनो होने से समस्या खड़ी होती है कि 'चितः' (पा॰ ६।१।१६३) से अन्तोदात्त हो या 'ञ्नित्यादिर्नित्यम्' (पा॰ ६।१।१९७) से आद्युदात्त । 'विप्रतिषेधे पर कार्यम्' (पा॰ १।४।२) से आद्युदात्त होगा, परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः स्वरसिद्धि के लिए भाष्यकार ने योगविभाग कर 'तद्धितस्य कितः' को दो सूत्रों में तोड़ दिया । देखे पाणिनि सूत्र ४।१।९८ पर भाष्य -
"एवं तर्हि स्वरे योगविभागः करिष्यते । इदमस्ति । चितः (६।१।१६३) । चितोऽन्त उदात्तो भवति । ततस्तद्धितस्य । तद्धितस्य च चितोऽन्त उदात्तो भवतीति । किमर्थमिदम् ? परस्वाञ्ञ्नितीत्याद्युदात्तत्वं प्राप्नोति तद्‌बाधनार्थम् । ततः कितः । कितस्तद्धितस्यान्त उदात्तो भवति ।"

इसके आगे वे अन्यथासिद्धि के लिए च्फञ् को छोड़ अन्य प्रत्यय की चर्चा करते हुए लिखते हैं -
"इह केचिद् द्व्येकयोः फ्यञं विदधति बहुषु च फकं केचिच्च्फञन्ताञ्ञम् ।.................. सति ही तस्मिन्द्व्येकयोपरि फ्यञि सति बहुषु च फकि न दोषो भवति । तत्र कौञ्जायनानामपत्यं माणवक इति विगृह्य कुञ्जशब्दाद् द्व्येकयोरुत्पत्तिर्भविष्यति । कौञ्जायन्यः कौञ्जायन्यौ । कौञ्जायन्यस्यापत्यं बहवो माणवका इति विगृह्य कुञ्जशब्दाद् बहुषूत्पत्तिर्भविष्यति । कौञ्जायना इति ।"

भाष्यकार के अनुसार अगर गोत्र से अपत्य विषय में च्फञ् और ञ्य के बदले एकवचन और द्विवचन में फ्यञ् एवं (स्त्रीलिङ्ग में और) बहुवचन में फक् प्रत्यय का विधान किया जाय तो दोष नहीं होता । उपर्युक्त विषय में 'कुञ्ज' शब्द से 'कौञ्जायन्यः', 'कौञ्जायनाः', 'कौञ्जायनी स्त्री' - इन शब्दों की सिद्धि के लिए अष्टाध्यायी एवं स॰कं॰ के सूत्र तालिका १ में दिये गये हैं । इस तालिका से स्पष्ट है कि च्फञ्, ञ्य के बदले फ्यञ्, फक् का विधान करने से दोष नहीं होता ।

स्पष्ट है कि जब भोज ने च्फञ् प्रत्यय का विधान ही नहीं किया है, तो 'तद्धितस्य कितः' - इस सूत्र के योगविभाग का सवाल ही पैदा नहीं होता । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।
अब हम भोजसूत्र ८।३।२१८ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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आहो उताहो चानन्तरं वा आहो उताहो चानन्तरम् ॥८।३।२२१॥
॥८।३।२१८॥
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डॉ॰ चिन्तामणि फुटनोट संख्या ३ में लिखते हैं -
"The original reads सान्तरं and that as a separate sutra."

अर्थात् पाण्डुलिपि का पाठ इस प्रकार होना चाहिए – “आहो उताहो च । सान्तरं वा ।“

परन्तु पाण्डुलिपि A में 'आहो' के स्थान पर 'आतो' पाठ है जो स्पष्टतः भ्रष्ट है । डॉ॰ चिन्तामणि ने मूल ताडपत्र (palm leaf) पाण्डुलिपि की एक और प्रतिलिपि के बारे में लिखा है, जो उन्हें उनके मित्र श्री रामकृष्ण कवि से मिली थी (सन्दर्भ २, PREFACE, p. ix, अन्तिम पाराग्राफ) । शायद उसमें 'आहो' पाठ ही हो । डॉ॰ चिन्तामणि ने इसके बारे में कोई टिप्पणी नहीं दी है ।

उपर्युक्त भोजसूत्र पाणिनिसूत्र "आहो उताहो चानन्तरम्" (८।१।४९) एवं "शेषे विभाषा" (८।१।५०) पर आधारित हैं । पाणिनिसूत्र "जात्वपूर्वम्" (८।१।४७) पर भाष्यकार की निम्नलिखित उक्ति पर गौर करें -
"यत्तर्ह्याहो उताहो चानन्तरम् [४९] इत्यनन्तर ग्रहणं करोति । एतस्याप्यस्ति वचने प्रयोजनम् । किम् ? शेषप्रक्लृप्त्यर्थमेतत्स्यात् । शेषे विभाषा [५०] कश्च शेषः ? सान्तरं शेष इति ॥"

भोज ने पाणिनिसूत्र "शेषे विभाषा" (८।१।५०) के समानान्तर (parallel) सूत्र "शेषे वा" के बदले शेष क्या बचता है, यह भाष्यकार के उपर्युक्त वचन से उसका सीधा प्रयोग कर "सान्तरं वा" का विधान किया है । सान्तर वचन अगले सूत्र में होने से "आहो उताहो च" में 'अनन्तर' कहने की जरूरत नहीं है । अगर 'सान्तरं वा' इस पाठ को छोड़ दिया जाय तो पाणिनिसूत्र 'शेषे विभाषा' का सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में रहेगा ही नहीं । अतः पाण्डुलिपि का पाठ ठीक है ।

सन्दर्भ –
1. "सरस्वतीकण्ठाभरण-वैदिकव्याकरणम्" - सम्पादक-अनुवादक-विवरणकार डॉ॰ नारायण म॰ कंसारा, राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान एवं मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, १९९२ ई॰ ।
2. "सरस्वतीकण्ठाभरणम्" - सम्पादक ति॰ रा॰ चिन्तामणि, मद्रपुरीय विश्वविद्यालय, मद्रास, १९३७ ई॰ ।
3. "काशिका (न्यास-पदमञ्जरी-भावबोधिनी-सहिता)" - सम्पादक डॉ॰ जयशङ्कर लाल त्रिपाठी, तारा बुक एजेंसी, वाराणसी, सप्तमो भागः [६।१-२ अध्यायात्मकः], १९९० ई॰ ।
4. "व्याकरणमहाभाष्यम् (प्रदीपोद्योतविमर्शैः समलङ्कृतम्)", खण्ड ६ - सम्पादक पं॰ वेदव्रत वर्णी, गुरुकुल झज्जर, रोहतक, १९६४ ई॰ ।
5. "महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि", खण्ड IX - सम्पादक एम॰ एस॰ नरसिंहाचार्य, Institut Francais d' Indologie, पांडिचेरी १९८२ ई॰ ।



तालिका १

गोत्रापत्य अर्थ में 'कौञ्जायन्यः' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए
अष्टाध्यायी एवं स॰कं॰ के सूत्र **
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शब्द अष्टाध्यायी सूत्र स॰कं॰ सूत्र
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कौञ्जायन्यः गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् कुञ्ज-ब्रघ्न-..... विशाभ्यः
(४।१।९८), तस्यापत्यम् फ्यञ् (४।१।६९), पौत्रादौ,
तस्यापत्यम्

कौञ्जायन्यौ आयनेयीनीयियः फ-ढ- आयनेयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-
ख-छ-घां प्रत्ययादीनाम् घां तद्धितादीनाम् (६।४।२)
(७।१।२)
व्रात-च्फञोरस्त्रियाम् -----------
(५।३।११३), ञ्यः

यस्येति च (६।४।१४८), यस्यायुसि (६।३।१५५), लोपः
लोपः

सतिशिष्टस्वरबलीयस्त्वं स्वरः सतिशिष्टो
च (६।१।१५८, वा॰ ९ बलीयानविकरणस्य (८।३।१)

ञ्नित्यादिर्नित्यम् ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति
(६।१।१९७), उदात्तः (८।३।७६), उदात्तः

कौञ्जायनाः गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् स्त्री-बहुषु फक् (४।१।७०),
(४।१।९८), तस्यापत्यम् पौत्रादौ, तस्यापत्यम्

व्रात-च्फञोरस्त्रियाम् -----------
(५।३।११३)

ञ्यादयस्तद्राजाः (५।३।११९) -----------

तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम् -----------
(२।४।६२) लुक्

तद्धितस्य (६।१।१६४), तद्धितस्य कितः (८।३।३०),
चितः, अन्त उदात्तः अन्तः, उदात्तः

कौञ्जायनी गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् स्त्री-बहुषु फक् (४।१।७०),
(स्त्री) (४।१।९८) पौत्रादौ, तस्यापत्यम्

जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् अस्त्रीविषयादयोपधाज्जातेः
(४।१।६३), ङीष् (४।१।६३), ङीष्

सतिशिष्टस्वरबलीयस्त्वं स्वरः सतिशिष्टो
च (६।१।५८) बलीयानविकरणस्य (८।३।१)

आद्युदात्तश्च (३।१।३) प्रत्ययस्यादिः (८।३।१३) उदात्तः
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तालिका २
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
(पा॰पा॰स॰ = पाण्डुलिपि का पाठ सही है)

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क्रम म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्ध पाठ
सं॰
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१. तोदेयकौ च तौदादिको न तौदेय-कौचवार्य-
॥८।३।२४॥ ॥८।३।१८॥ दशैकादशिकाः ।

२. वार्यदशैकादशिकाः गर्ह्ये कुसीदिकदशैका-
॥८।३।२५॥ दशिकौ ॥८।३।२७॥


३. उत्यादीनामज्ञप्ते ऊति-यूति-जूति- ऊत्यादीनामज्ञप्तेः ।
॥८।३।२८॥ साति-हेति-कीर्तीनाम्
॥८।३।३०॥

४. चितः ॥८।३।२९॥ चितः ॥८।३।३१॥ चित्वतः । (पा॰पा॰स॰)


५. तद्धितस्य ॥८।३।३०॥ तद्धितस्य ॥८।३।३२॥ तद्धितस्य कितः ।
६. कितः ॥८।३।३१॥ कितः ॥८।३।३३॥ (पा॰पा॰स॰)


७. मातृदघ्नद्वयसानाम् मात्रदघ्नज्द्वयसचाम् मात्र-दघ्न-द्वयसानाम् ।
॥८।३।३३॥ ॥८।३।३५॥

८. आहो उताहो चानन्तरं आहो उताहो चानन्तरम् आहो उताहो च ।
वा ॥८।३।१८॥ ॥८।३।२२१॥ सान्तरं वा ।
(पा॰पा॰स॰)



९. द्वितीया-तृतीया-तुल्या- तत्पुरुषे द्वितीया- द्वितीया-तृतीया-
र्थोपमान-कृत्या नञ् तृतीया-तुल्यार्थोपमान- तुल्यार्थोपमान-कृत्य-
॥८।४।३॥ कृत्याः ॥८।४।३॥ नञ्-कु-प्रादय-
स्तत्पुरुषे ।
१०. कुप्रादयस्तत्पुरुषे अव्यये नञ्कुचादयः
॥८।४।४॥ ॥८।४।४॥


११. अभूवाक्चिद्दिधिषु न भूवाक्चिद्दिधिषु अभूवाक्चिद्दिधिषु
॥८।४।२०॥ ॥८।३।२२॥ पत्यावैश्वर्ये
१२. पत्यावैश्वर्ये पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥ (पा॰पा॰स॰)
॥८।३।२१॥
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* इस लेख के प्रथम दो किश्तों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३ एवं मई १९९५ ।

**नोटः -
1. सूत्र संख्या के बाद अनुवृत्तियाँ लिखी गयी हैं ।
2. केवल मुख्य-मुख्य सूत्र ही दिये गये हैं ।

टिप्पणी -
1. यह सूत्रानुक्रमणिका ५९ पृष्ठों में बनकर तैयार है । इसकी तैयारी के समय महाभाष्य और काशिका के अलावा हमने जर्मन विद्वान् Dr. Bruno Liebich द्वारा प्रकाशित Konkordanz Panini-Chandra और डॉ॰ क्षितीशचन्द्र चटर्जी द्वारा सम्पादित चान्द्रव्याकरण का भी उपयोग किया है ।
2. इस प्रतिलिपि के अन्तिम पृष्ठ १२१ पर फुटनोट में निम्नलिखित सूचना दी गयी है -
Transcribed in 1920-21 from a Ms. of Mr. K. C. Valiaraja of Kattakal, Malabar.
3. अगर 'कु' को स्वरादिगण में माना जाय तो इसका पाठ जरूरी होगा, क्योंकि तब यह निपात नहीं होगा, मगर 'कु' का तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर इष्ट है ।
4. मद्रास संस्करण में 'साति' के बदले 'सति' छपा है जो छपाई की अशुद्धि है ।
5. 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्' (पा॰ ५।२।९४) से मतुप् प्रत्यय, 'झयः' (पा॰ ८।२।१०) से मतुप् के मकार का वकार होकर 'चित्वान्' । भाष्यकार के मतानुसार मतुप् का लोप होकर सिर्फ 'चित्' ।

(वेदवाणी, जुलाई १९९६, पृ॰ ९-२१, में प्रकाशित)