[यों तो यह लेख खासकर उन लोगों के लिए लिखा जा रहा है जिन्हें औपचारिक रूप से किसी पाणिनीय व्याकरण के विशेषज्ञ आचार्य की देखरेख में अष्टाध्यायी के अध्ययन का अवसर नहीं मिला और जो गम्भीरतापूर्वक स्वाध्याय (self-study) से इसका अध्ययन करना चाहते हैं, परन्तु अन्य छात्रों के लिए भी यह लेख उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी आशा है ।
ऐसे तो पाणिनीय व्याकरण का अष्टाध्यायी क्रम से मैंने अध्ययन किया है, किन्तु अष्टाध्यायी मुझे कण्ठस्थ नहीं । कई बार मैंने कण्ठस्थ करने का प्रयत्न किया परन्तु अन्य कार्यों में व्यस्तता के कारण सफल नहीं हो पाया । फिर भी कुछ अध्याय तो कण्ठस्थ हैं । इस प्रक्रिया में जो भी कठिनाई मुझे झेलनी पड़ी है और जो कुछ मुझे अनुभव प्राप्त हुआ है, वह मैं उनलोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहूँगा जो पाणिनीय व्याकरण में रुचि रखते हैं और अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करना चाहते हैं ।]
1.0 पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक जी ने "मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य" में लिखा है - "व्याकरणाध्ययन से पूर्व अष्टाध्यायी के कण्ठस्थीकरण की परम्परा विद्यमान रही है । आज से ७०-८० वर्ष पूर्व तक सिद्धान्त कौमुदी के क्रम से पाणिनीय व्याकरण के पठन-पाठन करने वाले बच्चों को भी अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कराई जाती थी । अपने समय के काशी के सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण गुरुवर श्री पं॰ देवनारायण तिवारी जी ने सन् १९२७ में कहा था कि 'आजकल के छात्रों को व्याकरण इसलिए नहीं आता कि उन्हें अष्टाध्यायी कण्ठस्थ नहीं होती है ।' इसी प्रसंग में उन्होंने यह भी कहा था कि 'मैं प्रतिदिन नैत्यिक कर्म के पश्चात् अष्टाध्यायी का पाठ करता हूँ ।' " [सन्दर्भ १, पृष्ठ ७, पैरा २] अष्टाध्यायी के कण्ठस्थीकरण की परम्परा के बारे में चीनी यात्री इत्सिङ्ग ने भी भारत के अपने यात्रा-विवरण (६८१-६९१) में उल्लेख किया है, उद्धरण के लिए देखें - पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी लिखित "अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति”, प्रथम भाग, भूमिका, पृ॰३२, अन्तिम पैरा ।
1.1 पाणिनीय व्याकरण के ठीक-ठीक बोध के लिए अष्टाध्यायी के कम-से-कम अध्याय १-३, ७-८ तथा ६ का डेढ़ पाद (प्रथम पाद आधा, चौथा सम्पूर्ण) कण्ठस्थ करना आवश्यक है [सन्दर्भ २, पृष्ठ १५, पैरा २] ।
1.2 सुश्री मेधा देवी पं॰ ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु के बारे में लिखती हैं - "मुझ सर्वथा लघु विद्यार्थिनी को कितना उत्साहित कर और प्रेरणाएँ देकर गुरुजी ने आगे बढ़ाया, यह मेरे लिए अविस्मरणीय है । अष्टाध्यायी के सूत्र ५० प्रातः और ५० सायं याद कराके ४॥ महीने में पूरी अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करा दी ।" [सन्दर्भ ३, पृष्ठ ३०४]
1.3 सन् १९५२ में पूज्यपाद गुरुजी के प्रथम दर्शन करके उनसे अष्टाध्यायी अध्ययन की अनुमति पाने के बाद की बात श्री व्रतपाल आर्य अपने संस्मरण में लिखते हैं - "अष्टाध्यायी का अध्ययन चालू हो गया । अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कराने की सरलतम विधि बतायी गयी । प्रथम सूत्र को पाँच बार उच्चारण करना, दूसरा सूत्र पाँच बार उच्चारण करना, फिर प्रथम और दूसरा सूत्र मिलाकर क्रमशः पाँच बार उच्चारण करना । पुनः तीसरा सूत्र पाँच बार उच्चारण करके पुनः एक, दो, तीन सूत्रों को क्रमशः पाँच बार उच्चारण करना । चौथा सूत्र पाँच बार उच्चारण करना । फिर एक से ४ सूत्र पर्यन्त पाँच बार उच्चारण करना । पाँचवाँ सूत्र पाँच बार उच्चारण करना । पुनः एक से पाँच सूत्रों का क्रमशः पाँच बार उच्चारण करना । बस पाँचो सूत्र छात्र को सरलता से कण्ठस्थ हो जाते हैं । मैंने अष्टाध्यायी के सूत्र इसी विधि से कण्ठस्थ किये थे । यह सरलतम विधि अन्य आर्ष गुरुकुल में नहीं बतायी गयी थी । इस कारण दो वर्षों में भी अष्टाध्यायी कण्ठस्थ नहीं हो पायी थी ।" [सन्दर्भ ३, पृष्ठ ३२१- ३२२]
1.4 वैद्य भीमसेन शास्त्री पूज्य जिज्ञासु जी सम्बन्धी अपने संस्मरण में लिखते हैं - "[६] हमारे विद्यालय के विद्यार्थियों ने 'आसु-यु-वपि-रपि-लपि-त्रपि-चमश्च' (३।१।१२६) सूत्र को इस प्रकार घोट (रट) रखा था - 'आसु-युव-पिर-पिल-पित्र-पिचमश्च' । जब अष्टाध्यायी का पाठ गुरुवर्य ने सुना तो वे उन्मुक्त हँसे और कहने लगे कि इस पाठ ने तो 'दश रामशराः' के स्थान पर 'दशरा मशराः' कहने वाले पण्डित जी की याद दिला दी । और विद्यार्थियों को कहने लगे कि मुझे तो तुम्हारे जैसे अष्टाध्यायी के भक्तों की जरूरत है, चाहे तुम्हें पदच्छेद नहीं आया, तुम लोग रुके नहीं, सूत्र को किसी प्रकार रट ही लिया, तो यह भी कम महत्त्व की बात नहीं ।" [सन्दर्भ ३, पृष्ठ २७२, पैरा ३]
2.0 अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ के कई संस्करण उपलब्ध हैं [सन्दर्भ ४-७] । इन विभिन्न संस्करणों का निम्नलिखित प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है –
(क) संहिता पाठ या विभिन्न पदों का योजक-चिह्न से पृथक्कृत पाठ के अनुसार
किसी संस्करण में सूत्रों का केवल संहिता पाठ है (सन्दर्भ ४-६), तो किसी में विभिन्न पदों का योजक-चिह्न से पृथक्कृत पाठ (सन्दर्भ ७) ।
(ख) अनुवृत्ति उल्लेख के अनुसार
किसी संस्करण में सूत्रस्थ पदों की अनुवृत्ति दायीं ओर के हाशिए में उस संख्या से प्रदर्शित प्राप्त होता है जिस सूत्र तक अनुवृत्ति जाती है और अनुवृत्तिस्थ पद अधिक काला (bold face) में मुद्रित है (सन्दर्भ ७) अथवा किसी सूत्र में कौन-कौन पद अनुवृत्ति रूप में आते हैं और इस सूत्र के कौन-कौन पद अनुवृत्ति के रूप में आगे जाते हैं उनका दोनों ओर के हाशिए में साक्षात् उल्लेख (सन्दर्भ ५) ।
(ग) सूत्रपाठ की प्राचीनता के आधार पर
किसी संस्करण में सूत्रपाठ संशोधित करके महाभाष्यानुसारी बना दिया गया है (सन्दर्भ ४-५), जबकि किसी में काशिकानुसारी ज्यों का त्यों रखा गया है (सन्दर्भ ६-७) ।
2.1 अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ कण्ठस्थ करने के पूर्व अपने लिए सुविधाजनक संस्करण का चयन भी अत्यन्त आवश्यक है । सूत्रों को ठीक-ठीक उच्चारण सहित याद करने के लिए यह आवश्यक है कि सूत्रपाठ का ऐसा संस्करण चुना जाय जिसमें किसी सूत्र के पदों को योजक चिह्न (हाइफन) से पृथक्-पृथक् किया रहे, विशेष रूप से ऐसे सूत्रों में जहाँ पदों के पृथक्करण में भ्रम की पर्याप्त सम्भावना हो । उदाहरण - सूत्र 'तनादिभ्यस्तथासोः' (२.४.७९) को यदि 'तनादिभ्यस्त-थासोः' लिखा जाय तो 'तथा' जैसे पद का भ्रम नहीं रहेगा । इसी प्रसंग में पं॰ भीमसेन शास्त्री का संस्मरण भी सटीक बैठता है (देखें अनुच्छेद 1.4) ।
यद्यपि पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन के लिए पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की "अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृत्ति" ही मेरी दृष्टि में अभी तक सर्वोत्तम सिद्ध हुई है, और जिन्होंने इसी पर आधारित अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ भी तैयार किया है, तथापि मुझ जैसे व्यक्ति के लिए पं॰ सत्यनारायण शास्त्री खण्डूड़ी द्वारा सम्पादित अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ ही कण्ठस्थ करने हेतु सर्वोत्तम प्रतीत हुआ । सूत्रपाठ कण्ठस्थ करने के समय जो कुछ कठिनाइयाँ मुझे झेलनी पड़ीं और जो कुछ अनुभव प्राप्त हुए, वह सब स्वाध्यायी लोगों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । आगे उल्लिखित सभी सूत्र या सूत्र-संख्या इसी संस्करण से सम्बन्धित हैं ।
2.2 सूत्रपाठ कण्ठस्थ करने के पूर्व यदि सूत्रों के अर्थ स्पष्ट न हों, तो सूत्रों को कण्ठस्थ करने में अधिक समय लगेगा और कण्ठस्थ हो जाने के बाद स्मृतिपटल पर उन्हें अधिक समय तक बनाए रखना सम्भव नहीं होगा । अतः जिन सूत्रों को आप कण्ठस्थ करने जा रहे हैं, पहले उनका उचित उदाहरण सहित अर्थ अष्टाध्यायी की किसी टीका से अच्छी तरह समझ-बूझ लें । इसके लिए पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु जी की “अष्टाध्यायी (भाष्य) प्रथमावृति” का प्रयोग कर सकते हैं । यदि उदाहरण के साथ-साथ प्रत्युदाहरण (cross-examples) भी देख लें तो सूत्रार्थ और भी स्पष्ट होगा । इसके लिए काशिका देखनी चाहिए, जैसे- जयशंकर लाल त्रिपाठी द्वारा सम्पादित काशिका (न्यास-पदमञ्जरी सहित), जिसकी उन्होंने भावबोधिनी हिन्दी व्याख्या भी दी है (देखें - सन्दर्भ ८) ।
अष्टाध्यायी टीका का अध्ययन करते समय यदि सूत्रपाठ में कोई छपाई की अशुद्धि दिखे तो उसे उसी समय शुद्ध कर लें ।
3.0 अनुच्छेद 1.3 में अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करने की सरलतम विधि जो कुछ बताई गई है, वह एक सामान्य वक्तव्य है । विभिन्न सूत्रों की लम्बाई में बहुत अन्तर है । अतः आवश्यकतानुसार उपर्युक्त नियम में बहुत-कुछ परिवर्तन की गुंजाइश है । उदाहरणार्थ –
3.1 यदि कई लगातार सूत्र छोटे-छोटे एवं लयदार पाये गये तो मैंने कण्ठस्थ करने के लिए एक ही साँस में उन सभी सूत्रों को इकट्ठा दुहराता मानो वे एक ही सूत्र हों । उदाहरणस्वरूप –
(1) प्राद् वहः / परेर्मृषः / व्याङ्-परिभ्यो रमः // उपाच्च (१.३.८१-८४);
(2) खट्वा क्षेपे // सामि / कालाः / अत्यन्त संयोगे च (२.१.२६-२९);
(3) तत्र / क्षेपे / पात्रेसंमितादयश्च (२.१.४६-४८);
(4) हनो वध लिङि / लुङि च / आत्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् (२.४.४२-४४);
(5) प्रत्ययः / परश्च / आद्युदात्तश्च // अनुदात्तौ सुपप्पितौ (३.१.१-४);
(6) कृत्याः / तव्यत्-तव्यानीयरः / अचो यत् (३.१.९५-९७);
(7) वहाभ्रे लिहः / परिमाणे पचः / मित-नखे च // विध्वरुषोस्तुदः (३.२.३२-३५)
(8) करणे यजः / कर्मणि हनः / ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् // बहुलं छन्दसि (३.२.८५-८८)
(9) सु-कर्म-पाप-मन्त्र-पुण्येषु कृञः / सोमे सुञः (३.२.८९-९०)
(10) सृ स्थिरे / भावे / अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् (३.३.१७-१९)
(11) प्रे लिप्सायाम् / परौ यज्ञे / नौ वृ धान्ये (३.३.४६-४८)
(12) स्मे लोट् / अधीष्टे च / काल-समय वेलासु तुमुन् // लिङ् यदि (३.३.१६५-१६८)
(13) स्वे पुषः / अधिकरणे बन्धः / संज्ञायाम् (३.४.४०-४२)
(14) अन्तोऽवत्याः / ईवत्याः // चौ / समासस्य (६.१.२२०-२२३)
(15) अतो येयः / आतो ङितः / आने मुक् / ईदासः (७.२.८०-८३)
3.2 यदि कोई सूत्र बहुत लम्बा हुआ तो इस एक सूत्र को कई खंडों में बाँटकर प्रत्येक खंड को एक सूत्र के रूप में समझकर कण्ठस्थ किया । उदाहरणस्वरूप –
छन्दसि निष्टर्क्य-देवहूय // प्रणीयोन्नीयोच्छिष्य // मर्य-स्तर्या / ध्वर्य-खन्य-खान्य-देवयज्या // (आ)पृच्छ्य-प्रतिषीव्य-ब्रह्मवाद्य // भाव्य-स्ताव्योपचाय्य-पृडानि (३.१.१२३)
दिवा-विभा-निशा-प्रभा // भास्कारानन्तादि // बहु-नान्दी-किं // लिपि-लिबि-बलि-भक्ति-कर्तृ // चित्र-क्षेत्र-संख्या-जङ्घा-बाह्वर् // यत्तद्धनुररुःषु (३.२.२१)
संपृचानुरुध-आङ्यम-आङ्यस // परिसृ-संसृज-परिदेवि-संज्वर // परिक्षिप-परिरट-परिवद-परिदह // परिमुह / दुष-द्विष-द्रुह-दुह // युजाक्रीड-विविच-त्यज-रज // भजाति-चरापचरामुषाभ्याहनश्च (३.२.१४२)
ग्रसित-स्कभित-स्तभितोत्तभित // चत्त-विकस्ता / विशस्तृ-शंस्तृ-शास्तृ // तरुतृ-तरूतृ-वरुतृ-वरूतृ-वरूत्रीर् // उज्जवलिति-क्षरिति-क्षमिति-वमित्यमितीति च (७.२.३४)
दाधर्ति-दर्धर्ति-दर्धर्षि // बोभूतु / तेतिक्तेऽलर्ष्यापनीफणत् // संसनिष्यदत्-करिक्रत्-कनिक्रदत् // भरिभ्रद्-दविध्वतो-दविद्युतत् // तरित्रतः-सरीसृपतं-वरीवृजन् // मर्मृज्यागनीगन्तीति च (७.४.६५)
4.0 अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करने में प्रौढ़ लोगों के लिए सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि अन्य कार्यों की व्यस्तता के कारण लगातार समय दे पाना सम्भव नहीं हो पाता और जो कुछ सूत्र कुछ समय लगाकर रट लिये जाते हैं वे बीच में यदि समयाभाव के कारण सप्ताहों/ महीनों तक दुहराये नहीं गये तो वे स्मृतिपटल से निकल जाते हैं । मैंने कभी अनुच्छेद 1.1 में निर्दिष्ट अंश रट लिये थे परन्तु बाद में लम्बे समय तक मैं उन्हें दुहरा नहीं सका । अतः सब-कुछ मस्तिष्क से निकल गया । हाँ, यदि मैं दुबारा रटने का प्रयास करता हूँ तो रटने में पहले जितना समय नहीं लगता । फिर भी प्रयास यह रहता है कि कम-से-कम पहले तीन अध्याय, विशेष रूप से तृतीय अध्याय, सदा याद रहे । तृतीय अध्याय में कृत् प्रत्यय का विधान है जिसका तकनीकी हिन्दी (या किसी भी अन्य भारतीय भाषा) के लिए नये-नये शब्दों के निर्माण में बहुत महत्त्व है । वैज्ञानिक एवं तकनीकी हिन्दी में मुख्यतः कृदन्त और कुछ तद्धितान्त शब्दों का प्रयोग होता है, तिङन्त शब्दों का प्रयोग बिलकुल नहीं होता । इसलिए विशेष रूप से तृतीय अध्याय की बात की है ।
4.1 अब मैं कुछ ऐसे उपाय की चर्चा करना चाहता हूँ जिनकी सहायता से रटे हुए सूत्रों को अधिक-से-अधिक समय तक स्मृतिपटल पर कायम रखा जा सके और यदि भूल भी गये तो तुरन्त स्मरण में लाया जा सके ।
4.1.1 परम्परा के अनुसार किसी पाद विशेष के सूत्रों के क्रम को स्मृतिपटल पर अक्षुण्ण रखने के लिए प्रथम सूत्र से आरम्भ करके बाद में बीस-बीस सूत्रों के अन्तराल पर के सूत्र सूत्रपाठ के प्रत्येक पाद के अन्त में उल्लिखित पाये जाते हैं । परन्तु प्रौढ़ों के लिए यह अन्तराल बहुत अधिक है । मेरे अनुभव में दस-दस सूत्रों का अन्तराल भी अधिक है । मैं पाँच-पाँच सूत्रों के अन्तराल का प्रयोग करता हूँ । समयाभाव के कारण इन्हीं सूत्रों को बीच-बीच में दुहरा लिया करता हूँ । परम्परा के अनुसार किसी पाद के अन्तिम सूत्र का उल्लेख न कर अवशिष्ट सूत्रों की संख्या का उल्लेख किया जाता है । मुझे यह पसन्द नहीं । मैं अन्तिम सूत्र को ही याद रखता हूँ और उसकी क्रम-संख्या भी ।
4.1.2 कई बार ऐसा होता है कि किसी पाद के सभी या कई सूत्र याद तो होते हैं, किन्तु उनके क्रम याद नहीं रहते अर्थात् किसी विशेष सूत्र के बाद कौन-सा सूत्र आता है यह ध्यान में नहीं रहता । और कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि सम्पूर्ण पाद के सूत्रों को मन-ही-मन तेजी से दुहरा लेता तो लगता कि मुझे तो इस पाद के सभी सूत्र अच्छी तरह कण्ठस्थ हो गये हैं । परन्तु तुरन्त बाद पुस्तक से जाँच करने पर पाता कि कोई-कोई सूत्र दुहराते समय छूट गया । सभी सूत्र क्रमबद्ध रूप से याद रहें इसके लिए वही युक्ति लागायी जा सकती है जैसे छात्र जीवन में बच्चों को प्रकाश के अवयव रंगों के क्रमबद्ध नाम याद रखने के लिए “बैनीआहपीनाला” (VIBGYOR) जैसा परिवर्णी (acronym) शब्द स्मरण रखने के लिए सिखाया जाता है । लय का ध्यान रखते हुए सुविधानुसार किसी पूरे कॉलम के सभी सूत्रों के लिए या कुछ सूत्र-समूहों के लिए परिवर्णी बनाये जा सकते हैं । उदाहरणार्थ - पृष्ठ ४२ पर के बायें कॉलम के सभी सूत्रों [३.३.३१ "यज्ञे समि स्तुवः" से लेकर ३.३.४१ "निवास-चिति-शरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः"] के लिए परिवर्णी "य-प्रे-प्र-छ / उ-स-प-प / व्यु-ह-नि" का निर्माण किया । उसी तरह, पृष्ठ ४५ पर के दाहिने कॉलम के सभी सूत्रों [३.३.१३५ "नानद्यतनवत् क्रियाप्रबन्धसामीप्ययोः" से लेकर ३.३.१४७ "जातु-यदोर्लिङ्"] के लिए परिवर्णी "ना-भ-का-प / लि-भू-वो-ग / वि-किं-अ-किं / जा" का निर्माण किया । यहाँ किसी परिवर्णी के किसी अकारान्त अक्षर का उच्चारण अकार सहित किया जाना चाहिए । जैसे, "ना-भ-का-प" का उच्चारण "नाभ्काप्" जैसा नहीं किया जाना चाहिए । कुछ सूत्र-समूहों के लिए परिवर्णी के उदाहरण के लिए "आर्धधातुके" (२.४.३६) अधिकार के अन्तर्गत आये सभी सूत्रों [ २.४.३७ "अदो जग्धिर्ल्यप्-ति किति" से लेकर २.४.५७ "वा यौ" तक] को लिया जा सकता है – “अ-लु-घ / ब-लि-वे // ह-लु-आ // इ-णौ / स-इ-गा-वि-णौ // अ-ब्रु-च-वा-अ-वा” ।
4.1.3 मुझे और एक कठिनाई का सामना करना पड़ा । किसी पाद में सूत्रों की संख्या अधिक (लगभग डेढ़ सौ या इससे अधिक) होने पर किसी विशिष्ट पृष्ठ या कॉलम के सूत्र के बाद अगले पृष्ठ या कॉलम का पहला सूत्र कौन-सा है यह ध्यान में नहीं आता और मन-ही-मन रटे सूत्रों को दुहराते समय उस पाद विशिष्ट के सूत्र के साथ किसी अन्य पाद के सूत्र का मिश्रण हो जाया करता । अतः मैंने किसी पाद का कौन-सा सूत्र प्रत्येक कॉलम के आरम्भ में आता है, इसके लिए भी परिवर्णी बनाना आवश्यक समझा । उदाहरणार्थ - तृतीय अध्याय के प्रथम पाद के १५० सूत्र कुल बारह कॉलम (छह पृष्ठ) में आते हैं जिससे कुल बारह सूत्रों का परिवर्णी इस प्रकार बनता है - "प्र-भृ-नि-क / भी-लि-दि-लि / प्रो-भि-प्र-ज्व" । उसी तरह द्वितीय पाद के लिए - "क-पू-व-अ / ज-भू-सु-प्र / पू-वौ-स्पृ-भ्रा" एवं तृतीय पाद के लिए - "उ-प-य-स / वृ-आ-क-आ / अ-ना- य-वि / आ" परिवर्णी बनते हैं ।
उपर्युक्त अनुच्छेद 4.1.1 एवं 4.1.3 में बतायी हुई युक्तियों के प्रयोग से किसी पाद विशिष्ट के सूत्रों में किसी अन्य अध्याय या पाद के सूत्र के साथ मिश्रण होने की गुंजाइश बहुत कम रह जाती है ।
4.1.4 कभी-कभी सूत्रों के क्रम को याद रखने के लिए निर्मित परिवर्णी आसानी से याद रखा जा सकता है, जैसे १.१.७ "हलोऽनन्तराः संयोगः" से लेकर १.१.१० "नाज्झलौ" तक के सूत्रों के लिए "ह-मु-तु-ना" । परन्तु कभी-कभी परिवर्णी के लयदार न होने से इसे याद रखना आसान नहीं होता । ऐसी परिस्थिति में कुछ प्रसिद्ध नाम या किसी आसान वाक्य का प्रयोग लाभदायक हो सकता है । उदाहरणार्थ - आरम्भ में मुझे सूत्र १.२.२२ "पूङः क्त्वा च" से लेकर १.२.२४ "वञ्चि-लुञ्च्यृतश्च" के क्रम को याद रखने में कठिनाई होती थी तो मुझे रूसी गणितज्ञ "लियापूनोव" (Liapunov) का नाम ध्यान में आया । आसान वाक्य का एक उदाहरण है - "आ, ए ले, आ वै-इ-स-नि" (अर्थात् "आओ, ये लो, आओ, बैठो न" ) जिसका प्रयोग मैंने ३.४.९२ "आडुत्तमस्य पिच्च" से लेकर ३.४.९९ "नित्यं ङितः" तक के सूत्रों के क्रम को याद रखने के लिए किया करता था ।
5.0 उपर्युक्त विवेचन से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि मैंने सभी सूत्रों के लिए परिवर्णी के निर्माण की बात कही है । परन्तु ऐसी बात नहीं है । जहाँ सूत्र आसानी से याद रहते हैं वहाँ परिवर्णी की आवश्यकता नहीं । उदाहरणस्वरूप - पृ॰ ४६ के पहले कॉलम वाले सभी सूत्रों (३.३.१४८ "यच्च यत्रयोः" से लेकर ३.३.१६० "इच्छार्थेभ्यो विभाषा वर्तमाने") के लिए परिवर्णी का प्रयोग किया है - "य-ग-चि-शे / उ-का-सं-वि / हे-इ / स-लि-इ" । परन्तु उसी पृष्ठ के दूसरे कॉलम के सभी १२ सूत्रों का परिवर्णी न बनाकर केवल पहले आठ सूत्रों का ही परिवर्णी बनाया - "वि-लो-प्रै-लि / स्मे-अ-का-लि" । उस कॉलम के शेष चार सूत्रों को और अगले पृष्ठ पर के इसी पाद के अन्य चार सूत्रों को ऐसे ही कण्ठस्थ किया ।
6.0 जिस अष्टाध्यायी-सूत्रपाठ को आपने कण्ठस्थ करने के लिए चुना है, हो सके तो, उस संस्करण का पॉकेट साइज बना लें और पॉकेट में रखें । यदि कहीं / कभी अवकाश या खाली समय मिल गया तो इसका सदुपयोग करके सूत्रपाठ को दुहरा सकते हैं । यह पॉकेट साइज ९.५ सें॰मी॰ x ११ सें॰मी॰ का हो तो अधिकतर लोगों के लिए सुविधाजनक होगा । रामलाल कपूर ट्रस्ट द्वारा ११ सें॰मी॰ x १३ सें॰मी॰ साइज का सन् २००६ में प्रकाशित पॉकेट संस्करण तो शायद ही किसी के पॉकेट में घुस सकता हो । जिस संस्करण का आप प्रयोग करना चाहते हैं उसका यदि पॉकेट संस्करण उपलब्ध न हो तो अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए सूत्रपाठ की उपर्युक्त निर्दिष्ट पॉकेट साइज (या जो भी साइज आपके लिए उचित हो) में छायाप्रति करवाकर सुविधानुसार इसके तीन खंड (अध्याय १-३, ४-५, ६-८) या एक ही खंड तैयार कर प्रयोग कर सकते हैं ।
सन्दर्भ ग्रन्थ
१. पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक (१९९१): "मेरी दृष्टि में स्वामी दयानन्द सरस्वती और उनका कार्य", रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत, हरयाणा, २४० पृष्ठ ।
२. पं॰ ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु (जून १९८६): "संस्कृत पठन-पाठन की अनुभूत सरलतम विधि", विना रटे ६ मास में अष्टाध्यायी-पद्धति से संस्कृत का पठन-पाठन, [प्रथम भाग], रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत, हरयाणा, २६४ पृष्ठ ।
३. "स्व॰ पं॰ ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु-जन्म-शताब्दी-समारोह अङ्क (२)", वेदवाणी विशेषाङ्क, दिसम्बर १९९२, रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़, सोनीपत, हरयाणा ।
४. पाणिनीयः अष्टाध्यायीसूत्रपाठः (संशोधित संस्करणम्), सम्पादकः - श्री पं॰ ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, प्रकाशक - रामलाल कपूर ट्रस्ट, बहालगढ़ (सोनीपत-हरयाणा), बारहवाँ संस्करण, फरवरी १९८५; कुल १०+८८ पृष्ठ ।
५. अष्टाध्यायीसूत्रपाठः (वार्तिक-गणपाठ-सहितः अनुवृत्ति-निर्देश-समन्वितश्च), संस्कर्ता - श्रीशंकरदेव पाठकः, सम्पादक - नन्द किशोरः, प्रकाशक - अनीता आर्ष प्रकाशन, पानीपत (हरियाणा), वृन्दावन संस्करण का पुनर्मुद्रण, तृतीय संस्करण, ११ अप्रैल १९९४; कुल ७+२७५ पृष्ठ; मूल्य - २० रुपये ।
६. अष्टाध्यायीसूत्रपाठः (वार्तिक-गणपाठ-धातुपाठ-पाणिनीयशिक्षा-परिभाषापाठ-सूत्रसूची सहितः), सम्पादक - सि॰ शंकरराम शास्त्री, प्रकाशक - बालमनोरमा प्रेस, मद्रास, द्वितीय संस्करण, १९३७; पुनर्मुद्रण - शारदा पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, १९९४ ई॰; कुल - xx + ३०३ पृष्ठ [अंग्रेजी प्रस्तावना (पृ॰ vii-xx) - श्रीमती रत्ना बसु; सूत्रपाठ - पृ॰ १-२३४, धातुपाठ - पृ॰ २३५-२६९; पाणिनीयशिक्षा- पृ॰ २६९-२७२; परिभाषापाठ - पृ॰ २७३-२७६; अष्टाध्यायीसूत्राणां सूची - पृ॰ २७७-३०३] ।
७. पाणिनीयः अष्टाध्यायी-सूत्रपाठः (पूर्वपीठिका-सूत्रविवरणात्मक 'प्रह्लाद' टिप्पणीसहितः), संस्कर्त्ता - स्वामी प्रह्लाद गिरि वेदान्तकेशरी, सम्पादकः - आचार्य पं॰ सत्यनारायण खण्डूड़ी, प्रकाशक - कृष्णदास अकादमी, वाराणसी, १९८५ ई॰; कुल - ५५+१८३ पृष्ठ (भूमिका - पृ॰ ७-८; पूर्वपीठिका - पृ॰ ९-५०; विषयसूची - पृ॰ ५१, विषयानुक्रमणिका - पृ॰ ५२-५५; सूत्रपाठ - पृ॰ १-१३३, परिशिष्टम् – अनुबन्धविचारः - पृ॰ १३४-१३५; कारिका - पृ॰ १३५-१३६; अष्टाध्यायीसूत्राणां सूची - पृ॰ १३७-१८३) ।
८. वामनजयादित्यविरचिता काशिका (न्यास-पदमञ्जरी-भावबोधिनी-सहिता)
प्रकाशकः तारा बुक एजेंसी, वाराणसी ।
सम्पादकः डॉ॰ जयशंकरलाल त्रिपाठी एवं डॉ॰ सुधाकर मालवीय
भाग-1 (अध्याय 1.1-1.2) - 1986 (52+343 पृ॰)
भाग-2 (अध्याय 1.3-2.2) - 1986 (20+30+408 पृ॰)
भाग-3 (अध्याय 2.3-3.2) - 1987 (20+568 पृ॰)
भाग-4 (अध्याय 3.3-4.1) - 1984 (xvi+516 पृ॰)
भाग-5 (अध्याय 4.2-5.1) - 1988 (24+450 पृ॰)
भाग-6 (अध्याय 5.2-5.4) - 1989 (24+358 पृ॰)
भाग-7 (अध्याय 6.1-6.2) - 1990 (19+486 पृ॰)
सम्पादकः डॉ॰ जयशंकरलाल त्रिपाठी
भाग-8 (अध्याय 6.3-7.1) - 1991 (24+486 पृ॰)
भाग-9 (अध्याय 7.2-7.4) - 1994 (25+384 पृ॰)
भाग-10 (अध्याय 8.1-8.4) - 2000 (54+501 पृ॰)
८. वामनजयादित्यविरचिता काशिका (न्यास-पदमञ्जरी-भावबोधिनी-सहिता)
प्रकाशकः तारा बुक एजेंसी, वाराणसी ।
सम्पादकः डॉ॰ जयशंकरलाल त्रिपाठी एवं डॉ॰ सुधाकर मालवीय
भाग-1 (अध्याय 1.1-1.2) - 1986 (52+343 पृ॰)
भाग-2 (अध्याय 1.3-2.2) - 1986 (20+30+408 पृ॰)
भाग-3 (अध्याय 2.3-3.2) - 1987 (20+568 पृ॰)
भाग-4 (अध्याय 3.3-4.1) - 1984 (xvi+516 पृ॰)
भाग-5 (अध्याय 4.2-5.1) - 1988 (24+450 पृ॰)
भाग-6 (अध्याय 5.2-5.4) - 1989 (24+358 पृ॰)
भाग-7 (अध्याय 6.1-6.2) - 1990 (19+486 पृ॰)
सम्पादकः डॉ॰ जयशंकरलाल त्रिपाठी
भाग-8 (अध्याय 6.3-7.1) - 1991 (24+486 पृ॰)
भाग-9 (अध्याय 7.2-7.4) - 1994 (25+384 पृ॰)
भाग-10 (अध्याय 8.1-8.4) - 2000 (54+501 पृ॰)