Friday, December 26, 2008

7. कातन्त्र विस्तरवृत्ति का रचयिता एवं शर्ववर्मा

कातन्त्र विस्तरवृत्ति का रचयिता एवं शर्ववर्मा


Synopsis

'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' written by पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक is a monumental work in the field of history of Sanskrit grammatical literature. In view of its great usefulness both as a textbook for university students and as a manual for researchers, it is worthwhile revising it.

In the course of his research work, the present author has come across not only new findings on certain controversial points but also a serious mistake committed by पं॰ यु॰मी॰ of even a quite obvious statement. In this article this mistake is pointed out and discussed.

On p.629 of Vol.I (4th edition) he writes - "On page 437 of his व्याकरण दर्शनेर इतिहास Shri Pt. Gurupoda Halder mentions Sharvavarma as the author of बृहद्-वृत्ति of कातन्त्र. But he has not given any proof in this regard". On p.622 also he writes about Pt. Gurupoda Halder having mentioned that Sharvavarma has written a long commentary on कातन्त्र.

मीमांसक जी is highly mistaken in interpreting the statement originally in Bengali given by Pt. Gurupoda Halder. It is not Sharvavarma who is the author of कातन्त्र विस्तरवृत्ति, but Vardhamana. मीमांसक जी has taken the literal meaning of 'विस्तर' as 'बृहद्', i.e. long and interpreted कातन्त्रेर विस्तरवृत्ति as the बृहद्-वृत्ति of कातन्त्र.

Dr जानकी प्रसाद द्विवेदी has committed the same mistake, vide his D.Litt. thesis 'कातन्त्र व्याकरण विमर्शः', page 6, line 16 and the corresponding footnote 3.

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"आज तक लिखा गया संस्कृत व्याकरणों का सबसे अधिक पूर्ण इतिहास पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक का है जिसमें कालक्रम तथा ग्न्थपाठ सम्बन्धी सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर पूर्ण प्रमाणों के साथ विचार किया गया है । यह उपयोगी एवं सुव्यवस्थित सूचना का आकर है ।" [1] दो दशक पूर्व श्री जॉर्ज कार्डोना के ये व्यक्त विचार अभी भी लागू होते हैं । पं॰ युधिष्ठिर मीमांसक कृत 'संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास' विश्वविद्यालयीय व्याकरण विषयक छात्रों के लिए पाठ्य-पुस्तक या साहाय्य ग्रन्थ एवं अनेक शोधकर्ताओं के लिए प्रेरणा स्रोत रहा है । सरस्वतीकण्ठाभरण (व्याकरण) पर शोध की ओर रुझान हमें इसी ग्रन्थ से प्राप्त हुआ । शोधकार्य के दौरान हमें न केवल कई विवादास्पद मुद्दों पर अधिक सामग्री मिलने से नये तथ्य उजागर हुए हैं, बल्कि हमें इस ग्रन्थ में मीमांसक जी की ऐसी भूल भी सामने आयी जो उन्होंने स्पष्ट वाक्य का गलत अर्थ करने से की है । इसी गलती का निर्देश एवं स्पष्टीकरण इस लेख में किया जा रहा है ।

मीमांसक जी सं॰ व्या॰ इ॰ के चतुर्थ संस्करण के पृष्ठ ६२९ पर लिखते हैं -
"श्री पं॰ गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' के पृष्ठ ४३७ पर शर्ववर्मा को कातन्त्र की 'बृहद्वृत्ति' का रचयिता लिखा है । परन्तु इसके लिए उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिया ।"

इस स्थल पर उन्होंने फुटनोट में हालदार जी की निम्नलिखित उक्ति उद्धृत की है -
"जिनि कातन्त्रेर विस्तरवृत्ति लिखियाछेन तिनि सर्ववर्मार नाम करेन न केन ?"

पृष्ठ ६२२ पर भी मीमांसक जी लिखते हैं -
"पं॰ गुरुपद हालदार ने अपने 'व्याकरण दर्शनेर इतिहास' में शर्ववर्मा को कातन्त्र की विस्तरवृत्ति का रचयिता लिखा है ।" इस स्थल पर उन्होंने फुटनोट ६ में लिखा है - 'द्र॰ पृ॰ ४३७ ।' "

हालदार जी के उपर्युक्त वाक्य का अर्थ है - "जिन्होंने कातन्त्र की विस्तरवृत्ति लिखी है, उन्होंने शर्ववर्मा का नाम उद्धृत क्यों नहीं किया ?" 'जिनि .... ... तिनि' या 'जिन्होंने ... ... उन्होंने' - इस वाक्य रचना में ये दोनों शब्द एक ही व्यक्ति को निर्दिष्ट करते हैं, दो को नहीं । प्रसंग के अनुसार ये व्यक्ति वर्धमान हैं । इस बात को और स्पष्ट करने के लिए हालदार जी की पुस्तक से संगत सम्पूर्ण पैरा ही उद्धृत किया जाता है । मुग्धबोध में उपलब्ध श्लोक "इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादि शाब्दिकाः ।।" को ऐतिहासिक महत्त्व के लिए अनुपयोगी बताते हुए पं॰ हालदार आगे लिखते हैं –

भास्कराचार्य समये गणरत्नमहोदधिकार वर्द्धमान उपाध्याय लिखियाछेन -
"शालातुरीय-शकटांगज-चन्द्रगोमि-दिग्वस्त्र-भर्तृहरि-वामन-भोजमुख्याः ।
मेधाविनः प्रवरदीपक कर्तृयुक्ताः प्राज्ञैर्निषेवित पदद्वितया जयन्ति ।।
... शालातुरीयः पाणिनिः । शकटाङ्गजः शाकटायनः । दिग्वस्त्रो देवनन्दी । भर्तृहरिर्वाक्यपदीय प्रकीर्णकयोः कर्त्ता महाभाष्यत्रिपाद्या व्याख्याता च । वामनो विश्रान्तविद्याधरव्याकरणकर्त्ता । भोजः सरस्वतीकण्ठाभरणकर्त्ता । मुख्य शब्दस्यादिवचनात् शिवस्वामि पतञ्जलिकात्यायन प्रभृतयो लभ्यन्ते । दीपककर्त्ता श्री भद्रेश्वरसूरिः । प्रवरश्चासौ दीपककर्त्ता च प्रवरदीपककर्त्ता । प्राधान्यं चास्याधुनिक वैयाकरणापेक्षया । निषेवितं पदद्वितयं चराम्बुजद्वयं सुप्तिङ् लक्षणं च येषां ते तथोक्ताः ।" (गणरत्न म॰, पु॰ २-३) । ए स्थले जे आचार्य्येर नाम गृहीत हइयाछे तांहादेर मध्ये केह केह मूलग्रन्थेर व्याख्याकार वा निबन्धकार, सुतरां सकलेइ सम्प्रदाय प्रवर्त्तक नहेन । इहा व्यतीत अनेक सम्प्रदाय प्रवर्त्तकेर नाम ओ उपेक्षित हइयाछे । जिनि कातन्त्रेर विस्तरवृत्ति लिखियाछेन तिनि सर्ववर्म्मार नाम करेन न केन ? सुतरां वर्द्धमानेर उक्तिसमूह स्थूलतः सत्य हइलेओ इतिहासेर उपयोगी नहे ।" (व्या॰ द॰ इ॰, पृष्ठ ४३६-४३७) ।

अर्थात् भास्कराचार्य के समय रत्नमहोदधिकार वर्धमान उपाध्याय ने लिखा है -
"शालातुरीय ... ... ते तथोक्ताः ।" (गणरत्न म॰, पृ॰ २-३) । इस स्थल में जिन-जिन आचार्यों के नाम का ग्रहण हुआ है, उनके बीच कोई-कोई व्याख्याकार या निबन्धकार हैं, इसलिए सभी सम्प्रदाय प्रवर्त्तक नहीं हैं । व्यतीत अनेक सम्प्रदाय प्रवर्त्तकों का नाम भी यहाँ उपेक्षित हुआ है । जिन्होंने कातन्त्र की विस्तरवृत्ति लिखी है, उन्होंने शर्ववर्मा के नाम को उद्धृत क्यों नहीं किया ? अतः वर्धमान की उक्तियाँ स्थूलतः सत्य होते हुए भी इतिहासार्थ उपयोगी नहीं हैं ।"

स्पष्ट है कि पं॰ गुरुपद हालदार यहाँ कातन्त्र विस्तरवृत्ति का कर्ता वर्धमान को बता रहे हैं, न कि शर्ववर्मा को । उनके कहने का मतलब यह है कि जिन वर्धमान ने शर्ववर्माकृत कातन्त्र व्याकरण पर विस्तरवृत्ति लिखी वे शर्ववर्मा के नाम को उद्धृत करना कैसे भूल गये ? परिशिष्ट में भी उन्होंने "कातन्त्र विस्तरवृत्ति (वर्द्धमानकृत) ३९५, ४५७" "विस्तरवृत्ति - 'कातन्त्र विस्तरवृत्ति' ३४६, ३९५, ४५७", "वृत्ति (व्याकरण सम्बन्धीय) - कातन्त्र विस्तरवृत्ति (वर्द्धमानीय) ३९५, ४५७" लिखा है । (व्या॰ द॰ इ॰, पृष्ठ ७०८, ७३५, ७३५) । मीमांसक जी ने पृ॰ ६३८ पर लिखा है -

"डॉ॰ बेल्वालकर ने वर्धमान की टीका का नाम 'कातन्त्र विस्तर' लिखा है । .... ... गुरुपद हालदार ने भी इसे गणरत्नमहोदधिकार वर्धमान की रचना माना है ।"

इस पर वे फुटनोट संख्या ३ पर लिखते हैं -
"वर्धमान ११४० [2] खृष्टाब्दे गणरत्न महोदधि प्रणयन करेन । ... तांहार [3] 'कातन्त्र विस्तरवृत्ति' एकखानि प्रामाणिक ग्रन्थ, एखन ओ किन्तु उहा मुद्रित हय नाइ [4]। व्याकरण दर्शनेर इतिहास, पृष्ठ ४५७ ।"

मीमांसक जी से उपर्युक्त भूल या तो बंगला के उनके सीमित ज्ञान के कारण या कुछ जल्दीबाजी के कारण हुई होगी । जल्दीबाजी के कारण कई विद्वान् गलतफहमी के शिकार हुए हैं । उदाहरणस्वरूप, डॉ॰ भीमसेन शास्त्री जैसे संस्कृत व्याकरण के दिग्गज विद्वान ने भी चन्द्राचार्य के बारे में यहाँ तक टिप्पणी कर दी है कि 'जिस स्वर प्रयोजन का न्यासकार ने उल्लेख किया है, सम्भवतः वह प्रयोजन चान्द्र-व्याकरणकार को सूझा नहीं, अतः उन्होंने इसे निष्प्रयोजन समझकर बहिष्कृत कर दिया ।' (न्यास पर्यालोचन, पृ॰ १२५) ।

टिप्पणी
1. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास, तृतीय भाग, पृ॰ १०७ ।
2. सं॰ व्या॰ इ॰ में "१९४०", जो कि मुद्रण की अशुद्धि है ।
3. सं॰ व्या॰ इ॰ में "ताहार", जो कि मुद्रण की अशुद्धि है ।
4. सं॰ व्या॰ इ॰ में "हुई नाई", जो कि मुद्रण की अशुद्धि है ।

(वेदवाणी, जून १९९७, पृष्ठ १९-२१, में प्रकाशित)

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