Sunday, April 20, 2008

10. गुजराती संस्करण में परिवर्तित आठ स्वरसूत्रों पर विचार

Synopsis
In this article eight such sutras of SKA dealing with the accent rules are discussed, whose readings are perfectly correct in the Madras edition, but which have been blunderingly modified in the Gujarati edition. The reading of all these sutras from both the editions are listed in the Table at the end.

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय के स्वर प्रकरण के ऐसे आठ सूत्रों की चर्चा की जायगी जिनके पाठ मद्रास संस्करण में बिलकुल सही हैं, किन्तु गुजराती संस्करण में इन सूत्रों के रूप बदल देने से अशुद्धियाँ आ गयी हैं । इसके बारे में पूर्व सूचना वेदवाणी के जुलाई १९९६ अङ्क के पृष्ठ ९ पर दी गयी थी ।

सर्वप्रथम हम भोजसूत्र 'हियासामः' (८।३।११) पर विचार करते हैं । इसे बदलकर गु॰सं॰ में 'हिमारण्याभ्याम्' (८।३।१३) कर दिया गया है जिसकी वृत्ति इस प्रकार दी गयी है -

"सूत्रार्थः (स्वरविषये) हिम अरण्य इत्येताभ्यां परतः ङीप् प्रत्यय उदात्तो भवति ।
अर्थः - हिम अने अरण्य शब्दनो लागतो ङीष् प्रत्यय उदात्त बने छे; आ प्रत्ययनी पहेलां आनुक् (= आन्) आगम लागे छे ।"

सूत्रार्थ में 'ङीप्' छपा है जबकि गुजराती अर्थ में 'ङीष्' । 'ङीप्' छपाई सम्बन्धी अशुद्धि है । भोजसूत्र 'हिमारण्याभ्यां महत्त्वे' (३।४।८७) पर दण्डनाथवृत्ति में ङीष् प्रत्यय का ही विधान पाया जाता है । ङीष् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए 'हिमारण्याभ्याम्' जैसे सूत्र की जरुरत नहीं है, क्योंकि प्रत्ययस्वर से ही ङीष् उदात्त हो जायगा ।

पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका तैयार करते समय जब हम पाणिनिसूत्र 'यासुट् परस्मैपदेषूदात्तो ङिच्च' (पा॰ ३।४।१०३), अनु॰ – लिङः’, के सङ्गत भोजसूत्र की जाँच कर रहे थे तो एक सूत्र तो यह मिला -
लिङो यासुट् ङिच्च ॥३।१।२८॥, अनु॰ - परस्मैपदानाम् ।

पाणिनि सूत्र ३।४।१०३ में जो यासुट् (=यास्) को उदात्त कहा गया है उसका विधान सरस्वतीकण्ठाभरण के आठवें अध्याय में हमें केवल 'हियासामः' (=हि+यास् +आम्+जस्) में मिला ।

अब इस बात पर विचार करें कि भोज ने 'हि' ('सिप्' के स्थान पर लोट् लकार में प्रयुक्त एवं 'हि' के स्थान पर प्रयुक्त होने से 'धि' भी) को उदात्त बनाने के लिए जो प्रावधान किया है वह जरूरी है क्या ? इसके बारे में महाभाष्य, काशिका, न्यास या पदमञ्जरी में कोई उल्लेख नहीं पाया जाता । परन्तु अष्टाध्यायी के अपने जर्मन अनुवाद 'Panini's Grammatik' में बोटलिंक महोदय सूत्र ६।४।१०३ के अन्तर्गत लिखते हैं -

"अङितश्च ॥१०३॥
Aber auch dann, wenn diese Personalendung kein Stummes ङ् hat.
रारन्धि, यन्धि, युयोधि. Nach 3.4.88 kann हि in Veda auch पित् sien; ist es पित्, so ist es nach 1.2.4 nicht ङित्. Da es in den angeführten Beispielen nicht ङित् ist, erfahrt die Wurzel keine Schwachung, wird sogar verstärkt. Trotz पित् Oxytona !"

यहाँ यह स्पष्ट नहीं है कि बोटलिंक ने उपर्युक्त उदाहरणों में 'हि' के पित् होते हुए भी इसे उदात्त (Oxytone)कैसे माना है । जब तक स्पष्ट रूप से इस बात का प्रावधान नहीं किया जाता कि 'हि' पित् होते हुए भी उदात्त होगा, तब तक सूत्र 'अनुदात्तौ सुप्पितौ' (पा॰ ३।१।४) लागू होगा । प्रतीत होता है कि उन्होंने उपर्युक्त वचन वैदिक साहित्य में प्राप्त स्वर के आधार पर दिया है । इस बात के स्पष्टीकरण एवं विशेष चर्चा के लिए मैंने वैदिक विशेषज्ञ डॉ॰ रविप्रकाश आर्य, रोहतक को पत्र लिखा । उन्होंने १६ जून १९९८ के पत्र में जवाब दिया -

"You are correct in your observations........ Bohtlingk's inference of oxytone पित् is based on examples and not that he could understand Panini. In the present case the accent rule has to be supplemented in order to be more specific and precise."

'आम्' का प्रावधान अष्टाध्यायी एवं सरस्वतीकण्ठाभरण में निम्नलिखित स्थलों पर प्राप्त होता है –

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पाणिनि सूत्रपाठ सरस्वतीकण्ठाभरण सूत्रपाठ
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कास्प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि अनेकाचो लिट आङ्कृभ्वस्तीनां च लिट्यनुप्रयोगः
(३।१।३५) (१।३।६९)

आमेतः (३।४।९०) आमेतः (३।१।२०)

स्वौ ...... ङसोसाम् प्रातिपादिकात् स्वौ..... ङ्सोसां.....
(४।१।२) (३।१।१५६)

किमेत्तिङव्ययघादाम्वद्रव्यप्रकर्षे किमेत्तिङव्ययेभ्यः आभ्यामामद्रव्ये
(५।४।११) (५।३।७८)

चतुरनडुहोरामुदात्तः (७।१।९८) आमनडुहो वा (६।४।४९)
हियासामः (८।३।११)

ङेराम् नद्याम्नीभ्यः (७।३।११६) ङेरामाडादिभ्यः (७।२।५६)
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इन भिन्न स्थलों पर प्रयुक्त 'आम्' में से पा॰ ७।१।९८ में स्पष्टरूप से 'आम्' को उदात्त कहा गया है । अतः सङ्गत स॰कं॰ सूत्र ६।४।४९ में प्रयुक्त 'आम्' को उदात्त करने के लिए आठवें अध्याय में एक सूत्र की जरूरत है जो 'हियासामः' से प्राप्त होता है । कुछ अन्य स्थलों में प्रयुक्त आम् की स्वरसिद्धि नहीं हो पाती जिसका उल्लेख महाभाष्य में पाया जाता है ।

सूत्र 'गतिकारकोपपदात् कृत्' (पा॰ ६।२।१३९) के सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में 'पथ्युपपदकारकेभ्यः' एवं 'उत्कृत्योवाश्रमः' (८।४।१५५-१५६) हैं । ये दोनों सूत्र भ्रष्ट प्रतीत होते हैं । अगर पूर्वोक्त पा॰ सूत्र के सङ्गत सूत्र को 'गत्युपपदकारकेभ्यः कृत्' स्वीकार किया जाय तो महाभाष्य की निम्नलिखित टिप्पणी लागू होगी ।

"यदि कृद्‌ग्रहणं क्रियते आमन्ते स्वरो न प्राप्नोति । प्र॒प॒च॒ति॒तराम् । प्र॒ज॒ल्प॒ति॒त॒राम् ।" कृद्‌ग्रहण से आमन्त को अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता अर्थात् यह तद्धित प्रत्यय 'आम्' उदात्त नहीं हो पाता है । स्वरसिद्धान्तचन्द्रिकाकार लिखते हैं -

"कृद्‌ग्रहणे 'प्रपचतितराम्' इत्यादौ आमन्तेन गतिसमासे तस्य अकृदन्तत्वाद् अयं स्वरो न स्यात् । ततश्च अव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरेण आद्युदात्तत्वप्रसंगः ।" परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः अगर कृद् ग्रहण किया गया तो 'प्रपचतितराम्' इत्यादि में 'आम्' को उदात्त सिद्ध करने के लिए अलग सूत्र की जरूरत है । [2] स॰कं॰ में यह सूत्र 'हियासामः' से प्राप्त हो जायगा ।

'प्रपचतितराम्' इत्यादि में 'प्र' के निघात (अनुदात्त) के लिए भी 'आम्' को उदात्त बनाने की जरूरत है । सूत्र 'तिङि चोदात्तवति' (पा॰ ८।१।७१), जिसका सङ्गत भोजसूत्र 'तिङ्युदात्तवति' (८।३।२४७) है, पर भाष्यकार लिखते हें - "यदि तिङ्ग्रहणं क्रियते, आमन्ते न प्राप्नोति । प्रपचतितराम्, प्रजल्पतितराम् ।" आमन्त के साथ गतिसमास करने पर यदि तिङ्ग्रहण न किया जाय तो भी गतिनिघात (अर्थात् 'प्र' को अनुदात्त) प्राप्त नहीं होता है जैसा कि काशिकाकार स्पष्ट करते हैं - "आमन्ते तर्हि न प्राप्नोति - प्रपचतितराम्, प्रपचतितमाम् । अत्र केचिदामन्तेन गतेः समासं कुर्वन्ति । तेषामव्ययपूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वे सत्यक्रियमाणेऽपि तिङ्ग्रहणे परमनुदात्तवद् भवतीति गतिनिघातो नैव सिध्यति ।" अतः आमन्त के साथ गतिसमास करने पर गतिनिघात प्राप्त हो, इसके लिए 'आम्' को उदात्त बनाने की जरूरत है ।

लिट् या अन्य लकार परे रहते जो 'आम्' प्रत्यय आता है वह उदात्त होता है - यत्प्र॑कार॒याञ्च॑कार । चक्षु॑ष्कामं याज॒याञ्च॑कार । अभ्युत्साद॒या॑म॒कः (म॰सं॰ १।६।५) । पा॒व॒यांक्रिया॒त् (मै॰सं॰ २।१।३) । वि॒दाम॑क्र॒न् (तै॰सं॰ ३।५।१०) । पर इस 'आम्' की उदात्तत्व-सिद्धि के लिए अलग से सूत्र की जरूरत नहीं । अन्य स्वरसूत्रों से भी काम चल जायगा - देखें 'आमः' (पा॰ २।४।८१) पर महाभाष्य एवं अधिक स्पष्टीकरण के लिए प॰ युधिष्ठिर मीमांसक कृत हिन्दी व्याख्या ।

सुप् 'आम्' (षष्ठी बहुवचन) उदात्त भी होता है (सुप्येकाचोऽनाट्टादयः ८।३।३८) और अनुदात्त भी (सुप्पितौ ८।३।६) । अतः इसमें 'हियासामः' लागू नहीं होता ।

अब हम भोजसूत्र 'असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप्' (८।३।१२) पर विचार करते हैं । इसे गु॰सं॰ में बदलकर 'बहुव्रीहेः संख्यादेरूधसो ङीप्' (८।३।१४) के लिए भोज ने लौकिक भाग में एक ही सूत्र 'ऊधसो नश्च (३।४।२३), अनु॰ - बहुव्रीहेः, ङीप्, स्त्रियाम् ।' बनाया है । पाणिनि सूत्र ४।१।२५-२६ से स्पष्ट है कि पाणिनि मुनि संख्या और अव्यय आदि में न होने पर ही 'ऊधस्' से ङीष् (अर्थात् उदात्त) प्रत्यय का विधान करते हैं । भोजसूत्र ३।४।२३ सामान्य रूप से ऊधस् को ङीप् (अर्थात् अनुदात्त) प्रत्यय विधान करता है । अतः उपर्युक्त दशाओं में जहाँ पाणिनि सूत्र ङीष् प्रत्यय का विधान करके अन्तोदात्त करता है, वहाँ भी स॰कं॰ ३।४।२३ से ङीप् के अनुदात्त होने से अन्तानुदात्त प्राप्त होगा । इसलिए संख्या और अव्यय जहाँ आदि में नहीं हो, ऐसे ऊधस् से बने बहुव्रीहि समास में ङीप् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए स॰कं॰ में अलग सूत्र की जरूरत है । भोज ने इसके लिए आठवें अध्याय में निम्नलिखित सूत्र का विधान किया है –
असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१२॥ उदात्तः ।

यहाँ 'बहुव्रीहेः' शब्द जोड़ने की जरूरत नहीं है । प्रसङ्गवश यह स्पष्ट है । अब देखिए गु॰सं॰ में सङ्गत सूत्रपाठ एवम् उसकी व्याख्या -

"बहुव्रीहेः सख्यादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१४॥
सूत्रार्थः - (स्वरविषये) संख्यादेः अव्ययादेः ऊधस्शब्दान्तात् बहुव्रीहेः स्त्रियां ङीप् प्रत्यय उदात्तो भवति ।"

स्पष्ट है कि गु॰सं॰ का सूत्र पाणिनिसूत्र के ठीक विपरीत कार्य का विधान करता है ।

अब हम भोजसूत्र 'स्त्रियां क्यपः' (८।३।२६) पर विचार करते हैं जिसे गु॰सं॰ में बदल कर 'व्रजयजोः स्त्रियां क्यपः' (८।३।२६) कर दिया गया है । पाणिनि सूत्र 'व्रजयजोर्भावे क्यप्', 'संज्ञायाम् समज-निषद-निपद-मन-विद-षुञ्-शीङ्-भृञिणः', 'कृञः श च' (पा॰ ३।३।९८-१००) में 'स्त्रियाम्' एवम् 'उदात्तः' की अनुवृत्ति क्रमशः सूत्र ९४ एवं ९६ से आती है । 'क्यप्' की अनुवृत्ति सूत्र संख्या १०० तक जाती है । अतः क्यप् प्रत्यय इन तीनों सूत्रों में उदात्त है, न कि केवल सूत्र ९८ के लिए । भोज ने सङ्गत क्यप् प्रत्यय का प्रावधान सूत्र २।४।१२६-१३१ में किया है । इन सभी सूत्रों में आये हुए क्यप् प्रत्यय को उदात्त करने के लिए भोज ने 'स्त्रियां क्यपः' सूत्र बनाया है ।

पाणिनिसूत्र 'भवतष्ठक्छसौ' (पा॰ ४।२।११५) के अनुसार भवत् (त्यदादिगण में पठित) से शैषिक ठक् प्रत्यय होता है । ‘कितः’ (पा॰ ६।१।१६५) से ठक् प्रत्ययान्त शब्द 'भावत्कः' अन्तोदात्त होता है । भोजसूत्र 'भवतो दश्च', 'ठञ् च' (४।३।४२-४३) से 'भावत्कः' ठञ्प्रत्ययान्त हो जाता है और 'ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति' (८।३।७६) से आद्युदात्त प्राप्त होता है, परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः इसके लिए अलग सूत्र की आवश्यकता है । अगर भोज ने 'ठक् च' (४।३।४३) सूत्र बनाया होता तो 'भवतष्ठकः' जैसे सूत्र की जरूरत ही नहीं पड़ती, क्योंकि भोजसूत्र 'तद्धितस्य कितः' (८।३।३०) से ही 'भावत्कः' अन्तोदात्त हो जाता है । अतः मद्रास संस्करण का सूत्र 'भवतष्ठञः' (८।३।३२) सही है ।

अब हम भोजसूत्र 'तसादिश्चेदमः' (८।३।४४), अनु॰ - अशिसुट्, उदात्तः’ पर विचार करते हैं । यह निम्नलिखित पाणिनिसूत्र पर आधारित है -
ऊडिदंपदाद्यप्पुम्रैद्युभ्यः ॥६।१।१७१॥ असर्वनामस्थानम्, विभक्तिः, उदात्तः ।

पाणिनि मुनि ने विभक्ति की परिभाषा दो सूत्रों से दी है -
विभक्तिश्च ॥१।४।१०३॥ सुपः, तिङः ।
प्राग्दिशो विभक्तिः ॥५।३।१॥

इस दूसरे सूत्र पर निम्नलिखित भाष्य पाया जाता है -
"विभक्तित्वे किं प्रयोजनम् ।............
इदमो विभक्तिस्वरश्च ॥३॥
इदमो विभक्तिस्वरश्च प्रयोजनम् । इतः । इह । इदमस्तृतीयादिर्विभक्तिरुदात्ता भवतीत्येष स्वरः (पा॰ ६।१।१७१) सिद्धो भवति ।"

स॰कं॰ में पा॰सू॰ १।४।१०३ का सङ्गत सूत्र 'तिङ् सुपो विभक्तिः' (१।१।१९) है, किन्तु पा॰सू॰ ५।३।१ का परित्याग किया गया है । अतः अष्टाध्यायी में सूत्र ५।३।१ के बाद 'दिक्' शब्द के पहले-पहले तक जो तासिलादि प्रत्ययों की भी विभक्ति संज्ञा की गई है, उसका उपर्युक्त वार्त्तिक में प्राप्त भाष्य के अनुसार इदम् के विभक्ति-स्वर का प्रावधान स॰कं॰ में न केवल तृतीयादि सुप् विभक्ति को बल्कि तसादि (स॰कं॰ में 'तसिल्' के बदले 'तस्' प्रत्यय पठित है) प्रत्ययों को भी उदात्त स्वर प्राप्त कराने के लिए भोज ने 'तसादिश्चेदमः' सूत्र रचा है । चकार से 'शि' और 'सुट्' के अतिरिक्त सुप् विभक्ति को भी उदात्त प्राप्त होगा । गु॰सं॰ में इस सूत्र को बदलकर 'शसादिश्चे-दमः' कर दिया गया है । 'अशिसुट्' की अनुवृत्ति आने से 'शसादि' कहने की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि 'सुट्' को छोड़कर अन्य 'शसादि' ही बचते हैं ।

अब भोजसूत्र 'सोदरद्यत्' (८।३।१०१) पर विचार करें । गु॰सं॰ में इसे बदलकर 'सोदराद् यः' (८।३।१०५) कर दिया गया है जिसकी वृत्ति इस प्रकार है –
'(स्वरविषये) सोदरशब्दात् (सप्तमीसमर्थात् शयित इत्यर्थे) यः प्रत्यय उदात्तो भवति ।'

यदि भोज ने 'सोदर' शब्द से 'यः' प्रत्यय का प्रावधान किया होता तो स्वरसिद्धि के लिए अलग से आठवें अध्याय में सूत्र की जरूरत ही नहीं पड़ती; प्रत्ययस्वर से ही 'सोदर्यः' शब्द अन्तोदात्त हो जाता । परन्तु स॰कं॰ में 'सोदर' से यत् प्रत्यय निम्नलिखित सूत्रों से प्राप्त होता है -

समानोदरे शयिते यत् ॥४।४।१८०॥
उदरे वा ॥६।२।१२४॥ ये, समानस्य, सः, उत्तरपदे ।

इस दूसरे सूत्र पर दण्डनाथवृत्ति इस प्रकार है -
"उदरशब्दे यत्प्रत्ययान्त उत्तरपदे परतः समानशब्दस्य सादेशो वा भवति । समानोदरे शयितः सोदर्यः समानोदर्यः । 'समानोदरे शयित' इति यत् ।"

'तित् स्वरितम्' (स॰कं॰ ८।३।५९) से यत् प्रत्यय को स्वरित होता है, परन्तु यहाँ उदात्त इष्ट है । इसलिए 'सोदर्यः' की स्वरसिद्धि के लिए 'सोदराद् यत्' जैसे सूत्र की जरूरत है । स्पष्ट है कि गु॰सं॰ में पाणिनिसूत्र 'सोदराद्यः' (४।४।१०९) को जबरदस्ती थोपा गया है ।

अब हम भोजसूत्र 'अपूतक्रतोर्ङ्यामैत्' (८।३।१०२), अनु॰ - उदात्तः, पर विचार करते हैं । यह सूत्र निम्नलिखित पाणिनि सूत्रों पर आधारित है -

पूतक्रतोरै च ॥४।१।३६॥ अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।
वृषाकप्यग्नि-कुसित-कुसीदानामुदात्तः ॥४।१।३७॥ ऐ, अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।
मनोरौ वा ॥४।१।३८॥ उदात्तः, ऐ, अनुपसर्जनात्, स्त्रियाम्, ङीप् ।

इन पाणिनिसूत्रों में पूतक्रतु, वृषाकपि, अग्नि, कुसित, कुसीद एवं विकल्प से मनु को ऐकारादेश कहा है, किन्तु उदात्त ऐ 'पूतक्रतु' को छोड़कर बाकी सभी में कहा है । भोज ने स॰कं॰ के लौकिक भाग में उपर्युक्त पाणिनिसूत्रों के लिए निम्नलिखित सूत्र दिये हैं -

पूतक्रतु-वृषाकप्यग्नि-कुसित-कुसीदानामै च ॥३।४।८१॥
मनोरौ च वा ॥३।४।८२॥

'ऐ' को उदात्त बनाने के लिए भोज ने आठवें अध्याय में उपर्युक्त सूत्र दिया है जो सही है । गु॰सं॰ में इसे बदलकर 'पूतक्रतोर्ङ्यामैत्' (८।३।१०६) कर दिया गया हे, इसका सूत्रार्थ एवं व्याख्या निम्नलिखित हैं -

"(स्वरविषये) पूतक्रतुशब्दस्य ङीप्रत्यये परतः स्त्रियां य ऐकार अन्तादेश स उदात्तो भवति ।
उदा॰ - पूतक्रतायी, पूतक्रतायै । अहीं पूतक्रतु शब्दने पूतक्रतोः स्त्री अे अर्थमां ङीप् प्रत्यय लागतां पूतक्रतायी शब्द बने छे, अने अे प्रत्ययना स्थाने ऐकारादेश थतां पूतक्रतायै शब्द बने छे ।"

न केवल उपर्युक्त सूत्र के मामले में बल्कि 'पूतक्रतायै' की रूपसिद्धि में भी सम्पादक महोदय भ्रान्त प्रतीत होते हैं । 'पूतक्रतायै' शब्द 'पूतक्रता' से बनता है, न कि 'पूतक्रतायी' से । सूत्र में जो ऐकारादेश कहा गया है वह भोजसूत्र 'षष्ठयान्तस्य' (१।२।३०) से 'पूतक्रतु' के अन्तिम अल् 'उ' के स्थान में होता है, न कि प्रत्यय के ।

भोजसूत्र 'अनिविभ्यामन्तः' (८।४।२०४) को समझने के लिए पाणिनिसूत्र और भोजसूत्र को हम साथ-साथ रखते हैं ।
 
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पा॰ सू॰ स॰ कं॰ सू॰
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वनं समासे ॥६।२।१७८॥ वनं समासे ॥८।४।२०२॥
अन्तः ॥६।२।१७९॥ अन्तरश्च ॥८।४।२०३॥

अन्तश्च ॥६।२।१८०॥ अनिविभ्यामन्तः ॥८।४।२०४॥
न निविभ्याम् ॥६।२।१८१॥
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पाणिनिसूत्र ६।२।१८०-१८१ पर काशिकावृत्ति इस प्रकार है -

"अन्तश्च (६।२।१८०) - अन्तश्शब्दश्चोत्तरपदमुपसर्गादन्तोदात्तं भवति ।
प्रा॒न्तः । पर्यन्तः । बहुव्रीहिरयं प्रादिसमासो वा ।
न निविभ्याम् (६।२।१८१) - नि वि इत्येताभ्यामुत्तरोऽन्तश्शब्दो नान्तोदात्तो भवति । न्य॑न्तः । व्य॑न्तः ।"

भोज ने एक ही सूत्र ८।४।२०४ में पाणिनि के दोनों सूत्रों ६।२।१८०-१८१ को समा लिया है । डॉ॰ कंसारा के भोजसूत्र ८।४।२०४ को पाणिनिसूत्र ६।२।१८१ जैसा बना दिया है, जिससे पा॰ सू॰ ६।२।१८० का सङ्गत सूत्र गु॰ सं॰ से गायब हो गया है ।
भोजसूत्र 'अनिविभ्यामन्तः' का अर्थ है - 'नि' और 'वि' को छोड़कर अन्य उपसर्ग से उत्तरपद में आये अन्तशब्द को अन्तोदात्त होता है । उदा॰ - प्रा॒न्तः । प॒र्य॒न्तः ।
अनिविभ्यामिति किम् ? न्य॑न्तः । व्य॑न्तः ।

तालिकाः मद्रास संस्करण के शुद्ध स्वर सूत्र जो गुजराती
संस्करण में परिवर्त्तित एवम् अशुद्ध हैं ।
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ
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१. हियासामः ॥८।३।११॥ हिमारण्याभ्याम् ॥८।३।१३॥
२. असंख्याव्ययादेरूधसो ङीप् बहुव्रीहेः संख्यादेरूधसो ङीप् ॥८।३।१४॥
॥८।३।१२॥
३. स्त्रियां क्यपः ॥८।३।२६॥ व्रजयजोः स्त्रियां भावे क्यपः ॥८।३।२६॥
४. भवतष्ठञः ॥८।३।३२॥ भवतष्ठकः ॥८।३।३४॥
५. तसादिश्चेदमः ॥८।३।४४॥ शसादिश्चेदमः ॥८।३।४६॥
६. सोदराद्यत् ॥८।३।१०१॥ सोदराद् यः ॥८।३।१०५॥
७. अपूतक्रतोर्ङ्यामैत् ॥८।३।१०२॥ पूतक्रतोर्ङ्यामैत् ॥८।३।१०६॥
८. अनिविभ्यामन्तः ॥८।४।२०४॥ न निविभ्यामन्तः ॥८।४।२०८॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८, फरवरी १९९९, अगस्त १९९९ एवं जनवरी २०००.
2. कुछ लोग आमन्त के साथ गतिसमास न कर तरबन्त या तमबन्त के साथ समास करके बाद में आम् प्रत्यय का विधान करते हैं और कहते हैं कि सतिशिष्टस्वर से 'आम्' को उदात्त स्वर प्राप्त हो जाता है । इस स्थल पर हरदत्तमिश्र ने भाष्यकार का आशय स्पष्ट किया है और कहा है - "प्रशब्दस्यामन्तेन समासोऽङ्गीकर्त्तव्यः, न तरबन्तेन ।" देखें, स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका भी, पृष्ठ १८४.

(वेदवाणी, जून २०००, पृ॰ १२-१८, में प्रकाशित)

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