Thursday, April 3, 2008

3. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (१)

(स्वर प्रकरण)

Synopsis

Although most of the errors in the सूत्रपाठ of chapter 8 of the Madras edition of the सरस्वतीकण्ठाभरण (SKA) have been corrected in the Gujarati edition, many errors still remain in it. Besides, new errors have crept in due to rewording of not only the corrupted but also the correct sutras of the Madras edition. Some correct sutras of the manuscript have been forcibly replaced with the Panini sutras in both the editions of SKA without any care for the discussions and suggestions found in the Mahabhasya and the Kashika. The Concordance Panini-Bhoja prepared by the author has enabled him to correct some of the corrupted sutras. In this article, 12 such sutras dealing with the accent rules have been considered that are incorrect in both the editions (see Table 2 at the end).

पाणिनि-भोज सूत्रानुक्रमणिका (Concordance Panini-Bhoja) तैयार करते [1] हमने पाया कि गुजराती संस्करण (सन्दर्भ 1) में भी सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के बहुत सारे सूत्र अशुद्ध हैं । यद्यपि इस संस्करण में मद्रास संस्करण के अधिकतर भ्रष्ट पाठों को शुद्ध कर दिया गया है और आठवें अध्याय पर प्रथम बार वृत्ति लिखे जाने के कारण प्रशंसा के योग्य है, तथापि इस संस्करण में बहुत सारी ऐसी अशुद्धियाँ हैं, जिन्हें नजर-अन्दाज नहीं किया जा सकता । इसमें ऐसी नई अशुद्धियाँ भी हैं जो मद्रास संस्करण के न केवल भ्रष्ट बल्कि शुद्ध सूत्रपाठों को भी परिवर्तित करने के कारण उत्पन्न हुई हैं । कई हालतों में पाण्डुलिपि का सूत्रपाठ सही है, पर उन पाठों की जगह दोनों संस्करणों में पाणिनि-सूत्र थोप दिये गये हैं । ऐसा करते वक्त सम्पादक महोदय ने महाभाष्य और काशिका में की गई चर्चाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया । इस लेख में स्वर प्रकरण के 12 ऐसे सूत्रों पर विचार किया जायगा जिनका पाठ दोनों संस्करणों में अशुद्ध है । ये सूत्र निम्नलिखित हैं (सूत्रसंख्या मद्रास संस्करण की है) -
८।३।२४-२५, ८।४।२०-२१, ८।४।३-४, ८।३।२८-३१, ८।३।३३, ८।३।२१८।

सूत्रपाठ-तुलना के लिए पाण्डुलिपि की उस प्रतिलिपि [2] का भी उपयोग किया जायेगा जिसे डॉ॰ चिन्तामणि ने 'A' से निर्दिष्ट किया है (सन्दर्भ 2, PREFACE, पृष्ठ ix) ।

अब हम उपर्युक्त सूत्रों की शुद्धि पर विचार करते हैं । सबसे पहले हम सूत्र ८।३।२४-२५ पर चर्चा करेंगे जिनकी शुद्धि में गुजराती संस्करण के सम्पादक डॉ॰ कंसारा को भी क्लिष्ट कल्पनाएँ करनी पड़ीं, फिर भी वे सही पाठ की तह तक नहीं पहुँच पाये ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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तोदेयकौ च ॥८।३।२४॥ तौदादिको न ॥८।३।१८॥
वार्यदशैकादशिका ॥८।३।२५॥ गर्ह्ये कुसीदिक दशैकादशिकौ ॥८।४।२७॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “तोदेयकौ च वार्यदशैकादशिकाः ।“
मद्रास संस्करण के सूत्र ८।३।२४ पर डॉ॰ कंसारा ने अपना निम्नलिखित विचार दिया है (सन्दर्भ 1, पृष्ठ 404) -



"डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां वार्यदशैकादशिकाः (८।३।२५) अ‍ेवुं सूत्र छे । पाणिनिअ‍े प्रयच्छति गर्ह्यम् (४।४।३०) अने कुसीददशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ (४।४।३१) अ‍े बे सूत्रो रच्यां छे । अहीं कुसीद अने दशैकादश अ‍े बे शब्दोने निन्दनीय लेवड देवडना अर्थमां ष्ठन् अ‍े नित् अने ठच् अ‍े चित् प्रत्ययो लागवानो विधि छे । भोजदेव गर्ह्यम् (४।४।८९) दशैकादशकुसीदाभ्यां ष्ठन् (४।४।९१) अ‍ेम बे सूत्रोमां आ विषय समावी लीधो छे, पण तेमां ष्ठच् प्रत्ययनो विधि निर्देश्यो नथी । तेथी स्वरविधि वखते ठन् प्रत्यय लागतां ते नित् होवाथी आद्युदात्त स्वर थशे, पण चित् प्रत्ययनो विधि दर्शाण्यो न होवाथी अन्तोदात्त विधि नहीं थई शके । तेथी ज तेमणे वैदिक प्रयोगमां अन्तोदात्त स्वरनुं निपातन करवा आ सूत्र आठमा अध्यायमां लीधुं छे । पण अहीं लहियाअ‍े अणसमजने लीधे गर्ह्य ने बदले वार्य समजीने त्रण शब्दो थवाथी द्विवचन ने बदले बहुवचन करी कौ ने बदले काः अ‍ेम भ्रष्ट पाठ लखी दीधो जणाय छे । तेथी उपर मुजब पाठशुद्धि आवश्यक ठरी छे ।"

डॉ॰ कंसारा के उपर्युक्त मत से हम सहमत नहीं हैं । पाठशुद्धि के चक्कर में उन्होंने लगभग शुद्ध पाठ को भी अधिक भ्रष्ट कर दिया । हमारा तर्क इस प्रकार है –

पाणिनि-सूत्र "तूदी-शलातुर-वर्मती-कुचवाराड्ढक्-छण्-ढञ्-यकः" (४।३।९४) में 'तूदी' शब्द से ढक् प्रत्यय एवं 'कूचवार' शब्द से यक् प्रत्यय का विधान किया है । दोनों में प्रत्यय के कित् होने से 'तौदेय' और 'कौचवार्य' शब्द पाणिनि-सूत्र "कितः" (६।१।१६५) से अन्तोदात्त हैं । संगत (corresponding) भोजसूत्र इस प्रकार हैं -
तूदी वर्मतीभ्यां ढञ् ॥४।३।२१५॥
शण्डिक-शङ्ख-सट-शक-सर्वकेश-सर्वसेन-रह-बोध-कुचवारेभ्यो ञ्यः ॥४।३।२११॥
अर्थात् भोज ने 'तूदी' से ढञ् प्रत्यय एवं 'कुचवार' (sic) से ञ्य प्रत्यय कहा है । इन दोनों में प्रत्यय के ञित् होने से भोज्य-सूत्र "ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति" (८।३।७६) से 'तौदेय' और 'कौचवार्य' - ये दोनों शब्द आद्युदात्त होंगे किन्तु अन्तोदात्त इष्ट हैं । इसलिए स्वरसिद्धि के लिए अलग सूत्र की आवश्यकता है ।

पाणिनि सूत्र "कुसीद-दशैकादशात् ष्ठन्ष्ठचौ" (४।४।३१) से 'कुसीद' शब्द से ष्ठन् प्रत्यय एवं 'दशैकादश' से ष्ठच् प्रत्यय का विधान है । ष्ठन् प्रत्यय के नित् होने से पाणिनि सूत्र "ञ्नित्यादिर्नित्यम्" (६।१।१९७) से 'कुसीदिक' शब्द आद्युदात्त है और ष्ठच् प्रत्यय के चित् होने से पाणिनि सूत्र "चितः" (६।१।१६३) से 'दशैकादशिक' शब्द अन्तोदात्त । आश्चर्य की बात है कि गुजराती संस्करण में 'कुसीदिक' शब्द को 'दशैकादशिक' के साथ पाठ करके अन्तोदात्त कहा गया है, जबकि भोजसूत्र ऐसा नहीं कहता । सङ्गत भोजसूत्र इस प्रकार है -
दशैकादश-कुसीदाभ्यां ष्ठन् (४।४।९१)
'कुसीद' शब्द से ष्ठन् प्रत्यय का विधान पाणिनि सूत्र जैसा है । अतः स्वरसिद्धि के लिए इसके लिए अलग सूत्र की जरूरत नहीं । परन्तु, 'दशैकादश' से भी ष्ठन् प्रत्यय का विधान होने से 'दशैकादशिक' आद्युदात्त बन जाता है जबकि इष्ट है अन्तोदात्त । अतः 'दशैकादशिक' शब्द के अन्तोदात्तत्व के लिए अलग सूत्र की जरूरत है ।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह स्पष्ट है कि भोजसूत्र ८।३।२४-२५ का शूद्धपाठ इस प्रकार होगा-
तौदेय-कौचवार्य-दशैकादशिकाः ८।३।२४॥

'कौचवार्य' शब्द के तीन टुकड़े 'कौ', 'च' और 'वार्य' करके 'कौ' को 'तौदेय' के साथ कर देने और 'वार्य' को दूसरे सूत्र में मिला देने से किसी को भी भ्रान्ति हो सकती है । शब्दों के तोड़ने-जोड़ने से बहुत बड़ी भ्रान्ति का एक अच्छा उदाहरण काशिकाविवरणपञ्जिका (न्यास) में डॉ॰ भीमसेन शास्त्री ने अपनी थीसिस 'न्यासपर्यालोचन' में दिया है - देखें पाणिनि सूत्र 'आडजादीनाम्' (६।४।७२) पर न्यास के 'न तु' शब्दों की जगह 'ननु' के प्रयोग पर उनकी विस्तृत चर्चा (पृ॰ ३२०-३२३) ।

मद्रास संस्करण के सूत्र 'तोदेयकौ च' (८।३।२४) को गुजराती संस्करण में आठ सूत्र पहले घसकाकर 'तौदादिको न' करके 'कर्षात्वतो घञः' (गु॰सं॰ ८।३।१७) के ठीक बाद रखा गया है । पाणिनिसूत्र 'कर्षात्वतो घञोऽन्त उदात्तः' (६।१।१५९) पर निम्नलिखित काशिकावृत्ति पायी जाती है -

"कर्षतेर्धातोराकारवतश्च घञन्तस्यान्त उदात्तो भवति ।............ कर्ष इति विकृतनिर्देशः कृषते-र्निवृत्त्यर्थः । तौदादिकस्य घञन्तस्य कर्ष इत्याद्युदात्त एव भवति ।"

अर्थात् कृष् धातु के गुण सहित यानी 'कर्ष' ऐसे विकृत निर्देश से ही स्पष्ट है कि अन्तोदात्तत्व के लिए सिर्फ भौवादिक कृष् धातु विवक्षित है न कि तौदादिक । अतः 'तौदादिको न' ऐसे सूत्र की जरूरत ही नहीं है ।
अब हम भोजसूत्र ८।४।२०-२१ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अभूवाक् चिद्दिधिषु ॥८।४।२०॥ पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥
पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥ न भूवाक्चिद्दिधिषु ॥८।४।२२॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ - “अभूवाक्‌चिद्दिधिषु पत्यावैश्वर्ये “.

मद्रास संस्करण के उपर्युक्त सूत्रों पर डॉ॰ कंसारा ने निम्नलिखित तर्क दिया है (सन्दर्भ १, पृष्ठ ४०७) -
"डॉ॰ चिन्तामणिनी आवृत्तिमां अभूवाक्‌चिद्दिधिषु (८।४।२०) अने पत्यावैश्वर्ये (८।४।२१) अ‍ेम बे सूत्रो आप्या छे । पाणिनीय अष्टाध्यायीमां पत्यावैश्वर्ये (६।२।१८) अने न अभूवाक्‌चिद्दिधिषु (६।२।१९) अ‍े क्रमे बे सूत्रो जोवा मळे छे । आमांथी १९ मां सूत्रमां पूर्वना १८मा सूत्रनां बने पदोनी अनुवृत्ति आवे छे । अने १९ मुं सूत्र भू, वाक्, चित् अने दिधिषु अ‍े शब्दोनी बाबतमां प्रकृति स्वर नी निषेध करे छे । भोजदेवना पाठमां सूत्रोनो क्रम उलटो थई गयो छे तेथी आ प्रमाणेनी अनुवृत्ति न आववाथी अभीष्ट प्रयोगो सिद्ध थशे नहीं । तेथी भोजदेवना ग्रन्थमां ग्रन्थकार के लहियानी शरत-चूकथी उलट-सुलट थयेलो आ क्रम सुधारवानी पाठशुद्धि आवश्यक ठरी छे ।"


डॉ॰ कंसारा का यह कथन कि भोजदेव के पाठ में सूत्रों का क्रम उलटा हो गया है, इससे 'अभूवाक्चिद्दिधिषु' में 'पत्यावैश्वर्ये' की अनुवृत्ति नहीं आने से अभीष्ट प्रयोग सिद्ध नहीं होते, सही नहीं है । मद्रास संस्करण में अशुद्धि यह है कि उपर्युक्त सूत्र एकत्र लिखने के बजाय दो सूत्र लिखे गये हैं । हमारे मत में पाण्डुलिपि का पाठ सही है । भोजदेव की इस प्रकार की सूत्र शैली के कई उदाहरण स॰कं॰ के अन्य अध्यायों में भी प्राप्त होते हैं । कुछ ऐसे सूत्र दण्डनाथवृत्ति सहित नीचे दिये जाते हैं ।

(i) अविभक्तिशस्तसादौ तुस्माः ॥१।२।१०॥
दण्डनाथवृत्ति - हलन्त्यमित्यविशेषेण प्राप्तमित्वं तुस्मानामनेन नियम्यते । विभक्तिशस्तसादिभ्योऽन्यत्रैव तवर्ग सकार मकार इतो भवन्ति । 'अचो यत्' । पेयम् । ...............
(ii) अमत्यर्थाद्यधिकरणे निष्ठायाम् ॥३।१।२९६॥
दण्डनाथवृत्ति - मतिबुद्धिपूजार्थेभ्योऽधिकरणे च या निष्ठा ततोऽन्यस्यां प्रयुज्यमानायां कर्मणि षष्ठी विभक्तिर्न भवति । भुक्त ओदनो देवदत्तेन । गतो ग्रामं देवदत्तः ।..................
(iii) अजागृणिश्वीनां सिचि परस्मैपदेषु ॥७।१।३॥
दण्डनाथवृत्ति - परस्मैपदपरे सिचि परत इगन्तायाः जागृ-णि-श्वि-वर्जितायाः प्रकृतेर्वृद्धिर्भवति अन्तरतम्यात् । अकार्षीत् । अचैषीत् । .............. अजागृणिश्वीनामिति किम् । अजागरीत् । ............
(iv) अस्त्रीशूद्रप्रत्यभिवादे नामगोत्रयोः ॥७।३।१३५॥
दण्डनाथवृत्ति - यदभिवाद्यमानो गुरुः कुशलानुयोगेनाशिषा वा युक्तं वाक्यं प्रयुङ्क्ते स प्रत्यभिवादः । तस्मिन्नस्त्रीशूद्रविषये नाम्नो गोत्रस्य च सम्बन्धिनो वाक्यस्य टेः प्लुतो भवति । अभिवादये देवदत्तोऽहम् । ........... स्त्रीशूद्रपर्युदासः किम् ? ............. ।

अब हम भोजसूत्र (८।४।३-४) की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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द्वितीया तृतीया तुल्यार्थोपमान- तत्पुरुषे द्वितीया तृतीया तुल्यार्थोपमान-
कृत्या नञ् ॥८।४।३॥ कृत्याः ॥८।४।३॥
कुप्रादयस्तत्पुरुषे ॥८।४।४॥ अव्यये नञ्कुचादयः ॥८।४।४॥
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स॰कं॰ के ये सूत्र पाणिनि के सूत्र "तत्पुरुषे तुल्यार्थ-तृतीया-सप्तम्युपमानाव्यय-द्वितीया-कृत्याः" (६।२।२) पर आधारित हैं । पाणिनि के इस सूत्र पर निम्नलिखित वार्त्तिक है -
अव्यये नञ्कुनिपातानाम् ॥३॥

पाणिनि मुनि ने तत्पुरुष समास में अव्यय को प्रकृति स्वर कहा है । सामान्य रूप से अव्यय कहने से अतिव्याप्ति दोष आता है, क्योंकि पाणिनि सूत्र स्वरादिनिपातमव्ययम्, तद्धितश्चासर्वविभक्तिः, कृन्मेजन्तः, क्त्वा-तोसुन्-कसुनः, अव्ययीभावश्च (१।१।३७-४१) से अव्यय की गिनती में ये सभी आयेंगे । मगर 'स्नात्वाकालकः' वगैरह में इष्ट नहीं है । इस अतिव्याप्ति को दूर करने के लिए कात्यायन मुनि ने उपर्युक्त वार्त्तिक पढ़ा है । इससे प्रकृतिस्वर के लिए अव्यय में सिर्फ 'नञ्', 'कु' और निपातों का ही ग्रहण होता है । निपात अव्ययों की संख्या भी बहुत बड़ी है । पाणिनिसूत्र प्राग्रीश्वरान्निपाताः, चादयोऽसत्त्वे, प्रादयः, .............. अधिरीश्वरे (१।४।५६-९७) में निपातों की गिनती की गई है । इसी में चादिगण और प्रादिगण भी पढ़े गये हैं । न्यासकार पाणिनिसूत्र ६।२।२ पर लिखते हैं (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९१) -
"नञ्कुशब्दयोः 'चादयोऽसत्त्वे' इति चादिषु पाठान्निपातत्त्वम्, निरतिशब्दयोस्तु 'प्रादयः' इति, तयोः प्रादिषु पाठात् ।"

पदमञ्जरीकार हरदत्तमिश्र का कहना है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९२) -
"कुग्रहणं तु चादिषु पाठाभावात्, पठितव्यस्त्वसौ, अन्यथाऽव्ययसंज्ञा न स्यात्; स्वरादिष्वपि पाठाभावात् ।"
डॉ॰ सुमित्र मंगेश कत्रे द्वारा सम्पादित "Dictionary of Panini: Ganapatha" में 'कु' का स्वरादिगण में पाठ मिलता है ।
अब हम कात्यायन मुनि के उपर्युक्त वार्त्तिक पर आते हैं । यहाँ एक समस्या यह उपस्थित होती है कि अगर 'नञ्' और 'कु' का पाठ चादिगण में किया ही गया तो ये दोनों निपात हैं और अगर ये दोनों निपात हैं तो 'नञ्' और 'कु' के अलग से पाठ करने की जरूरत ही क्या है, सीधे 'निपातानाम्' क्यों नहीं कहा गया ? [3] इस समस्या का कोई उल्लेख न्यास में नहीं मिलता, पर पदमञ्जरी में इसका उल्लेख मिलता है (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २९१) –

"निपातत्वादेव सिद्धे नञ्ग्रहणम् अकरणिरित्यादौ परस्यापि कृत्स्वरस्य बाधनार्थम् । तथा चाव्यथीत्वत्रापि कृता सह निर्दिष्टो यत्र नञ्, तत्रापि नञ एवं स्वरो भवति, तथा विभक्तिस्वरान्नञ् स्वरो बलीयान् भवति ।"

परन्तु पदमञ्जरीकार हरदत्तमिश्र के इस समाधान में कोई दम नहीं है । अगर यह मान लिया जाय कि निपातत्व से ही सिद्ध होने पर नञ् का ग्रहण इसलिए किया गया है ताकि 'अकरणिर्ह ते वृषल' इत्यादि में कृत्स्वर का बोध हो जाए; 'अव्यथी' - इस शब्द में भी, जहाँ कृत् के साथ निर्दिष्ट नञ् है, नञ् स्वर ही हो जाये और विभक्ति स्वर से नञ् स्वर बलवान् हो जाय तो दूसरी समस्या यह खड़ी होती है कि कात्यायन मुनि ने पाणिनिसूत्र "अनुदात्तं पदमेकवर्जम्" (६।१।१५८) पर निम्नलिखित वार्त्तिकों का पाठ क्यों किया ?

विभक्तिस्वरान्नञ्स्वरो बलीयान् ॥१३॥
यच्चोपपदं कृति नञ् ॥१५॥
सहनिर्दिष्टस्य च ॥१६॥

महाभाष्य में भी इस समस्या का कोई समाधान नहीं प्राप्त होता । महाभाष्य के टीकाकार कैयट उपाध्याय अपनी प्रदीप टीका में लिखते हैं (सन्दर्भ ४, भाग ६) -

"नञ्कुनिपातानामिति । निपातत्वादेव सिद्धे नञ्ग्रहणं विस्पष्टार्थम्, अकरणिरित्यादौ कृत्स्वरादि बाधनार्थं वा । तेन 'यच्चोपपदं कृति नञ् तस्य च स्वरो बलीयान् भवति' 'सहनिर्दिष्टस्य च नञ्स्वरो बलीयान् भवती' ति न वक्तव्यं भवति ।"

इस पर अन्नंभट्ट अपनी उद्योतनम् नामक व्याख्या में लिखते हैं (सन्दर्भ ५, पृष्ठ १६७) - "अस्मिन् वार्त्तिके नञ्ग्रहणेनैव सिद्धे वार्त्तिकद्वयं न कर्त्तव्यमित्याह - तेनेति ।"

अर्थात् कैयट और अन्नंभट्ट के मत में कात्यायन के पूर्वोक्त वार्त्तिक १५-१६ व्यर्थ हैं । हमारे मत में ये वार्त्तिक व्यर्थ नहीं हैं । हमें उपर्युक्त समस्या का निम्नलिखित समाधान प्रतीत होता है -

'नञ्' का चादिगण में पाठ है । अतः पाणिनिसूत्र चादयोऽसत्त्वे (१।४।५७) से यह निपात है । निपातत्व से ही सिद्ध होने पर आचार्य (कात्यायन) द्वारा नञ् ग्रहण अन्य चादियों की निवृत्ति के लिए है ।


निपातों में चादिगण के बाद प्रादिगण का पाठ है । अतः अगर उपर्युक्त वार्त्तिक को कुछ इस तरह पढ़ा जाय - 'अव्यये नञ्कुप्रादीनाम्' तो कोई द्विविधा नहीं रहेगी और महाभाष्य, काशिका वगैरह में अव्यय में तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर के लिए जितने भी उदाहरण मिलते हैं, सभी की सिद्धि इससे हो जाती है । लगता है, भोजदेव ने इस समस्या का पूरा ध्यान रखा था, इसलिए अपने सूत्र में 'नञ्कुनिपाताः' के बदले 'नञ्कुप्रादयः' का पाठ किया है ।

उपर्युक्त विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भोजसूत्र ८।४।३-४ का शुद्ध पाठ इस प्रकार होगा - "द्वितीया-तृतीया-तुल्यार्थोपमान-कृत्य-नञ्-कु-प्रादयस्तत्पुरुषे ।" कात्यायन मुनि ने 'अव्यय' शब्द के प्रयोग से अतिव्याप्ति दोष दूर कर 'निपात' तक सीमित किया और 'निपात' में भी अतिव्याप्ति दोष देखकर भोज ने इसे 'प्रादिगण' तक सीमित कर दिया ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।२८ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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उत्यादीनामज्ञप्ते ॥८।३।२८॥ ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तीनाम् ॥८।३।३०॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “ऊत्यादीनामज्ञप्ते ।“
यह सूत्र अष्टाध्यायी के निम्नलिखित सूत्र पर आधारित है -
ऊति-यूति-जूति-साति-हेति-कीर्तयश्च ॥३।३।९७॥

ऊत्यादि अष्टाध्यायी और स॰कं॰ दोनों में क्तिन् प्रत्ययान्त निपातित किये गये हैं । स॰कं॰ के दूसरे अध्याय में इस सूत्र का पाठ इस प्रकार है -
ऊति-यूति-जूति-साति[4]-हेति-ज्ञप्ति-कीर्तयश्च ॥२।४।१२४॥

परन्तु अष्टाध्यायी में "मन्त्रे वृषेष-पच-मन-विद-भू-वी-रा उदात्तः" (३।३।९६) से उदात्त की अनुवृत्ति आने से ऊत्यादि अन्तोदात्त निपातित हैं अन्यथा “ञ्नित्यादिर्नित्यम्” (पा॰ ६।१।१९७) से ये शब्द आद्युदात्त होते । भोजदेव ने स्वर प्रकरण का अनुशासन आठवें अध्याय में किया है । इसलिए ऊत्यादि का पाठ आठवें अध्याय में भी करना पड़ा । परन्तु, ऊत्यादि में स॰कं॰ सूत्र में 'ज्ञप्ति' शब्द को भी पढ़ा गया है । यह शब्द भी अन्तोदात्त न हो जाय, इसलिए इसका पर्युदास करना भी जरूरी है । ऊत्यादि शब्दों का पाठ दूसरे अध्याय में कर दिये जाने के कारण आठवें अध्याय में सभी शब्दों का पाठ करना लाघव के ख्याल से उचित नहीं है । अतः उपर्युक्त भोजसूत्र का शुद्ध पाठ इस प्रकार होगा -
ऊत्यादीनामज्ञप्तेः ॥८।३।२८॥

यहाँ पर प्रश्न उपस्थित होता है कि आखिर डॉ॰ कंसारा ने ऊत्यादि शब्दों का पूरा पाठ क्यों किया ? शायद वे स॰कं॰ के आठवें अध्याय पर आधारित वैदिक व्याकरण को एक स्वतन्त्र कृति के रूप में देखना चाहते थे जैसा कि उनकी प्रस्तावना से आभास मिलता है (सन्दर्भ १, प्रस्तावना का अन्तिम पृष्ठ) -
"आशा छे के अमारा आ प्रयासथी पाणिनीय वैदिकी प्रक्रिया अने स्वरप्रक्रियाना अभ्यासनी आज सुधी थती आवेली उपेक्षानो हवे अन्त आवशे अने वैदिक व्याकरणना गुजराती भाषी साचा जिज्ञासुओ माटे आ ग्रंथना परिशिष्ट १ मां आपेलां मात्र आठसो ओगणत्रीस सूत्रो कण्ठस्थ करीने तेमने सांगोपांग समजी लईने वैदिक व्याकरणना पारंगत थवानो सहेलो उपाय सुलभ बनशे ।"

अगर 'ऊत्यादीनामज्ञप्तेः' ऐसा पाठ किया जाय तो मात्र ८२९ सूत्रों से काम नहीं चलेगा, क्योंकि ऊत्यादि में किन-किन शब्दों का पाठ है, यह जानने के लिए दूसरे अध्याय का सहारा लेना पड़ेगा । परन्तु इतने से ही अन्य अध्यायों से छुटकारा नहीं मिल सकता । मद्रास संस्करण के भ्रष्ट सूत्र "संबुध्यादिषु गुणादयः प्राग्लिटः नित्यमुरुत्" (८।२।९२) को शुद्ध कर उन्होंने निम्नलिखित पाठ दिये हैं -
सम्बुद्ध्यादिषु गुणादयो ह्रस्वस्य प्राग्लिटः ॥८।२।९४॥; नित्यमुर्ऋत् ॥८।२।९५॥

'सम्बुद्ध्यादि', 'गुणादि' और 'प्राग्लिटः' - ये शब्द अन्य अनेक सूत्रों की ओर ईशारा करते हैं और वे हैं सप्तम अध्याय के सूत्र "सम्बुद्धौ च" (७।२।४१) से लेकर "ऋतो ङिसुटोर्गुणः" (७।२।६१) तक, क्योंकि इसके बाद का सूत्र है - "संयोगादेर्लिटि" (७।२।६२) । भोजसूत्र ८।२।९२ अष्टाध्यायी के सूत्र "जसि च" (७।३।१०९) पर कात्यायन मुनि के निम्नलिखित वार्त्तिक पर आधारित है -
"जसादिषु च्छन्दसि वा वचनं प्राङ् णौ चङ्युपधायाः ॥१॥"

भोजसूत्र ८।२।९२ में 'वा' की अनुवृत्ति सूत्र 'अभ्यस्तस्यापिति गुणो वा' (८।२।८८) से आती है ।

अब हम भोजसूत्र (८।३।३३) की शुद्धि पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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मातृदघ्न द्वयसानाम् ॥८।३।३३॥ मात्रदघ्नज्द्वयसचाम् ॥८।३।३५॥
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गुजराती संस्करण में निम्नलिखित वृत्ति पायी जाती है –
"(स्वरविषये) मात्रच्, दघ्नच्, द्वयसच् इत्येतेषां प्रत्ययान्तानां शब्दानामन्त उदात्तो भवति ।"

अगर स॰कं॰ में मात्रच्, दघ्नच् एवं द्वयसच् - इन तीन चित् प्रत्ययों का पाठ होता तो आठवें अध्याय में इस पाठ की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि "चितः" (८।३।२९, गु॰कं॰ ८।३।३१) से ही अन्तोदात्तत्व सिद्ध हो जाता । अगर हम पाणिनिसूत्र ४।१।१५ की तुलना स॰कं॰ के सङ्गत सूत्रों से करते हैं तो मामला बिलकुल साफ हो जाता है ।


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पाणिनिसूत्र स॰कं॰ सूत्र
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टिड्-ढाणञ-द्वयसज्दघ्नञ्मात्रच्- टिड्-ढाणञ्-ठक्-ठञ्-नञ्-स्नञ्-कञ्-
तयप्-ठक्-ठञ्-कञ्-क्वरप्- क्वरप्-ख्युनः ॥३।४।३१॥
ख्युनाम ॥४।१।१५॥ मानान्मात्रट् ॥५।२।५९॥
ऊर्ध्वं दघ्नट् द्वयसट् च ॥५।२।६२॥
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पाणिनि ने टित् आदि प्रत्ययान्त अदन्त अनुपसर्जन प्रातिपादिकों से स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय का विधान किया है । चूँकि द्वयसच्, दघ्नच् एवं मात्रच् - ये चित् प्रत्यय हैं, मगर इन प्रत्ययों के बाद भी स्त्रीलिङ्ग में ङीप् प्रत्यय इष्ट हैं, इसलिए इन तीनों का टित् आदि प्रत्ययों में पाठ किया गया है । स॰कं॰ में यह बात नहीं है । भोज ने मात्रट्, दघ्नट् एवं द्वयसट् - अर्थात् टित् प्रत्यय का विधान किया है । टित् होने से सूत्र ३।४।३१ में इन्हें पढ़ने की जरूरत नहीं, टित् होने के कारण ऐसे ही ङीप् प्रत्यय हो जायगा । परन्तु स्वरसिद्धि नहीं होगी, क्योंकि भोजसूत्र "प्रत्ययस्यादिः" (८।३।१३) से मात्रट्, दघ्नट् एवं द्वयसट् आद्युदात्त होंगे, जबकि इष्ट है इनका अन्तोदात्त होना । अतः स्वर की सिद्धि के लिए अलग से स्वरविधायक सूत्र की जरूरत है । मद्रास संस्करण के स॰कं॰ सूत्र से स्पष्ट है कि भोज ने इस सूत्र में प्रत्ययों को अनुबन्ध रहित पढ़ा है । यहाँ अनुबन्धसहित पढ़ने की जरूरत भी नहीं है । पाण्डुलिपि एवं मद्रास संस्करण में थोड़ी-सी अशुद्धि है जहाँ 'मात्र' के बदले 'मातृ' पाठ मिलता है । उपर्युक्त विवेचन के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इस भोजसूत्र का शुद्ध पाठ निम्नलिखित होगा –
मात्र-दघ्न-द्वयसानाम् ॥८।३।३३॥

अब हम स॰कं॰ के ऐसे चार सूत्रों पर विचार करते हैं जिनका पाठ पाण्डुलिपि में सही है, परन्तु मद्रास संस्करण और गुजराती संस्करण के सम्पादकों ने महाभाष्य और काशिका में की गई चर्चाओं का बिना कुछ ख्याल किये अष्टाध्यायी का सूत्र थोप दिया । भोज ने स॰कं॰ की सूत्ररचना के समय पूर्वाचार्यों के सभी सुझावों का ख्याल रखा । एक-एक करके इन सूत्रों पर विचार करें ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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चितः ॥८।३।२९॥ चितः ॥८।३।३१॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “चित्वतः ।“
यह भोजसूत्र अष्टाध्यायी के सूत्र "चितः" (६।१।१६३) पर आधारित है जिस पर कात्यायन मुनि का निम्नलिखित वार्त्तिक प्राप्त होता है -
चितः सप्रकृतेर्बह्वकजर्थम् ॥१॥
काशिकाकार अपनी वृत्ति में लिखते हैं (सन्दर्भ ३, पृष्ठ २३१) -

"चिति प्रत्यये प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्यान्त उदात्त इष्यते । बहुपटवः उच्चकैः ॥" अर्थात् चित् प्रत्यय में प्रकृति और प्रत्यय समुदाय का अन्त उदात्त इष्ट है (केवल प्रत्यय का नहीं) । अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः (पा॰ ५।३।७१) से 'उच्चकैः' में अकच् चित् प्रत्यय होता है जो 'उच्चैः' की टि 'ऐः' के पहले यानी 'उच्च्+अक+ऐः' इस प्रकार आता है । विभाषा सुपो बहुच् परस्तात्तु (पा॰ ५।३।६८) से बहुच् चित् प्रत्यय पूर्व में लगकर 'बहुपटवः' शब्द सिद्ध होता है । इसमें प्रकृति प्रत्यय-समुदाय अन्तोदात्त हो जाता है ।
भाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने उपर्युक्त वार्त्तिक का खण्डन किया है । अपने भाष्य में वे लिखते हैं –

"चितः सप्रकृतेरिति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् ? बह्वकजर्थम् । बह्वर्थमकजर्थं च बह्वर्थं तावत् - बहुभुक्तम् । बहुकृतम् । अकजर्थम् - सर्वकैः । विश्वकैः । उच्चकैः । नीचकैः ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् । मतुब्लोपोऽत्र द्रष्टव्यः । तद्यथा । पुष्पका एषां पुष्पकाः । कालका एषां कालकाः । अथवाऽकारो मत्वर्थीयः । तद्यथा - तुन्दः घाट इति । पूर्वसूत्रनिर्देशश्च । चित्वान् चित इति ॥" भाष्यकार के मतानुसार 'चितः' इसमें मतुप् का लोप समझना चाहिए - चित् अस्य अस्ति इति चित्वान् [5] समुदायः, तस्य=चित्वतः । मतुप् का लोप होने से - चित् अस्य अस्ति इति चित् समुदायः, तस्य=चितः । अर्थात् चितः=चित्वतः ।

अतः भाष्यकार के मत में 'चितः' सूत्र का अर्थ होगा - "चित् है जिस समुदित शब्द में उस शब्द को अन्तोदात्त होता है ।" भोज ने मतुप् लोप सम्बन्धी आवश्यक माथापच्ची से बचने के लिए स्पष्ट रूप से मतुप् सहित चित् का पाठ किया है । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।

अगर भाष्यकार के दूसरे समाधान के अनुसारः 'चितः' को मत्वर्थीय अकार प्रत्ययान्त [अर्श आदिभ्योऽच्' (पा॰ ५।२।१२७) से अच्प्रत्ययान्त] माना जाय तो षष्ठी के अर्थ में प्रथमा का प्रयोग स्वीकार करना पड़ेगा जैसा कि भाष्यकार ने कहा है- पूर्वसूत्रनिर्देशश्च अर्थात् पाणिनि से पूर्व व्याकरणों में कार्यों का प्रथमान्त निर्देश होता था वैसे ही यहाँ समझना चाहिए । परन्तु भोज ने एकरूपता (uniformity) के ख्याल से भाष्यकार के पहले समाधान का ही आश्रयण कर 'चित्वतः' ऐसा सूत्र बनाया है ।

अब हम भोजसूत्र ८।३।३०-३१ पर विचार करते हैं ।


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म॰सं॰ में सूत्रपाठ गु॰सं॰ में सूत्रपाठ पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ
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तद्धितस्य ॥८।३।३०॥ तद्धितस्य ॥८।३।३२॥ तद्धितस्य कितः ।
कितः ॥८।३।३१॥ कितः ॥८।३।३३॥
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अष्टाध्यायी के अद्यतन सूत्र 'तद्धितस्य' (६।१।१६५) एवं 'कितः' (६।१।१६६) का मूल पाठ 'तद्धितस्य कितः' ही था, अन्यथा भाष्यकार योगविभाग की बात ही नहीं उठाते और यह योगविभाग केवल एक प्रत्यय 'च्फञ्' की स्वरसिद्धि के लिए करना पड़ा । 'गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ्' (पा॰ ४।१।९८) में च्फञ् प्रत्यय का विधान है । च्फञ् के चित् एवं ञित् दोनो होने से समस्या खड़ी होती है कि 'चितः' (पा॰ ६।१।१६३) से अन्तोदात्त हो या 'ञ्नित्यादिर्नित्यम्' (पा॰ ६।१।१९७) से आद्युदात्त । 'विप्रतिषेधे पर कार्यम्' (पा॰ १।४।२) से आद्युदात्त होगा, परन्तु अन्तोदात्त इष्ट है । अतः स्वरसिद्धि के लिए भाष्यकार ने योगविभाग कर 'तद्धितस्य कितः' को दो सूत्रों में तोड़ दिया । देखे पाणिनि सूत्र ४।१।९८ पर भाष्य -
"एवं तर्हि स्वरे योगविभागः करिष्यते । इदमस्ति । चितः (६।१।१६३) । चितोऽन्त उदात्तो भवति । ततस्तद्धितस्य । तद्धितस्य च चितोऽन्त उदात्तो भवतीति । किमर्थमिदम् ? परस्वाञ्ञ्नितीत्याद्युदात्तत्वं प्राप्नोति तद्‌बाधनार्थम् । ततः कितः । कितस्तद्धितस्यान्त उदात्तो भवति ।"

इसके आगे वे अन्यथासिद्धि के लिए च्फञ् को छोड़ अन्य प्रत्यय की चर्चा करते हुए लिखते हैं -
"इह केचिद् द्व्येकयोः फ्यञं विदधति बहुषु च फकं केचिच्च्फञन्ताञ्ञम् ।.................. सति ही तस्मिन्द्व्येकयोपरि फ्यञि सति बहुषु च फकि न दोषो भवति । तत्र कौञ्जायनानामपत्यं माणवक इति विगृह्य कुञ्जशब्दाद् द्व्येकयोरुत्पत्तिर्भविष्यति । कौञ्जायन्यः कौञ्जायन्यौ । कौञ्जायन्यस्यापत्यं बहवो माणवका इति विगृह्य कुञ्जशब्दाद् बहुषूत्पत्तिर्भविष्यति । कौञ्जायना इति ।"

भाष्यकार के अनुसार अगर गोत्र से अपत्य विषय में च्फञ् और ञ्य के बदले एकवचन और द्विवचन में फ्यञ् एवं (स्त्रीलिङ्ग में और) बहुवचन में फक् प्रत्यय का विधान किया जाय तो दोष नहीं होता । उपर्युक्त विषय में 'कुञ्ज' शब्द से 'कौञ्जायन्यः', 'कौञ्जायनाः', 'कौञ्जायनी स्त्री' - इन शब्दों की सिद्धि के लिए अष्टाध्यायी एवं स॰कं॰ के सूत्र तालिका १ में दिये गये हैं । इस तालिका से स्पष्ट है कि च्फञ्, ञ्य के बदले फ्यञ्, फक् का विधान करने से दोष नहीं होता ।

स्पष्ट है कि जब भोज ने च्फञ् प्रत्यय का विधान ही नहीं किया है, तो 'तद्धितस्य कितः' - इस सूत्र के योगविभाग का सवाल ही पैदा नहीं होता । अतः पाण्डुलिपि का पाठ सही है ।
अब हम भोजसूत्र ८।३।२१८ पर विचार करते हैं ।


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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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आहो उताहो चानन्तरं वा आहो उताहो चानन्तरम् ॥८।३।२२१॥
॥८।३।२१८॥
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डॉ॰ चिन्तामणि फुटनोट संख्या ३ में लिखते हैं -
"The original reads सान्तरं and that as a separate sutra."

अर्थात् पाण्डुलिपि का पाठ इस प्रकार होना चाहिए – “आहो उताहो च । सान्तरं वा ।“

परन्तु पाण्डुलिपि A में 'आहो' के स्थान पर 'आतो' पाठ है जो स्पष्टतः भ्रष्ट है । डॉ॰ चिन्तामणि ने मूल ताडपत्र (palm leaf) पाण्डुलिपि की एक और प्रतिलिपि के बारे में लिखा है, जो उन्हें उनके मित्र श्री रामकृष्ण कवि से मिली थी (सन्दर्भ २, PREFACE, p. ix, अन्तिम पाराग्राफ) । शायद उसमें 'आहो' पाठ ही हो । डॉ॰ चिन्तामणि ने इसके बारे में कोई टिप्पणी नहीं दी है ।

उपर्युक्त भोजसूत्र पाणिनिसूत्र "आहो उताहो चानन्तरम्" (८।१।४९) एवं "शेषे विभाषा" (८।१।५०) पर आधारित हैं । पाणिनिसूत्र "जात्वपूर्वम्" (८।१।४७) पर भाष्यकार की निम्नलिखित उक्ति पर गौर करें -
"यत्तर्ह्याहो उताहो चानन्तरम् [४९] इत्यनन्तर ग्रहणं करोति । एतस्याप्यस्ति वचने प्रयोजनम् । किम् ? शेषप्रक्लृप्त्यर्थमेतत्स्यात् । शेषे विभाषा [५०] कश्च शेषः ? सान्तरं शेष इति ॥"

भोज ने पाणिनिसूत्र "शेषे विभाषा" (८।१।५०) के समानान्तर (parallel) सूत्र "शेषे वा" के बदले शेष क्या बचता है, यह भाष्यकार के उपर्युक्त वचन से उसका सीधा प्रयोग कर "सान्तरं वा" का विधान किया है । सान्तर वचन अगले सूत्र में होने से "आहो उताहो च" में 'अनन्तर' कहने की जरूरत नहीं है । अगर 'सान्तरं वा' इस पाठ को छोड़ दिया जाय तो पाणिनिसूत्र 'शेषे विभाषा' का सङ्गत सूत्र स॰कं॰ में रहेगा ही नहीं । अतः पाण्डुलिपि का पाठ ठीक है ।

सन्दर्भ –
1. "सरस्वतीकण्ठाभरण-वैदिकव्याकरणम्" - सम्पादक-अनुवादक-विवरणकार डॉ॰ नारायण म॰ कंसारा, राष्ट्रिय वेदविद्या प्रतिष्ठान एवं मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, १९९२ ई॰ ।
2. "सरस्वतीकण्ठाभरणम्" - सम्पादक ति॰ रा॰ चिन्तामणि, मद्रपुरीय विश्वविद्यालय, मद्रास, १९३७ ई॰ ।
3. "काशिका (न्यास-पदमञ्जरी-भावबोधिनी-सहिता)" - सम्पादक डॉ॰ जयशङ्कर लाल त्रिपाठी, तारा बुक एजेंसी, वाराणसी, सप्तमो भागः [६।१-२ अध्यायात्मकः], १९९० ई॰ ।
4. "व्याकरणमहाभाष्यम् (प्रदीपोद्योतविमर्शैः समलङ्कृतम्)", खण्ड ६ - सम्पादक पं॰ वेदव्रत वर्णी, गुरुकुल झज्जर, रोहतक, १९६४ ई॰ ।
5. "महाभाष्यप्रदीपव्याख्यानानि", खण्ड IX - सम्पादक एम॰ एस॰ नरसिंहाचार्य, Institut Francais d' Indologie, पांडिचेरी १९८२ ई॰ ।



तालिका १

गोत्रापत्य अर्थ में 'कौञ्जायन्यः' आदि शब्दों की सिद्धि के लिए
अष्टाध्यायी एवं स॰कं॰ के सूत्र **
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शब्द अष्टाध्यायी सूत्र स॰कं॰ सूत्र
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कौञ्जायन्यः गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् कुञ्ज-ब्रघ्न-..... विशाभ्यः
(४।१।९८), तस्यापत्यम् फ्यञ् (४।१।६९), पौत्रादौ,
तस्यापत्यम्

कौञ्जायन्यौ आयनेयीनीयियः फ-ढ- आयनेयीनीयियः फ-ढ-ख-छ-
ख-छ-घां प्रत्ययादीनाम् घां तद्धितादीनाम् (६।४।२)
(७।१।२)
व्रात-च्फञोरस्त्रियाम् -----------
(५।३।११३), ञ्यः

यस्येति च (६।४।१४८), यस्यायुसि (६।३।१५५), लोपः
लोपः

सतिशिष्टस्वरबलीयस्त्वं स्वरः सतिशिष्टो
च (६।१।१५८, वा॰ ९ बलीयानविकरणस्य (८।३।१)

ञ्नित्यादिर्नित्यम् ञ्नित्यादिर्नित्यमलुमति
(६।१।१९७), उदात्तः (८।३।७६), उदात्तः

कौञ्जायनाः गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् स्त्री-बहुषु फक् (४।१।७०),
(४।१।९८), तस्यापत्यम् पौत्रादौ, तस्यापत्यम्

व्रात-च्फञोरस्त्रियाम् -----------
(५।३।११३)

ञ्यादयस्तद्राजाः (५।३।११९) -----------

तद्राजस्य बहुषु तेनैवास्त्रियाम् -----------
(२।४।६२) लुक्

तद्धितस्य (६।१।१६४), तद्धितस्य कितः (८।३।३०),
चितः, अन्त उदात्तः अन्तः, उदात्तः

कौञ्जायनी गोत्रे कुञ्जादिभ्यश्च्फञ् स्त्री-बहुषु फक् (४।१।७०),
(स्त्री) (४।१।९८) पौत्रादौ, तस्यापत्यम्

जातेरस्त्रीविषयादयोपधात् अस्त्रीविषयादयोपधाज्जातेः
(४।१।६३), ङीष् (४।१।६३), ङीष्

सतिशिष्टस्वरबलीयस्त्वं स्वरः सतिशिष्टो
च (६।१।५८) बलीयानविकरणस्य (८।३।१)

आद्युदात्तश्च (३।१।३) प्रत्ययस्यादिः (८।३।१३) उदात्तः
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तालिका २
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
(पा॰पा॰स॰ = पाण्डुलिपि का पाठ सही है)

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क्रम म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्ध पाठ
सं॰
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१. तोदेयकौ च तौदादिको न तौदेय-कौचवार्य-
॥८।३।२४॥ ॥८।३।१८॥ दशैकादशिकाः ।

२. वार्यदशैकादशिकाः गर्ह्ये कुसीदिकदशैका-
॥८।३।२५॥ दशिकौ ॥८।३।२७॥


३. उत्यादीनामज्ञप्ते ऊति-यूति-जूति- ऊत्यादीनामज्ञप्तेः ।
॥८।३।२८॥ साति-हेति-कीर्तीनाम्
॥८।३।३०॥

४. चितः ॥८।३।२९॥ चितः ॥८।३।३१॥ चित्वतः । (पा॰पा॰स॰)


५. तद्धितस्य ॥८।३।३०॥ तद्धितस्य ॥८।३।३२॥ तद्धितस्य कितः ।
६. कितः ॥८।३।३१॥ कितः ॥८।३।३३॥ (पा॰पा॰स॰)


७. मातृदघ्नद्वयसानाम् मात्रदघ्नज्द्वयसचाम् मात्र-दघ्न-द्वयसानाम् ।
॥८।३।३३॥ ॥८।३।३५॥

८. आहो उताहो चानन्तरं आहो उताहो चानन्तरम् आहो उताहो च ।
वा ॥८।३।१८॥ ॥८।३।२२१॥ सान्तरं वा ।
(पा॰पा॰स॰)



९. द्वितीया-तृतीया-तुल्या- तत्पुरुषे द्वितीया- द्वितीया-तृतीया-
र्थोपमान-कृत्या नञ् तृतीया-तुल्यार्थोपमान- तुल्यार्थोपमान-कृत्य-
॥८।४।३॥ कृत्याः ॥८।४।३॥ नञ्-कु-प्रादय-
स्तत्पुरुषे ।
१०. कुप्रादयस्तत्पुरुषे अव्यये नञ्कुचादयः
॥८।४।४॥ ॥८।४।४॥


११. अभूवाक्चिद्दिधिषु न भूवाक्चिद्दिधिषु अभूवाक्चिद्दिधिषु
॥८।४।२०॥ ॥८।३।२२॥ पत्यावैश्वर्ये
१२. पत्यावैश्वर्ये पत्यावैश्वर्ये ॥८।४।२१॥ (पा॰पा॰स॰)
॥८।३।२१॥
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* इस लेख के प्रथम दो किश्तों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३ एवं मई १९९५ ।

**नोटः -
1. सूत्र संख्या के बाद अनुवृत्तियाँ लिखी गयी हैं ।
2. केवल मुख्य-मुख्य सूत्र ही दिये गये हैं ।

टिप्पणी -
1. यह सूत्रानुक्रमणिका ५९ पृष्ठों में बनकर तैयार है । इसकी तैयारी के समय महाभाष्य और काशिका के अलावा हमने जर्मन विद्वान् Dr. Bruno Liebich द्वारा प्रकाशित Konkordanz Panini-Chandra और डॉ॰ क्षितीशचन्द्र चटर्जी द्वारा सम्पादित चान्द्रव्याकरण का भी उपयोग किया है ।
2. इस प्रतिलिपि के अन्तिम पृष्ठ १२१ पर फुटनोट में निम्नलिखित सूचना दी गयी है -
Transcribed in 1920-21 from a Ms. of Mr. K. C. Valiaraja of Kattakal, Malabar.
3. अगर 'कु' को स्वरादिगण में माना जाय तो इसका पाठ जरूरी होगा, क्योंकि तब यह निपात नहीं होगा, मगर 'कु' का तत्पुरुष समास में प्रकृतिस्वर इष्ट है ।
4. मद्रास संस्करण में 'साति' के बदले 'सति' छपा है जो छपाई की अशुद्धि है ।
5. 'तदस्यास्त्यस्मिन्निति मतुप्' (पा॰ ५।२।९४) से मतुप् प्रत्यय, 'झयः' (पा॰ ८।२।१०) से मतुप् के मकार का वकार होकर 'चित्वान्' । भाष्यकार के मतानुसार मतुप् का लोप होकर सिर्फ 'चित्' ।

(वेदवाणी, जुलाई १९९६, पृ॰ ९-२१, में प्रकाशित)

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