Friday, April 18, 2008

8. सरस्वतीकण्ठाभरण-सूत्रपाठ-शुद्धि (६)

(स्वर एवं वैदिक प्रकरण)

Synopsis

A comparative study of Panini and Bhoja sutras2 indicates that the sutras corresponding to P(anini) 6.2.156-159 are missing in SKA. In this article it is shown with proof that the original SKA did contain the sutras parallel to P.6.2.156-159. It is due to the careless omission by the copyist of complete one line of सूत्रपाठ that the available SKA Ms reads 'नञः स्वार्थनिषेधे-शोभ्यर्हयां च' as one sutra 8.4.171. But actually there is a gap between 'र्ह' and 'यां' i.e. 'नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्ह ................ यां च ।' Along with this, another three corrupted sutras from ch. VIII of SKA are also discussed whose readings are incorrect in both the editions (see the Table at the end).

इस लेख में सरस्वतीकण्ठाभरण (स॰कं॰) के आठवें अध्याय के चार अन्य सूत्रों की चर्चा की जायेगी जिनके सूत्रपाठ दोनों संस्करण में अशुद्ध हैं ।

सर्वप्रथम हम सूत्र ८।४।१७१ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि/मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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नञः स्वार्थनिषेधेशोभ्यर्हयां च नञो निषेधे स्वार्थेशोभ्यर्हार्थाश्च
॥८।४।१७१॥ ॥८।४।१७७॥
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पाणिनि और भोजसूत्रों के तुलनात्मक अध्ययन3 से पता चलता है कि स॰कं॰ में पाणिनि सूत्र ६।२।१५६-१५९ (ययतोश्चातदर्थ । अच्कावशक्तौ । आक्रोशे च । संज्ञायाम् ।) में सङ्गत सूत्र नहीं हैं । पाणिनिसूत्र 'नञो गुणप्रतिषेधे संपाद्यर्हहितालमर्थास्तद्धिताः' (६।२।१५५) का 'हितालमर्थास्तद्धिताः' अंश भी स॰कं॰ सूत्र ८।४।१७१ में लुप्त है । हमारा विचार है कि इस भोजसूत्र में 'र्ह' और 'यां' के बीच रिक्तता है - 'नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्ह ........ यां च ।' यह रिक्तता प्रतिलिपिकर्ता के द्वारा प्रतिलिपि करते समय मूल सूत्रपाठ की एक पूरी पंक्ति अनवधानतावश छूट जाने के कारण उत्पन्न हुई है । ऐसी अनवधानता अस्वाभाविक नहीं है । डॉ॰ भीमसेन शास्त्री ने भी 'न्यास पर्यालोचन' में इसका एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है4 - "वस्तुतः यहाँ पर न्यासकार का कोई दोष नहीं । प्राच्यसंस्करण के कम्पोजीटरों ने राजशाही संस्करण को सामने रखकर कम्पोज करते समय अनवधानतावश पूरी एक पंक्ति ही छोड़ दी, सम्पादक मण्डल ने इस ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया ।" स॰कं॰ में उपर्युक्त रिक्तता के बारे में हम निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत करते हैं -

१. भोजसूत्र 'दाञ्धाञोर्वा' (१।३।२१६) की दण्डनाथवृत्ति में लिखा है - "दद्दधोरचा सिद्धे दाधोः श-विधानम् 'अच्कावशक्तम्' इत्यन्तोदात्तत्त्वबाधनार्थम् । तेन अददः, अदध इति नञ्स्वर एव भवति।"5 इससे सिद्ध होता है कि पाणिनिसूत्र ६।२।१५७ का संगत सूत्र स॰कं॰ में अवश्य था जो उपलब्ध संस्करण में नहीं है ।

२. सूत्र ८।४।१७१ के अन्त में 'शोभ्यर्हायां च' नहीं, बल्कि 'शोभ्यर्हयां च' प्राप्त होता है । इससे भी शङ्का उत्पन्न होती है कि - 'शोभ्यर्ह' और 'यां च' के बीच कुछ रिक्तता है । अगर 'शोभ्यर्हायां च' पाठ माना जाय तो भी बात नहीं बनती, क्योंकि द्वित्वबोधक ('शोभि' और 'अर्हा') में सप्तमी एकवचन का प्रयोग अटपटा लगता है । भोजसूत्र की शैली ऐसी है कि वे एकत्वबोधक के लिए एकवचन, द्वित्वबोधक के लिए द्विवचन एवं बहुत्व के लिए बहुवचन का ही प्रयोग करते हैं ।
पाणिनि के 'गुणप्रतिषेधे' में 'गुण' शब्द की व्याख्या काशिकावृत्ति में इस प्रकार है - "गुण इति तद्धितार्थप्रवृत्तिनिमित्तं सम्पादित्वाद्युच्यते ।" 'गुणप्रतिषेधे' के लिए भोज ने और स्पष्ट शब्द 'स्वार्थनिषेधे' का प्रयोग किया है । गु॰सं॰ के इस समस्त शब्द को तोड़कर एवं उलटकर लिखा गया है । ऐसा करने से सूत्रार्थ स्पष्ट होने के बजाय और भी क्लिष्ट एवं भ्रामक होगा जैसा कि डॉ॰ कंसारा द्वारा दिये गये सूत्रार्थ से ही पता चलता है -

"(स्वरविषये) स्वार्थ (= सम्पादि, हित), ईश (= अलम्), अर्ह इत्येवमर्था ये ......... ।"

उन्होंने 'अलम्' अर्थ को 'स्वार्थ' के अन्तर्गत न समझकर इसके लिए अलग से 'ईश' शब्द की कल्पना की है । पाणिनिसूत्र 'सम्पादिनि' (५।१।९९) का सङ्गत भोजसूत्र 'शोभते' (५।१।१०३) है । कात्यायन-वार्त्तिक 'इक्श्तिपौ धातुनिर्देशे' का सङ्गत भोजसूत्र 'इकिश्तिपः स्वरूपे' (२।४।१८१) है । 'शुभ दीप्तौ' में 'इ' प्रत्यय लगाने से बना 'शोभि' शब्द धातु का स्वरूप निरूपित करता है । अतः पा॰ ६।२।१५५ के 'सम्पाद्यर्ह' अंश के लिए स॰कं॰ में 'शोभ्यर्ह' का प्रयोग उचित है ।
उपर्युक्त विवेचन के बाद एवं भोज की सूत्रशैली का ध्यान रखते हुए हम सूत्र ८।४।१७१ के निम्नलिखित शुद्धरुप प्रस्तावित करते हैं -
"नञः स्वार्थनिषेधे शोभ्यर्हहितालमर्थास्तद्धिताः । य-यतौ चातदर्थे । अच्कावशक्तौ । आक्रोशे च । संज्ञायां च ।"

इसके बाद हम अन्य भ्रष्ट सूत्र ८।४।१९९ पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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कन्वेकाचिबहोर्नञ्समानाधिकरणे कप्येकाचि बहोर्नञ् समानाधिकरणे
॥८।४।१९९॥ ॥८।४।२०३॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “कण्वेकाचि. बहोर्नत्समानाधिकरणे.”

दोनों प्रकाशित संस्करणों में इन दो सूत्रों को एक सूत्र के रूप में रखा गया है । हमारे मत में इन दो सूत्रों के सही पाठ क्रमशः 'कबेकाचि' एवं 'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' हैं जिनकी व्याख्या नीचे दी जाती है ।

'कबेकाचि ॥८।४।१९९॥ अनु॰ - नञ्सुभ्याम्, ह्रस्वान्ते, कपि, उदात्तः ।'
सूत्रार्थः - नञ्सुभ्यां परे कपि परतः ह्रस्वान्ते एकाचि उत्तरपदे कबेव उदात्तो भवति । अ॒ज्ञ॒कः । सु॒ज्ञ॒कः । 'कपि' इति पृथग् ग्रहणात् तद्व्यतिरिक्तमेव उत्तरपदं गृह्यते ।6 यहाँ नञ् (='अ') एवं 'सु' के परे 'ज्ञ' यह ह्रस्वान्त एकाच् उत्तरपद है जिसके आगे कप् प्रत्यय है । यह सूत्र 'ह्रस्वान्तेऽन्त्यात्पूर्वम्' (पा॰ ६।२।१७४) की काशिकावृत्ति पर आधारित है - "पूर्वमिति वर्त्तमाने पुनः पूर्वग्रहणम् प्रवृत्तिभेदेन नियमप्रतिपत्त्यर्थम् ह्रस्वान्तेऽन्त्यादेव पूर्वमुदात्तं भवति, न कपिपूर्वमिति । तेन अ॒ज्ञ॒कः, सु॒ज्ञ॒कः इत्यत्र कबन्तस्यैवान्तोदात्तत्वं भवति ।"

'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' पाणिनिसूत्र 'बहोर्नञ्वदुत्तरपदभूम्नि' (६।२।१७५) पर आधारित है जिसका अर्थ है - उत्तरपदार्थ के भूम्नि (=बहुत्व) को कहने में वर्त्तमान जो बहु शब्द उससे नञ् के समान स्वर होता है । नञ्सुभ्याम् (पा॰ ६।२।१७२) इत्युक्तम्, बहोरपि तथा भवति – ब॒हु॒य॒वो देशः (बहवः यवाः यस्मिन् सः) । उत्तरपदभूम्नोति किम् ? बहुषु मनोऽस्य ब॒हुम॑ना अयम् । अत्रोत्तरपदबहुत्वे बहुशब्दो न वर्तते ।

भोज ने 'उत्तरपदभूम्नि' के बदले और स्पष्ट रूप से 'समानाधिकरणे' का प्रयोग किया है । इस सूत्र का अर्थ है - बहुब्रीहि समास में समानाधिकरण में आये उत्तरपद के रहते 'बहु' शब्द को नञ् के समान स्वर होता है । 'ब॒हु॒य॒वो देशः' में 'बहु' और 'यव' दोनों पद समानाधिकरण में है । 'बहुमना अयम्' में 'बहु' और 'मनः' के समानाधिकरण में नहीं होने से नञ् के समान स्वर अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता ।

पाण्डुलिपि में 'बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे' के बदले 'बहोर्नत्समानाधिकरणे' पाठ है जिसका बिना उल्लेख किये मद्रास संस्करण में 'नत्' के बदले 'नञ्' कर दिया गया है । गु॰सं॰ में 'कप्येकाचि बहोर्नञ्समानाधिकरणे' का सूत्रार्थ इस प्रकार है -
"(स्वरविषये) नञ्समानाधिकरणे सति बहुशब्दस्य कपि एकाचि उत्तरपदे परतः अन्त्यात् पूर्वमुदात्तं भवति । बहुकुमारिकः । बहुयवकः ।"

यह विचित्र सूत्रार्थ है । सूत्रार्थ में उत्तरपद के एकाच् होने की बात कही गयी है जबकि उदाहरणों में अनेकाच् पद दिये गये हैं । गुजराती अर्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है - "नञ् साथे समानाधिकरणमां रहेला बहु शब्द ............. ।" 'बहु' शब्द का समानाधिकरण 'नञ्' के साथ नहीं बल्कि उत्तरपद के साथ अभिप्रेत है ।


अब हम सूत्र ८।४।२१७ पर विचार करते हैं ।

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मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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अतेरकृत्पदे ॥८।४।२१७॥ अतेरकृत्पदम् ॥८।४।२२१॥
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पाण्डुलिपि में सूत्रपाठ – “अतद्धापे” ।

यह भोत्रसूत्र पाणिनिसूत्र 'अतेरकृत्पदे' (६।२।१९१) पर आधारित है जिस पर कात्यायन वार्त्तिक है - "अतेर्धातुलोपे ॥१॥" इस पा॰ सू॰ का अर्थ करने में महाभाष्य और काशिका के बीच मतभेद पाया जाता है । उपर्युक्त वार्त्तिक पर भाष्य इस प्रकार है -
"अतेर्धातुलोपे इति वक्तव्यम् । अकृत्पदे इति ह्युच्यमान इह च प्रसज्येत शोभनो गार्ग्यः अतिगार्ग्यः । इह च न स्यात् अ॒ति॒का॒र॒कः अ॒ति॒प॒दा शक्वरी ।"
परन्तु पा॰ सू॰ ६।२।१९१ पर काशिकावृत्ति है - "अतेः परमकृदन्तं पदशब्दश्चान्तोदात्तो भवति । अ॒त्य॒ङ्कुशो नागः । अ॒ति॒कशोऽश्चः । पदशब्दः खल्वपि - अतिपदा शक्वरी ।"

महाभाष्य के अनुसार 'अकृत्पदे' कहने पर 'अतिपदा' को अन्तोदात्त प्राप्त नहीं होता है, परन्तु काशिका के अनुसार 'अतिपदा' को अन्तोदात्त प्राप्त होता है । इसी वैमत्य के बारे में सिद्धान्त-कौमुदी की शेखरटीका में लिखा है - "अतेर । अकृदन्तं पदशब्दश्चेति । अयञ्चार्थो वृत्तौ । भाष्यात्तु अतेरुत्तरपदमन्तोदात्तम्, कृदन्तं पदशब्दञ्च वर्जयित्वेत्यर्थः प्रतीयते ।"
भट्टोजिदीक्षित एवं स्वरसिद्धान्तचन्द्रिकाकार ने काशिकावृत्ति का अनुसरण किया है । 'अकृत्पदे' का जो भी अर्थ लिया जाय, काशिकाकार भी इस बात से सहमत हैं कि 'अतेर्धातुलोपे इति वक्तव्यम् । इह मा भूत् - शोभनो गार्ग्यः अतिगार्ग्यः । इह च यथा स्यात् - अतिक्रान्तः कारकाद् अतिकारक इति ।' सिद्धान्तचन्द्रिकाकार लिखते हैं -

"अतेः परस्य अकृदन्तस्य पदशब्दस्य अन्त उदात्तः । अत्यङ्कुशो नागः । अतिपदा शक्वरी । इह अव्याप्त्यतिव्याप्तिपरिहाराय 'अकृत्पदम्' इत्यपनीय 'अतेर्धातुलोपे' इति व्यक्तव्यम्' इति वार्त्तिकम् । यथान्यासे तु कारकमतिक्रान्तः 'अतिकारकः' इत्यत्र अव्याप्तिः । शोभनो गार्ग्यः 'अतिगार्ग्यः' इत्यत्र अतिव्याप्तिश्च । अत्यङ्कुशादौ वृत्तिविषये अतिशब्दोऽतिक्रान्तार्थवृत्तिरिति क्रमेरप्रयोग एव लोपः ।" उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भोजसूत्र ८।४।२१७ का शुद्धपाठ 'अतेर्धातुलोपे' ही होना चाहिये ।

अन्त में हम सूत्र ८।२।१२२ पर विचार करते हैं ।

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पाण्डुलिपि/मद्रास संस्करण में सूत्रपाठ गुजराती संस्करण में सूत्रपाठ
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एचः प्रश्नान्तादिवत् ॥८।२।१२२॥ एचः प्रश्नान्तादिवत् पूर्वस्यार्धस्यादु-
त्तरस्येदुतौ ॥८।२।१२८॥
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यह सूत्र पा॰ 'एचो॰' (८।२।१०७) के निम्नलिखित कात्यायन वार्त्तिक पर आधारित है -

आमन्त्रिते छन्दस्युपसंख्यानम् ॥३॥
अग्ना ३ इ पत्नी वा ३ : सजूर्देवेन त्वष्ट्रा सोमं पिब (तै॰ सं॰ १।४।२७।१) । स॰कं॰ के किसी भी संस्करण में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है । गु॰ सं॰ में जो कुछ कहा गया है, उसका प्रावधान स॰कं॰ के लौकिक भाग में सूत्र 'एचोऽप्रगृह्यस्य प्रश्नान्ताभिपूजितं विचारप्रत्यभिवादेष्वादिदुत्परः पदान्ते' (७।३।१४९) के अन्तर्गत पहले ही किया जा चुका है । अतः उपर्युक्त सूत्र का शुद्ध रूप कुछ इस प्रकार होगा -
एच आमन्त्रिते प्रश्नान्तादिवत् ॥८।२।१२२॥

तालिका १
सरस्वतीकण्ठाभरण के प्रकाशित अशुद्ध सूत्रपाठों के प्रस्तावित शुद्धपाठ
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क्र॰सं॰ म॰ सं॰ में सूत्रपाठ गु॰ सं॰ में सूत्रपाठ शुद्धपाठ
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१. एचः प्रश्नान्तादिवत् एचः प्रश्नान्तादिवत् एच आमन्त्रिते
॥८।२।१२२॥ पूर्वस्यार्धस्यादु- प्रश्नान्तादिवत् ।
त्तरस्येदुतौ॥८।२।१२०॥

२. नञः स्वार्थनिषेधे- नञो निषेधे स्वार्थे- नञः स्वार्थनिषेधे-
शोभ्यर्हयां च शोभ्यर्हार्थाश्च शोभ्यर्हहितालमर्था-
॥८।४।१७१॥ ॥८।४।१७७॥ स्तद्धिताः ।
य-यतौ चातदर्थे ।
अच्कावशक्तौ ।
आक्रोशे च ।
संज्ञायां च ।

३. कण्वेकाचि बहोर्नञ्- कप्येकाचि बहोर्नञ्- कबेकाचि ।
समानाधिकरणे समानाधिकरणे बहोर्नञ्वत्समानाधिकरणे ।
॥८।४।१९९॥ ॥८।४।२०३॥

४. अतेरकृत्पदे अतेरकृत्पदम् अतेर्धातुलोपे ।
॥८।४।२१७॥ ॥८।४।२२१॥
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टिप्पणी
1. पूर्व लेखों के लिए देखें - वेदवाणी, जुलाई १९९३, मई १९९५, जुलाई १९९६, जनवरी १९९७, सितम्बर १९९७, मई १९९८ एवं फरवरी १९९९.
2. "Concordance of Nine Sanskrit Garmmars" (नवसंस्कृतव्याकरणानां सूत्रानुक्रमणिका) - prepared by the present author (unpublished).
3. वही ।
4. न्यास पर्यालोचन, पृष्ठ ४०१.
5. न्यास पर्यालोचन, पृष्ठ १२४.
6. स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका, पृष्ठ १६४.

(वेदवाणी, अगस्त १९९९, पृ॰ ५-९, में प्रकाशित)

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